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निबंध: पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार, कारण, प्रभाव, नियंत्रण के उपाय एवं महत्वपूर्ण तथ्य

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पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार, कारण व प्रभाव | Environmental Pollution in Hindi

पर्यावरण प्रदूषण पर निबंध: (Essay on Environmental Pollution in Hindi)

पर्यावरण प्रदूषण किसे कहते है? (What is Environmental Pollution?)

प्रदूषण, पर्यावरण में दूषक पदार्थों के प्रवेश के कारण प्राकृतिक संतुलन में पैदा होने वाले दोष को कहते हैं। प्रदूषक पर्यावरण को और जीव-जन्तुओं को नुकसान पहुंचाते हैं। प्रदूषण का अर्थ है – ‘हवा, पानी, मिट्टी आदि का अवांछित द्रव्यों से दूषित होना’, जिसका सजीवों पर प्रत्यक्ष रूप से विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान द्वारा अन्य अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते हैं। विज्ञान के इस युग में मानव को जहाँ कुछ वरदान मिले है, वहीं कुछ अभिशाप भी मिले हैं। ‘प्रदूषण’ एक ऐसा अभिशाप हैं, जो विज्ञान की गर्भ से जन्मा हैं और आज जिसे सहने के लिए विश्व की अधिकांश जनता मजबूर हैं। पर्यावरण प्रदूषण में मानव की विकास प्रक्रिया तथा आधुनिकता का महत्वपूर्ण योगदान है। यहाँ तक मानव की वे सामान्य गतिविधियाँ भी प्रदूषण कहलाती हैं, जिनसे नकारात्मक फल मिलते हैं। उदाहरण के लिए उद्योग द्वारा उत्पादित नाइट्रोजन ऑक्साइड प्रदूषक हैं। हालाँकि उसके तत्व प्रदूषक नहीं हैं। यह सूर्य की रोशनी की ऊर्जा है, जो कि उसे धुएँ और कोहरे के मिश्रण में बदल देती है।

पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार:

पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं:

  • जल प्रदूषण (Water Pollution)
  • वायु प्रदूषण (Air Pollution)
  • ध्वनि प्रदूषण (Sound Pollution)
  • भूमि प्रदूषण (Land Pollution)
  • प्रकाश प्रदूषण (Light Pollution)
  • रेडियोधर्मी प्रदूषण (Radioactive Pollution)

1. जल प्रदूषण किसे कहते है? (What is Water Pollution in Hindi)

जल प्रदूषण: जल में किसी बाहरी पदार्थ की उपस्थिति, जो जल के स्वाभाविक गुणों को इस प्रकार परिवर्तित कर दे कि जल स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो जाए या उसकी उपयोगिता कम हो जाए जल प्रदूषण कहलाता है। अन्य शब्दों में ऐसे जल को नुकसानदेह तथा लोक स्वास्थ्य को या लोक सुरक्षा को या घरेलू, व्यापारिक, औद्योगिक, कृषीय या अन्य वैद्यपूर्ण उपयोग को या पशु या पौधों के स्वास्थ्य तथा जीव-जन्तु को या जलीय जीवन को क्षतिग्रस्त करें, जल प्रदूषण कहलाता है।

जल प्रदूषण के कारण: (Causes of Water Pollution in Hindi)

जल प्रदूषण के विभिन्न कारण निम्नलिखित हैः

  • मानव मल का नदियों, नहरों आदि में विसर्जन।
  • सफाई तथा सीवर का उचित प्रबंध्न न होना।
  • विभिन्न औद्योगिक इकाइयों द्वारा अपने कचरे तथा गंदे पानी का नदियों, नहरों में विसर्जन।
  • कृषि कार्यों में उपयोग होने वाले जहरीले रसायनों तथा खादों का पानी में घुलना।
  • नदियों में कूड़े-कचरे, मानव-शवों और पारम्परिक प्रथाओं का पालन करते हुए उपयोग में आने वाले प्रत्येक घरेलू सामग्री का समीप के जल स्रोत में विसर्जन।

जल प्रदूषण के प्रभाव: (Impacts of Water Pollution)

जल प्रदूषण के निम्नलिखित प्रभाव हैः

  • इससे मनुष्य, पशु तथा पक्षियों के स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न होता है। इससे टाईफाइड, पीलिया, हैजा, गैस्ट्रिक आदि बीमारियां पैदा होती हैं।
  • इससे विभिन्न जीव तथा वानस्पतिक प्रजातियों को नुकसान पहुँचता है।
  • इससे पीने के पानी की कमी बढ़ती है, क्योंकि नदियों, नहरों यहाँ तक कि जमीन के भीतर का पानी भी प्रदूषित हो जाता है।

जल प्रदूषण रोकने के उपाय: (Measures to prevent Water Pollution)

जल प्रदूषण पर निम्नलिखित उपायों से नियंत्रण किया जा सकता है-

  • वाहित मल को नदियों में छोड़ने के पूर्व कृत्रिम तालाबों में रासायनिक विधि द्वारा उपचारित करना चाहिए।
  • अपमार्जनों का कम-से-कम उपयोग होना चाहिए। केवल साबुन का उपयोग ठीक होता है।
  • कारखानों से निकले हुए अपशिष्ट पदार्थों को नदी, झील एवं तालाबों में नहीं डालना चाहिए।
  • घरेलू अपमार्जकों को आबादी वाले भागों से दूर जलाशयों मे डालना चाहिए।
  • जिन तालाबों का जल पीने का काम आता है, उसमें कपड़े, जानवर आदि नहीं धोने चाहिए।
  • नगरों व कस्बों के सीवेज में मल-मूत्र, कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ तथा जीवाणु होते हैं। इसे आबादी से दूर खुले स्थान में सीवेज को निकाला जा सकता है या फिर इसे सेप्टिक टैंक, ऑक्सीकरण ताल तथा फिल्टर बैड आदि काम में लाए जा सकते हैं।
  • बिजली या ताप गृहों से निकले हुए पानी को स्प्रे पाण्ड या अन्य स्थानों से ठंडा करके पुनः उपयोग में लाया जा सकता है।

इन्हें भी पढे: भारत के प्रमुख जैव विविधता/पर्यावरण/ वन्यजीव संरक्षण सम्मेलन

2. वायु प्रदूषण किसे कहते है? (What is Air Pollution in Hindi)

वायु प्रदूषण: वायु विभिन्न गैसों का मिश्रण है जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक 78 प्रतिशत होती है, जबकि 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड पाया जाता है तथा शेष 0.97 प्रतिशत में हाइड्रोजन, हीलियम, आर्गन, निऑन, क्रिप्टन, जेनान, ओज़ोन तथा जल वाष्प होती है। वायु में विभिन्न गैसों की उपरोक्त मात्रा उसे संतुलित बनाए रखती है। इसमें जरा-सा भी अन्तर आने पर वह असंतुलित हो जाती है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है। श्वसन के लिए ऑक्सीजन जरूरी है। जब कभी वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की वृद्धि हो जाती है, तो ऐसी वायु को प्रदूषित वायु तथा इस प्रकार के प्रदूषण को वायु प्रदूषण कहते हैं।

वायु प्रदूषण के कारण: (Causes of Air Pollution in Hindi)

वायु प्रदूषण के कुछ सामान्य कारण हैं:

  • वाहनों से निकलने वाला धुआँ।
  • औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला धुँआ तथा रसायन।
  • आणविक संयत्रों से निकलने वाली गैसें तथा धूल-कण।
  • जंगलों में पेड़ पौधें के जलने से, कोयले के जलने से तथा तेल शोधन कारखानों आदि से निकलने वाला धूआँ।

वायु प्रदूषण का प्रभाव: (Impacts of Air Pollution)

वायु प्रदूषण हमारे वातावरण तथा हमारे ऊपर अनेक प्रभाव डालता है। उनमें से कुछ निम्नलिखित है :

  • हवा में अवांछित गैसों की उपस्थिति से मनुष्य, पशुओं तथा पंक्षियों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे दमा, सर्दी-खाँसी, अँधापन, श्रवण शक्ति का कमजोर होना, त्वचा रोग जैसी बीमारियाँ पैदा होती हैं। लंबे समय के बाद इससे जननिक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और अपनी चरमसीमा पर यह घातक भी हो सकती है।
  • वायु प्रदूषण से सर्दियों में कोहरा छाया रहता है, जिसका कारण धूएँ तथा मिट्टी के कणों का कोहरे में मिला होना है। इससे प्राकृतिक दृश्यता में कमी आती है तथा आँखों में जलन होती है और साँस लेने में कठिनाई होती है।
  • ओजोन परत, हमारी पृथ्वी के चारों ओर एक सुरक्षात्मक गैस की परत है। जो हमें सूर्य से आनेवाली हानिकारक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है। वायु प्रदूषण के कारण जीन अपरिवर्तन, अनुवाशंकीय तथा त्वचा कैंसर के खतरे बढ़ जाते हैं।
  • वायु प्रदुषण के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता है, क्योंकि सूर्य से आने वाली गर्मी के कारण पर्यावरण में कार्बन डाइ आक्साइड, मीथेन तथा नाइट्रस आक्साइड का प्रभाव कम नहीं होता है, जो कि हानिकारक हैं।
  • वायु प्रदूषण से अम्लीय वर्षा के खतरे बढ़े हैं, क्योंकि बारिश के पानी में सल्फर डाई आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड आदि जैसी जहरीली गैसों के घुलने की संभावना बढ़ी है। इससे फसलों, पेड़ों, भवनों तथा ऐतिहासिक इमारतों को नुकसान पहुँच सकता है।

वायु प्रदूषण रोकने के उपाय: (Measures to prevent Air Pollution)

वायु प्रदूषण की रोकथाम एवं नियंत्रण के लिए निम्नलिखित विधियां अपनाई जाती हैं-

  • जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।
  • लोगो को वायु प्रदूषण से होने वाले नुक्सान और रोगों के बारे में जानकारी प्रदान की जानी चाहिए।
  • धुम्रपान पर नियंत्रण लगा देना चाहिए।
  • कारखानों के चिमनियों की ऊंचाई अधिक रखना चाहिए।
  • कारखानों के चिमनियों में फिल्टरों का उपयोग करना चाहिए।
  • मोटरकारों और स्वचालित वाहनों को ट्यूनिंग करवाना चाहिए ताकि अधजला धुआं बाहर नहीं निकल सकें।
  • अधिक-से-अधिक वृक्षारोपण करना चाहिए।
  • उद्योगों की स्थापना शहरों एवं गांवों से दूर करनी चाहिए।
  • अधिक धुआं देने वाले स्वचालितों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
  • सरकार द्वारा प्रतिबंधात्मक कानून बनाकर उल्लंघन करने वालों पर कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।

3. ध्वनि प्रदूषण किसे कहते है? (What is Sound Pollution in Hindi)

ध्वनि प्रदूषण: जब ध्वनि की तीव्रता अधिक हो जाती है तो वह कानों को अप्रिय लगने लगती है। इस अवांछनीय अथवा उच्च तीव्रता वाली ध्वनि को शोर कहते हैं। शोर से मनुष्यों में अशान्ति तथा बेचैनी उत्पन्न होती है। साथ ही साथ कार्यक्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः शोर वह अवांक्षनीय ध्वनि है जो मनुष्य को अप्रिय लगे तथा उसमें बेचैनी तथा उद्विग्नता पैदा करती हो। पृथक-पृथक व्यक्तियों में उद्विग्नता पैदा करने वाली ध्वनि की तीव्रता अलग-अलग हो सकती है। वायुमंडल में अवांछनीय ध्वनि की मौजूदगी को ही ‘ध्वनि प्रदूषण’ कहा जाता है।

ध्वनि प्रदूषण के कारण (Causes of Sound Pollution in Hindi): रेल इंजन, हवाई जहाज, जनरेटर, टेलीफोन, टेलीविजन, वाहन, लाउडस्पीकर आदि आधुनिक मशीनें।

ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव (Impacts of Sound Pollution in Hindi): लंबे समय तक ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से श्रवण शक्ति का कमजोर होना, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, उच्चरक्तचाप अथवा स्नायविक, मनोवैज्ञानिक दोष उत्पन्न होने लगते हैं। लंबे समय तक ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से स्वाभाविक परेशानियाँ बढ़ जाती है।

ध्वनि प्रदूषण रोकने के उपाय: (Measures to prevent Sound Pollution)

ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय हैं-

  • लोगों मे ध्वनि प्रदूषण से होने वाले रोगों के बारे में उन्हें जागरूक करना चाहिए।
  • कम शोर करने वाले मशीनों-उपकरणों का निर्माण एवं उपयोग किए जाने पर बल देना चाहिए।
  • अधिक ध्वनि उत्पन्न करने वाले मशीनों को ध्वनिरोधी कमरों में लगाना चाहिए तथा कर्मचारियों को ध्वनि अवशोषक तत्वों एवं कर्ण बंदकों का उपयोग करना चाहिए।
  • उद्योगों एवं कारखानों को शहरों या आबादी से दूर स्थापित करना चाहिए।
  • वाहनों में लगे हार्नों को तेज बजाने से रोका जाना चाहिए।
  • शहरों, औद्योगिक इकाइयों एवं सड़कों के किनारे वृक्षारोपण करना चाहिए। ये पौधे भी ध्वनि शोषक का कार्य करके ध्वनि प्रदूषण को कम करते हैं।
  • मशीनों का रख-रखाव सही ढंग से करना चाहिए।

4. भूमि प्रदूषण किसे कहते है? (What is Land Pollution in Hindi)

भूमि प्रदूषण: भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में कोई ऐसा अवांछनीय परिवर्तन जिसका प्रभाव मानव तथा अन्य जीवों पर पड़े या जिससे भूमि की गुणवत्त तथा उपयोगित नष्ट हो, ‘भूमि प्रदूषण’ कहलाता है। इसके अन्तर्गत घरों के कूड़ा-करकट के अन्तर्गत झाड़न-बुहारन से निकली धूल, रद्दी, काँच की शीशीयाँ, पालीथीन की थैलियाँ, प्लास्टिक के डिब्बे, अधजली लकड़ी, चूल्हे की राख, बुझे हुए, अंगारे आदि शामिल हैं।

भूमि प्रदूषण के कारण:(Causes of Land Pollution in Hindi)

भूमि प्रदूषण के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:-

  • कृषि में उर्वरकों, रसायनों तथा कीटनाशकों का अधिक प्रयोग।
  • औद्योगिक इकाईयों, खानों तथा खादानों द्वारा निकले ठोस कचरे का विसर्जन।
  • भवनों, सड़कों आदि के निर्माण में ठोस कचरे का विसर्जन।
  • कागज तथा चीनी मिलों से निकलने वाले पदार्थों का निपटान, जो मिट्टी द्वारा अवशोषित नहीं हो पाते।
  • प्लास्टिक की थैलियों का अधिक उपयोग, जो जमीन में दबकर नहीं गलती।
  • घरों, होटलों और औद्योगिक इकाईयों द्वारा निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों का निपटान, जिसमें प्लास्टिक, कपड़े, लकड़ी, धातु, काँच, सेरामिक, सीमेंट आदि सम्मिलित हैं।

भूमि प्रदूषण के प्रभाव: (Impact of Land Pollution in Hindi)

भूमि प्रदूषण के निम्नलिखित हानिकारक प्रभाव हैः

  • कृषि योग्य भूमि की कमी।
  • भोज्य पदार्थों के स्रोतों को दूषित करने के कारण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक।
  • भूस्खलन से होने वाली हानियाँ।
  • जल तथा वायु प्रदूषण में वृद्धि।

भूमि प्रदूषण रोकने के उपाय: (Measures to prevent Soil Pollution)

मृदा को प्रदूषित होने से बचाने के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:-

  • मृत प्राणियों, घर के कूड़ा-करकट, गोबर आदि को दूर गड्ढे में डालकर ढक देना चाहिए।
  • हमें खेतों में शौच नहीं करनी चाहिए बल्कि घर के अन्दर ही शौचालय की व्यवस्था करनी चाहिए।
  • मकान व भवन को सड़क से कुछ दूरी पर बनाना चाहिए।
  • मृदा अपरदन को रोकने के लिए आस-पास घास एवं छोटे-छोटे पौधे लगाना चाहिए।
  • घरों में साग-सब्जी को उपयोग करने के पहले धो लेना चाहिए।
  • गांवों में गोबर गैस संयंत्र अर्थात् गोबर द्वारा गैस बनाने को प्रोत्साहन देना चाहिए। इससे ईंधन के लिए गैस भी मिलेगी तथा गोबर खाद।
  • ठोस पदार्थ अर्थात् टिन, तांबा, लोहा, कांच आदि को मृदा में नहीं दबाना चाहिए।

5. सामाजिक प्रदूषण किसे कहते है? (What is Social Pollution in Hindi)

सामाजिक प्रदूषण जनसँख्या वृद्धि के साथ ही साथ शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक मूल्यों का ह्रास होना आदि शामिल है। सामाजिक प्रदूषण का उद्भव भौतिक एवं सामाजिक कारणों से होता है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के साथ स्वयं नागरिकों को जागरूक होने कि जरुरत है जिससे इस सामाजिक प्रदूषण से बचा जा सके

सामाजिक प्रदूषण के कारण: (Causes of Social Pollution in Hindi)

सामाजिक प्रदूषण को निम्न उपभागों में विभाजित किया जा सकता है:-

  • जनसंख्या विस्फोट( जनसंख्या का बढ़ना)।
  • सामाजिक प्रदूषण (जैसे सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन, अपराध, झगड़ा फसाद, चोरी, डकैती आदि)।
  • सांस्कृतिक प्रदूषण।
  • आर्थिक प्रदूषण (जैसे ग़रीबी)।

6. प्रकाश प्रदूषण किसे कहते है? (What is Light Pollution in Hindi)

प्रकाश प्रदूषण, जिसे फोटोपोल्यूशन या चमकदार प्रदूषण के रूप में भी जाना जाता है, यह अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश के कारण होता है। प्रकाश का प्रदूषण हमारे घरों में दरवाजों और खिड़कियों के जरिये बाहर सड़कों पर लगे हुए बिजली के खम्भों और लैम्पों से भी घुस आता है। जो मौजूदा जिन्दगी में अनिवार्य और जरूरी चीज बन जाता है। इस तरह का प्रदूषण पर्यावरण में प्रकाश की वजह से लगातार बढ़ रहा है। इसको रोकने या कम करने का तरीका यही है कि बिजली या रोशनी का उपयोग जरूरत पड़ने पर ही किया जाये।

प्रकाश का प्रदूषण तीन तरह से फैलता है:-

  • 1. आसमान की चमक-दमक लालिमा से।
  • 2. घरों के अन्दर और बाहर से आने वाला प्रकाश। चौंधिया देने वाला तेज प्रकाश।
  • 3. लगातार निकलने वाली आसमान की चमक-दमक या लालिमा।

7. रेडियोधर्मी प्रदूषण किसे कहते है? (What is Radioactive Pollution in Hindi)

ऐसे विशेष गुण वाले तत्व जिन्हें आइसोटोप कहते हैं और रेडियोधर्मिता विकसित करते हैं, जिससे मानव जीव-जंतु, वनस्पतियों एवं अन्य पर्यावरणीय घटकों के हानि होने की संभावना रहती है, को नाभिकीय प्रदूषण या ‘रेडियोधर्मी प्रदूषण’ कहते हैं। परमाणु उर्जा उत्पादन और परमाणु हथियारों के अनुसंधान, निर्माण और तैनाती के दौरान उत्पन्न होता है।

  • रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत: आंतरिक किरणें, पर्यावरण (जल, वायु एवं शैल) तथा जीव-जंतु (आंतरिक)।
  • रेडियोधर्मी प्रदूषण के मानव निर्मित स्रोत: रेडियो डायग्नोसिस एवं रेडियोथेरेपिक उपकरण, नाभिकीय परीक्षण तथा नाभिकीय अपशिष्ट।

रेडियोधर्मी प्रदूषण रोकने के उपाय: (Measures to prevent Radioactive Pollution)

रेडियोधर्मी प्रदूषण को नियंत्रण करने के लिए निम्नलिखित उपाय  कर सकते हैं:-

  • परमाणु ऊर्जा उत्पादक यंत्रों की सुरक्षा करनी चाहिए।
  • परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
  • गाय के गोबर से दीवारों पर पुताई करनी चाहिए।
  • गाय के दूध के उपयोग से रेडियोधर्मी प्रदूषण से बचा जा सकता है।
  • सरकारी संगठनों एवं गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से जनजागरण करना चाहिए।
  • वृक्षारोपण करके रेडियोधर्मिता के प्रभाव से बचा जा सकता है।
  • रेडियोधर्मी पदार्थों का रिसाव सीमा में हो तथा वातावरण में विकिरण की मात्रा कम करनी चाहिए।

पर्यावरण प्रदूषण से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य: (Important Facts About Environmental Pollution)

  • वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड का होना भी प्रदूषण का एक बड़ा कारण है, यदि वह धरती के पर्यावरण में अनुचित अन्तर पैदा करता है।
  • ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव पैदा करने वाली गैसों में वृद्धि के कारण भू-मण्डल का तापमान निरन्तर बढ़ रहा है, जिससे हिमखण्डों के पिघलने की दर में वृद्धि होगी तथा समुद्री जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती क्षेत्र, जलमग्न हो जायेंगे। हालाँकि इन शोधों को पश्चिमी देश विशेषकर अमेरिका स्वीकार नहीं कर रहा है।
  • प्रदूषण के मायने अलग-अलग सन्दर्भों से निर्धारित होते हैं। परम्परागत रूप से प्रदूषण में वायु, जल, रेडियोधर्मिता आदि आते हैं। यदि इनका वैश्विक स्तर पर विश्लेषण किया जाये तो इसमें ध्वनि, प्रकाश आदि के प्रदूषण भी सम्मिलित हो जाते हैं।
  • गम्भीर प्रदूषण उत्पन्न करने वाले मुख्य स्रोत हैं- रासायनिक उद्योग, तेल रिफायनरीज़, आणविक अपशिष्ट स्थल, कूड़ा घर, प्लास्टिक उद्योग, कार उद्योग, पशुगृह, दाहगृह आदि।
  • आणविक संस्थान, तेल टैंक, दुर्घटना होने पर बहुत गम्भीर प्रदूषण पैदा करते हैं।
  • कुछ प्रमुख प्रदूषक क्लोरीनेटेड, हाइड्रोकार्बन्स, भारी तत्व लैड, कैडमियम, क्रोमियम, जिंक, आर्सेनिक, बैनजीन आदि भी प्रमुख प्रदूषक तत्व हैं।
  • प्राकृतिक आपदाओं के पश्चात भी प्रदूषण उत्पन्न हो जाता है। बड़े-बड़े समुद्री तूफानों के पश्चात जब लहरें वापिस लौटती हैं तो कचरे, कूड़े, टूटी नाव-कारें, समुद्र तट सहित तेल कारखानों के अपशिष्ट म्यूनिसपैल्टी का कचरा आदि बहाकर ले जाती हैं। समुद्र में आने वाली ‘सुनामी’ के पश्चात किये गये अध्ययन से पता चलता है कि तटवर्ती मछलियों में भारी तत्वों का प्रतिशत बहुत बढ़ गया था।
  • प्रदूषक विभिन्न प्रकार की बीमारियों को जन्म देते हैं। जैसे कैंसर, इलर्जी, अस्थमा, प्रतिरोधक बीमारियाँ आदि। जहाँ तक कि कुछ बीमारियों को उन्हें पैदा करने वाले प्रदूषक का ही नाम दे दिया गया है, जैसे- मरकरी यौगिक से उत्पन्न बीमारी को ‘मिनामटा’ कहा जाता है।

इन्हें भी पढे: मानव शरीर में होने वाले विभिन्न प्रकार के रोग एवं उनके लक्षण

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भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) – Indian Administrative Service (IAS)

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भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईपीएस) - Indian Administrative Service (IPS)

भारतीय प्रशासनिक सेवा – Indian Administrative Service (IAS)

भारतीय प्रशासनिक सेवा (अंग्रेजी: Indian Administrative Service) अखिल भारतीय सेवाओं में से एक है। इसके अधिकारी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी है। भारतीय प्रशासनिक सेवा (तथा भारतीय पुलिस सेवा) में सीधी भर्ती संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से की जाती है तथा उनका आवंटन भारत सरकार द्वारा राज्यों को कर दिया जाता है।

आईएएस अधिकारी केंद्रीय सरकार, राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में रणनीतिक और महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हैं। सरकार के वेस्टमिंस्टर प्रणाली के बाद दूसरे देशों की तरह, भारत में स्थायी नौकरशाही के रूप में आईएएस भारत सरकार के कार्यकारी का एक अविभाज्य अंग है, और इसलिए प्रशासन को तटस्थता और निरंतरता प्रदान करता है।

भारतीय पुलिस सेवा (IPS आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस / आईएफओएस) के साथ, आईएएस तीन अखिल भारतीय सेवाओं में से एक है – इसका संवर्ग केंद्र सरकार और व्यक्तिगत राज्यों दोनों के द्वारा नियोजित है।

उप-कलेक्टर/मजिस्ट्रेट के रूप में परिवीक्षा के बाद सेवा की पुष्टि करने पर, आईएएस अधिकारी को कुछ साल की सेवा के बाद जिला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के रूप में जिले में प्रशासनिक आदेश दिया जाता है, और आमतौर पर, कुछ राज्यों में सेवा के 16 साल की सेवा करने के बाद, एक आईएएस अधिकारी मंडलायुक्त के रूप में राज्य में एक पूरे मंडल का नेतृत्व करता है। सर्वोच्च पैमाने पर पहुंचने पर, आईएएस अधिकारी भारत सरकार के पूरे विभागों और मंत्रालयों की का नेतृत्व करते हैं। आईएएस अधिकारी द्विपक्षीय और बहुपक्षीय वार्ता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रतिनियुक्ति पर, वे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियाई विकास बैंक और संयुक्त राष्ट्र या उसकी एजेंसियों जैसे अंतरसरकारी संगठनों में काम करते हैं। भारत के चुनाव आयोग की दिशा में भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर आईएएस अधिकारी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) परीक्षा पैटर्न :-

चरण I: प्रारंभिक परीक्षा (IAS Preliminary)
चरण II: मेन्स परीक्षा (IAS Mains)
चरण III: यूपीएससी व्यक्तित्व परीक्षण (IAS Interview)

क्रं. स. परीक्षा का नाम परीक्षा की प्रकृति परीक्षा की अवधि प्रश्न नंबर
1 IAS परीक्षा पेपर – I: सामान्य अध्ययन (General Studies) मेरिट रैंकिंग नेचर 2 घंटे 100 200 नंबर
2 IAS परीक्षा पेपर – II: सामान्य अध्ययन (College Scholastic Ability Test – CSAT) योग्यता प्रकृति 2 घंटे 80 200 नंबर

चरण I: प्रारंभिक परीक्षा (IAS Preliminary)

  • आईएएस परीक्षा (प्रारंभिक) में प्रश्न वस्तुनिष्ठ प्रकार या बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs) के होते हैं
  • प्रत्येक गलत उत्तर के लिए IAS परीक्षा में ‘नकारात्मक अंकन’ है, लेकिन केवल प्रारंभिक चरण में। गलत उत्तरों के लिए नकारात्मक अंकन उस प्रश्न के आवंटित अंकों का 1 / 3rd (0.66) होगा।
  • आईएएस परीक्षा में GS पेपर II (CSAT) योग्यता प्रकृति का है और उम्मीदवारों को IAS परीक्षा के अगले चरण यानि मेन्स में उत्तीर्ण होने के लिए इस पेपर में न्यूनतम 33 प्रतिशत अंक प्राप्त करने चाहिए।
  • आईएएस परीक्षा (प्रारंभिक) में प्रत्येक पेपर के लिए ब्लाइंड उम्मीदवारों को 20 मिनट का अतिरिक्त समय दिया जाता है।
  • मूल्यांकन के लिए उम्मीदवारों को सिविल सेवा प्रीलिम्स परीक्षा के दोनों पत्रों में उपस्थित होना अनिवार्य है।
  • प्रारंभिक परीक्षा में उम्मीदवारों द्वारा बनाए गए अंकों को अंतिम अंक के लिए नहीं गिना जाता है। यह केवल एक स्क्रीनिंग टेस्ट है जहां कट-ऑफ अंक हासिल नहीं करने वाले उम्मीदवारों को निकाल दिया जाता है।

चरण II: मेन्स परीक्षा (IAS Mains)

IAS परीक्षा के दूसरे चरण को मेन्स परीक्षा कहा जाता है, जो एक लिखित वर्णनात्मक परीक्षा है और इसमें 9 पेपर शामिल होते हैं। IAS परीक्षा (मेन्स) में 9 पेपर इस प्रकार हैं: पेपर-ए (अनिवार्य भारतीय भाषा); पेपर-बी (अंग्रेजी) जो प्रकृति में अर्हता प्राप्त कर रहे हैं, जबकि अन्य प्रश्नपत्र जैसे निबंध, सामान्य अध्ययन के पेपर I, II, III और IV, और वैकल्पिक पेपर I और II को अंतिम रैंकिंग के लिए माना जाता है।

क्रं. स. IAS परीक्षा का पेपर पेपर का नाम पेपर की प्रकृति परीक्षा की अवधि अंक
1 पेपर – ए अनिवार्य भारतीय भाषा क्वॉलिफाइंग नेचर 3 घंटे 300 अंक
2 पेपर – बी अंग्रेज़ी 3 घंटे 300 अंक
3 पेपर – I निबंध मेरिट रेंकिंग नेचर 3 घंटे 250 अंक
4 पेपर – II सामान्य अध्ययन I 3 घंटे 250 अंक
5 पेपर – III सामान्य अध्ययन II 3 घंटे 250 अंक
6 पेपर – IV सामान्य अध्ययन III 3 घंटे 250 अंक
7 पेपर – वी सामान्य अध्ययन IV 3 घंटे 250 अंक
8 पेपर – VI वैकल्पिक पेपर I 3 घंटे 250 अंक
9 पेपर – VII वैकल्पिक पेपर II 3 घंटे 250 अंक
कुल 1750 अंक
साक्षात्कार या व्यक्तित्व परीक्षण 275 अंक
कुल योग 2025 अंक

Note:-

  • उम्मीदवार यूपीएससी सिविल सेवा आईएएस मेन्स परीक्षा को हिंदी या अंग्रेजी या भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूची में सूचीबद्ध किसी अन्य भाषा के रूप में लिखने के अपने माध्यम का चयन कर सकते हैं।
  • IAS परीक्षा में शामिल भारतीय भाषाएं भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूची में सूचीबद्ध भाषाओं के अनुसार हैं।
  • IAS परीक्षा (Mains) में निर्धारित कट-ऑफ अंकों से ऊपर स्कोर करने वाले उम्मीदवारों को व्यक्तित्व परीक्षण (IAS परीक्षा के अंतिम चरण) के लिए सम्मन मिलेगा।
  • उम्मीदवारों की अंतिम रैंकिंग आईएएस परीक्षा के मुख्य परीक्षा और व्यक्तित्व परीक्षण / साक्षात्कार दौर में उनके द्वारा प्राप्त अंकों के आधार पर होती है।

चरण III: यूपीएससी व्यक्तित्व परीक्षण (IAS Interview)

जो उम्मीदवार आवश्यक कट-ऑफ अंकों के साथ IAS परीक्षा के मेन्स चरण को क्लियर करते हैं, वे IAS परीक्षा के अंतिम चरण के लिए अर्हता प्राप्त करते हैं, यानी UPSC बोर्ड के सदस्यों के साथ पर्सनैलिटी टेस्ट या साक्षात्कार का दौर। अंतिम चरण के लिए अर्हता प्राप्त करने वाले उम्मीदवारों को बोर्ड के सदस्यों के साथ आमने-सामने चर्चा के लिए आयोग द्वारा ई-समन भेजा जाएगा। इस दौर में, बोर्ड उम्मीदवारों के व्यक्तित्व लक्षणों का आकलन करता है और सिविल सेवा में कैरियर के लिए फिट है या नहीं, इसका मूल्यांकन करने के लिए उनके शौक, करंट अफेयर्स, सामान्य ज्ञान, स्थिति प्रश्न आदि पर सवाल पूछे जाएंगे। UPSC व्यक्तित्व परीक्षण केवल नई दिल्ली में UPSC भवन में आयोजित किया जाएगा।

आईएएस परीक्षा आयु सीमा

यदि उम्मीदवार IAS परीक्षा देना चाहते हैं तो राष्ट्रीयता, आयु, प्रयासों की संख्या और शैक्षिक योग्यता की शर्तें हैं। सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए, उम्मीदवार को भारत का नागरिक होना चाहिए या पीआईओ होना चाहिए, स्नातक की डिग्री होनी चाहिए, 21 से 32 वर्ष की आयु के बीच होना चाहिए, और 6 बार आईएएस परीक्षा का प्रयास करा हुआ नहीं होना चाहिए।

IAS परीक्षा आवेदन प्रक्रिया

यूपीएससी परीक्षाओं के लिए आवेदन प्रक्रिया ऑनलाइन है और यूपीएससी प्रवेश पत्र भी ऑनलाइन जारी किए जाते हैं, जिन्हें आईएएस परीक्षा के उम्मीदवारों को यूपीएससी की आधिकारिक वेबसाइट से डाउनलोड करना चाहिए। अधिक के लिए, कृपया IAS परीक्षा 2020 के लिए ऑनलाइन आवेदन करें।

IAS परीक्षा की तैयारी

  1. प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए, IAS परीक्षा के दोनों प्रारंभिक और मेन्स चरण में अधिक वर्तमान मामलों पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। केवल विश्वसनीय स्रोतों जैसे पीआईबी, द हिंदू, योजना आदि का चयन करें और आईएएस परीक्षा पाठ्यक्रम के अनुसार वर्तमान घटनाओं को संरेखित करें। IAS परीक्षा के लिए, वर्तमान मामलों में आमतौर पर पिछले 10-12 महीनों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की घटनाएं शामिल होती हैं।
  2. पिछले वर्षों के आईएएस परीक्षा प्रश्नों के माध्यम से जाने कि आपके अंत से आवश्यक तैयारी की मात्रा का अनुमान लगाया जा सके।
  3. एनसीईआरटी की किताबें पढ़ें और नोट्स बनाएं। आपको यूपीएससी मेन्स के लिए नोट्स के कम से कम दो सेट करने होंगे यानि प्री प्रीलिम्स और वर्णनात्मक नोट्स।
  4. प्रीलिम्स और मेन्स की तैयारी प्रीलिम्स परीक्षा की तारीख से 1-2 महीने पहले तक एक साथ की जानी चाहिए। प्रीलिम्स और मेन्स के बीच सिलेबस ओवरलैप को पहचानें और पहले उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करें।
  5. अपनी योग्यता, रुचि और अनुभव के आधार पर IAS परीक्षा के लिए एक वैकल्पिक विषय का चयन करें। कुछ वैकल्पिक विषयों में मेन्स में सामान्य अध्ययन के पाठ्यक्रम के साथ एक महत्वपूर्ण ओवरलैप होता है, हालांकि, उनका पाठ्यक्रम बहुत बड़ा होता है इसलिए किसी एक को अंतिम रूप देने से पहले अपना उचित परिश्रम करें।
  6. मेन्स में प्रीलिम्स और एथिक्स के पेपर को आसान  न समझें CSAT पेपर न लें। इसी तरह, मेन्स में दो क्वालीफाइंग लैंग्वेज पेपर भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनमें कम से कम 25% स्कोर करने में असफल होने पर उनमें आईएएस परीक्षा प्रक्रिया से स्वचालित रूप से आपको समाप्त कर दिया जाएगा, अन्य सभी पेपरों में आपके शानदार प्रदर्शन के बावजूद।
    प्रीलिम्स के लिए MCQ हल करने के अभ्यास के लिए समय निकालें और मेन्स के लिए लेखन अभ्यास का उत्तर दें।
    कई बार संशोधित करें, अपने नोट्स अपडेट करें, और कुछ और संशोधित करें।

IAS साक्षात्कार प्रश्न –  IAS Interview Questions

UPSC साक्षात्कार प्रश्न उम्मीदवारों की मानसिक तीक्ष्णता, सामान्य जागरूकता, सामाजिक शिष्टाचार और समग्र व्यक्तित्व का परीक्षण करता है। IAS साक्षात्कार में प्रश्न केवल सैद्धांतिक ज्ञान का पता लगाने के लिए नहीं होते हैं, इसलिए मग करने के बजाय, उम्मीदवारों को अपने नरम कौशल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

सिविल सेवा के उम्मीदवारों द्वारा सामना किए गए IAS साक्षात्कार प्रश्न एक समान पैटर्न का पालन करते हैं। आइए IAS साक्षात्कार में प्रश्नों की कुछ विस्तृत श्रेणियों पर नज़र डालते हैं और उम्मीदवार उनके लिए कैसे तैयारी कर सकते हैं।

परिचय पर IAS साक्षात्कार प्रश्न – IAS interview question on Introduction

  1. हमें अपने बारे में संक्षेप में बताएं।
  2. हमें अपने गृहनगर के बारे में बताएं।
  3. आपके नाम का अर्थ क्या है (पहला नाम / उपनाम)
  4. अपने परिवार के बारे में हमें बताएं

ये प्रश्न केवल एक आधार रेखा निर्धारित कर रहे हैं अर्थात् प्रख्यात UPSC बोर्ड अनुवर्ती प्रश्नों को पूछने के लिए आपके द्वारा दी गई जानकारी का उपयोग करेगा।

IAS इंटरव्यू में पूछे गए सवाल – IAS interview questions on Education

  1. आपने स्कूल / स्नातक के दौरान किन विषयों का अध्ययन किया और क्या आपको लगता है कि वे प्रशासन में जीवन के लिए प्रासंगिक हैं
  2. आपका पसंदीदा कौन सा विषय था?
  3. आपने z xyz ’कॉलेज / स्कूल क्यों चुना?
  4. आपने स्कूल / स्नातक / पीजी के दौरान किस तरह के प्रोजेक्ट किए?
  5. क्या आप खुद को एक औसत छात्र कहेंगे? क्यों?

UPSC CSE परीक्षा के लिए मूल शैक्षणिक योग्यता स्नातक है। IAS साक्षात्कार में प्रश्न आपके स्नातक विषय या उसी में नवीनतम रुझानों की ओर उन्मुख हो सकते हैं। हालाँकि, यदि आप किसी विशेष प्रश्न का उत्तर नहीं जानते हैं, तो अपना रास्ता निकालने की कोशिश करने की सलाह नहीं दी जाती है। इससे अलग विनम्र और सच्चा होना बेहतर है।

करंट अफेयर्स पर IAS के इंटरव्यू के सवाल – IAS Interview questions on Current Affairs

  1. आज की सुर्खियाँ क्या हैं?
  2. पिछले कुछ महीनों में भारत / आपके राज्य / आपके गृहनगर के बारे में समाचार में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे

समाचार पत्र पढ़ना और दैनिक समाचारों का पालन करना UPSC IAS साक्षात्कार के परिप्रेक्ष्य से भी महत्वपूर्ण है। IAS साक्षात्कार के प्रश्न नवीनतम समाचार विषयों को संदर्भित कर सकते हैं। जब तक प्रश्न अपेक्षाकृत सीधे आगे न हो, एक-आयामी राय / जानकारी देने से बचने की कोशिश करें।

वर्क प्रोफ़ाइल पर IAS साक्षात्कार के प्रश्न – IAS interview questions on Work profile

  1. आपकी नौकरी में आपकी भूमिकाएं और जिम्मेदारियां क्या थीं?
  2. आप IAS / IPS / IFS अधिकारी क्यों बनना चाहते हैं?

वैकल्पिक विषय पर IAS साक्षात्कार प्रश्न – IAS interview questions on Optional Subject

  1. आपने y xyz ’वैकल्पिक क्यों चुना?
  2. आपने अपने स्नातक विषय को अपने वैकल्पिक के रूप में क्यों नहीं चुना?

इसके अलावा, आप अपने वैकल्पिक विषय के आधार पर विषयों / सिद्धांत / समकालीन मुद्दों से संबंधित IAS साक्षात्कार में कुछ प्रश्नों का सामना कर सकते हैं।

आईएएस के शौक पर इंटरव्यू सवाल – IAS interview questions on Hobbies

यहां, प्रश्नों की प्रकृति आपके DAF में सूचीबद्ध शौक के आधार पर भिन्न होती है। जिन लोगों ने खेलों को एक शौक के रूप में सूचीबद्ध किया है, उनके लिए पैनल ने प्रसिद्ध खेल व्यक्तियों या / और नवीनतम परिणामों पर सवाल पूछे हैं। कुछ उम्मीदवारों को साक्षात्कार प्रक्रिया के दौरान गाने के लिए भी कहा गया है।

IAS परीक्षा पात्रता विवरण – IAS Exam Eligibility Details

IAS पात्रता अवलोकन – IAS Eligibility Overview

IAS आयु सीमा 21 से 32 साल
आयु में छूट श्रेणी के अनुसार (नीचे उल्लिखित)
IAS के लिए शैक्षिक योग्यता स्नातक
राष्ट्रीयता केवल भारतीय नागरिक

IAS पात्रता – UPSC आयु सीमा

  • सिविल सेवा आयु सीमा के अनुसार, उम्मीदवार की आयु 21 से 32 वर्ष के बीच होनी चाहिए
  • सिविल सेवा आयु सीमा पात्रता मानदंड में एक आवश्यक कारक है। इसलिए यूपीएससी परीक्षा के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवारों को ऑनलाइन आवेदन पत्र भरने से पहले इन विवरणों को अच्छी तरह से जांचना चाहिए।

(सिविल सेवा आयु सीमा में छूट, जैसा कि नीचे चर्चा की गई है, लागू होगी)

वर्ग यूपीएससी आयु सीमा- ऊपरी छूट
सामान्य 32
अन्य पिछड़ा वर्ग 35
अनुसूचित जाति / जनजाति 37
विकलांग रक्षा सेवा कार्मिक 35
पूर्व सैनिक 37
बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्ति – EWS (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) 42

ध्यान दें:

डिफेंस सर्विसमैन के लिए IAS पात्रता के अनुसार, किसी भी विदेशी देश या अशांत क्षेत्र में शत्रुता के दौरान परिचालन में अक्षम व्यक्ति और उसके परिणामस्वरूप जारी की गई सिविल सेवा की आयु सीमा में विशेष छूट है।

IAS पात्रता में कहा गया है कि ECO / SSCO जिन्होंने 1 अगस्त 2020 को 5 साल की सैन्य सेवा के असाइनमेंट की प्रारंभिक अवधि पूरी कर ली है, उन्हें पांच वर्ष की आयु में छूट मिलती है, बशर्ते कि असाइनमेंट को पांच साल से आगे बढ़ाया गया हो और जिसके मामले में रक्षा मंत्रालय एक प्रमाण पत्र जारी करता है कि वे नागरिक रोजगार के लिए आवेदन कर सकते हैं और उन्हें नियुक्ति के प्रस्ताव की प्राप्ति की तारीख से चयन पर तीन महीने के नोटिस पर जारी किया जाएगा।

IAS आयु सीमा के नवीनतम विवरण के लिए, उम्मीदवारों को नवीनतम UPSC अधिसूचना का उल्लेख करना चाहिए।

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भारत में सिविल सेवाओं का इतिहास- History of Civil Services In India

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भारत में सिविल सेवाओं का इतिहास- History of Civil Services In India

भारत में सिविल सेवाओं का इतिहास- History of Civil Services In India

लार्ड कार्नवालिस (गवर्नर-जनरल, 1786-93) पहला गवर्नर-जनरल था, जिसने भारत में इन सेवाओं को प्रारंभ किया तथा उन्हें संगठित किया। उसने भ्रष्टाचार को रोकने के लिये निम्न कदम उठाये-

  • वेतन में वृद्धि।
  • निजी व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध।
  • अधिकारियों द्वारा रिश्वत एवं उपहार इत्यादि लेने पर पूर्ण प्रतिबंध।
  • वरिष्ठता (seniority) के अधर पर तरक्की (Promotion) दिए जाने को प्रोत्साहन।

वर्ष 1800 में, वैलेजली (गवर्नर-जनरल, 1798-1805) ने प्रशासन के नये अधिकारियों को प्रशिक्षण देने हेतु फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। वर्ष 1806 में कोर्ट आफ डायरेक्टर्स ने वैलेजली के इस कालेज की मान्यता रद्द कर दी तथा इसके स्थान पर इंग्लैण्ड के हैलीबरी (Haileybury) में नव-नियुक्त अधिकारियों के प्रशिक्षण हेतु ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की गयी। यहां भारत में नियुक्ति से पूर्व इन नवनियुक्त प्रशासनिक सेवकों को दो वर्ष का प्रशिक्षण लेना पडता था।

भारतीय सिविल सेवा अधिनियम 1861 – Indian Civil Services Act 1861

इस अधिनियम द्वारा कुछ पद अनुबद्ध सिविल सेवकों के लिये आरक्षित कर दिये गये किंतु यह व्यवस्था की गयी कि प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती के लिये अंग्रेजी माध्यम से एक प्रवेश परीक्षा इंग्लैण्ड में आयोजित की जायेगी, जिसमें ग्रीक एवं लैटिन इत्यादि भाषाओं के विषय होगे। प्रारंभ में इस परीक्षा के लिये आयु 23 वर्ष थी। तदुपरांत यह 23 वर्ष से, 22 वर्ष (1860 में), फिर 21 वर्ष (1866 में) और  अंत में घटाकर 19 वर्ष (1878) में कर दी गयी।

1878-79 में, लार्ड लिटन ने वैधानिक सिविल सेवा (Statutory Civil Service) की योजना प्रस्तुत की। इस योजना के अनुसार, प्रशासन के 1/6 अनुबद्ध पद उच्च कुल के भारतीयों से भरे जाने थे। इन पदों के लिये प्रांतीय सरकारें सिफारिश करती तथा वायसराय एवं भारत-सचिव की अनुमति के पश्चात उम्मीदवारों की नियुक्ति कर दी जाती। इनकी पदवी और वेतन संश्रावित सेवा से कम होता था। लेकिन यह वैधानिक सिविल सेवा असफल हो गयी तथा 8 वर्ष पश्चात इसे समाप्त कर दिया गया था।

1853 में अंग्रेजी संसद ने भारतीय सिविल सेवा में भर्ती होने हेतु एक प्रतियोगी परीक्षा आरम्भ की थी. इस परीक्षा में भारतीयों को भी बैठने की अनुमति थी, पर अनेक अवरोधों के चलते भारतीय लोगों के लिए यह परीक्षा देना कठिन था. इसके निम्नलिखित कारण थे –

  • एक तो परीक्षा भारत में नहीं, लन्दन जाकर देना पड़ता था.
  • पाठ्यक्रम भी कुछ ऐसा था जो भारतीयों के समझ के परे था. पाठ्यक्रम में यूनानी, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञान पर बल दिया जाता था.
  • परीक्षा देने के लिए अधिकतम आयु-सीमा कम थी.
  • सिविल सेवा अधिनियम, 1861 के अनुसार हर वर्ष लन्दन में सिविल सेवा परीक्षा आयोजित की जानी थी.
  • इसमें निर्धारित किया गया था कोई भी व्यक्ति, चाहे भारतीय हो या यूरोपीय किसी भी कार्यालय के लिए नियुक्त किया जा सकता है बशर्ते वह भारत मेंन्यूनतम 7 साल तक रहा हो.
  • अभ्यर्थी को उस जिले की स्थानीय भाषा में परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी जहाँ पर वह कार्यरत होता था.
  • 1863 में, सत्येंद्र नाथ टैगोर ने इंडियन सिविल सर्विस में सफलता पाने वाले प्रथम भारतीय होने का गौरव प्राप्त किया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मांग

1885 में अपनी स्थापना के पश्चात कांग्रेस ने मांग की कि-

  • इन सेवाओं में प्रवेश के लिये आयु में वृद्धि की जाये। तथा
  • इन परीक्षाओं का आयोजन क्रमशः ब्रिटेन एवं भारत दोनों स्थानों में किया जाये।

लोक सेवाओं पर एचिसन कमेटी, 1886 (Aitchison Committee on Public Services, 1886) इस कमेटी का गठन डफरिन ने 1886 में किया। इस समिति ने निम्न सिफारिशें की-

  • इन सेवाओं में अनुबद्ध (Covenanted) एवं अ-अनुबद्ध (uncovenanted) शब्दों को समाप्त किया जाये।
  • सिविल सेवाओं में आयु सीमा को बढ़ाकर 23 वर्ष कर दिया जाये। 1893 में, इंग्लैण्ड के हाऊस आफ कामन्स में यह प्रस्ताव पारित किया गया की इन सेवाओं के लिए प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन अब क्रमशः इंग्लैंड एवं भारत दोनों स्थानों में किया जायेगा। किंतु इस प्रस्ताव को कभी कार्यान्वित नहीं किया गया। भारत सचिव किम्बरले ने कहा कि “सिविल सेवाओं में पर्याप्त संख्या में यूरोपीयों का होना आवश्यक है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे त्यागा नहीं जा सकता”।
  • सिविल सेवाओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया जाये-
    1. सिविल सेवाः इसके लिये प्रवेश परीक्षायें इंग्लैण्ड में आयोजित की जायें।
    2. प्रांतीय सिविल सेवाः इसके लिये प्रवेश परीक्षायें भारत में आयोजित की जाये।
    3. अधीनस्थ सिविल सेवाः इसके लिये भी प्रवेश परीक्षायें भारत में आयोजित की जाये।

मोंट-फोर्ड सुधार

मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार या अधिक संक्षेप में मोंट-फोर्ड सुधार के रूप में जाना जाते, भारत में ब्रिटिश सरकार द्वार धीरे-धीरे भारत को स्वराज्य संस्थान का दर्ज़ा देने के लिए पेश किये गए सुधार थे। सुधारों का नाम प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत के राज्य सचिव एडविन सेमुअल मोंटेगू, 1916 और 1921 के बीच भारत के वायसराय रहे लॉर्ड चेम्सफोर्ड के नाम पर पड़ा। इसे भारत सरकार अधिनियम का आधार 1919 की आधार पर बनाया गया था।

इन सुधारों में-

  • इस अधिनियम के द्वारा केंद्र प्रांतों के बीच शक्तियों के दायित्व को स्पष्ट रूप से बांट दिए गए।
  • प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, रेलवे, मुद्रा, वाणिज्य,संचार, अखिल भारतीय सेवाएं केंद्र सरकार को सौंप दिया।
  • प्रांत विषयों को दो श्रेणियां में बांट दिया। पहला रक्षित और दूसरा हस्तांतरित। भूमि राजस्व न्याय, पुलिस, जेल, इत्यादि को रक्षित श्रेणी में रखा गया।
  • कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को स्थानांतरित क्षेत्र में रखा गया। रक्षित श्रेणी के कारण प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था आरंभ हुई।
  • इस नीति की घोषणा की गयी कि-“यदि भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना होती है तो लोक सेवाओं में ज्यादा से ज्यादा भारतीय नियुक्त हो सकेंगे, जो भारतीयों के हित में होगा”।
  • इसने भी सिविल सेवा की प्रवेश परीक्षा का आयोजन क्रमशः इंग्लैण्ड एवं भारत में कराने की सिफारिश की।
  • इसने प्रशासनिक सेवा के एक-तिहाई पदों को केवल भारतीयों से भरे जाने की सिफारिश की तथा इसे प्रतिवर्ष 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ाने का सुझाव दिया।

ली आयोग द्वारा की गई शिफ़ारिशें-

  • भारत सचिव को ही- भारतीय सिविल सेवा, सिंचाई विभाग के इंजीनियरों, तथा भारतीय वन सेवा इत्यादि में नियुक्तियों की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिये।
  • स्थानांतरित क्षेत्रों यथा- शिक्षा एवं लोक स्वास्थ्य सेवाओं में नियुक्तियों का दायित्व प्रांतीय सरकारों को दे दिया जाये।
  • इंडियन सिविल सर्विसेज में भारतीयों एवं यूरोपियों की भागेदारी 50:50 के अनुपात में हो तथा भारतीयों को 15 वर्ष में यह अनुपात प्राप्त करने की व्यवस्था की जाये।
  • अतिशीघ्र एक लोक सेवा आयोग का गठन किया जाये (1919 के भारत सरकार अधिनियम में भी इसकी सिफारिश की गयी थी)।

भारतीय पुलिस का इतिहास:

ववर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था। वर्तमान काल में हमारे देश में अपराधनिरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।

लार्ड विलियम बैंटिक, गवर्नर-जनरल 1828-35

लार्ड विलियम बैंटिक द्वारा पुलिस अधीक (S.P) के कार्यालय को समाप्त कर दिया गया। अब यह व्यवस्था की गयी कि जिले का कलेक्टर या दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) पुलिस विभाग का प्रमुख तथा प्रत्येक संभाग (Division) का आयुक्त, (commissioner) पुलिस अधीक्षक के पद का दायित्व भी निभायेगा।  इस व्यवस्था के कारण अनेक दुष्प्रभाव उत्पन्न हो गए। जैसे पुलिस बल का संगठन दुर्बल हो गया तथा जिला दंडाधिकारी कार्य के बोझ से दब गये। जिसके बाद सबसे पहले  प्रेसीडेंसी नगरों में जिला दंडाधिकारियों एवं कलेक्टरों के कार्यों को अलग-अलग  किया गया।

यह भी पढ़ें: यूपीएससी पद – सिविल सेवा के प्रकार (UPSC Posts – Types of Civil Services)

भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 – Indian Police Act 1861

इस अधिनियम में पुलिस बल को गठित करने, पुलिस बल द्वारा अपराधों को रोकने की शक्ति, तथा पुलिस बल के सदस्यों द्वारा कर्तव्य के उल्लंघन के किए उनको दिये जाने वाले द्ण्ड के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया हैं।

1860 में पुलिस आयोग की सिफारिशों से भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 बना। इस आयोग ने निम्न सिफारिशें कीं-

  • नागरिक पुलिस वाहिनी की व्यवस्था- यह गांवों की वर्तमान चौकसी व्यवस्था को संचालित करेगा (गांवों में चौकीदार यह कार्य करता था) तथा इसका अन्य पुलिस वाहनियों से प्रत्यक्ष संबंध होगा।
  • प्रांतों में पुलिस महानिदेशक (Inspector-General) पूरे प्रांत के पुलिस विभाग का प्रमुख होगा। उप-महानिदेशक (Deputy-Inspector General) रेंज के एवं पुलिस अधीक्षक (S.P) जिले के पुलिस प्रमुख होंगे।

पुलिस विभाग को सुसंगठित रूप प्रदान करने से विभिन्न आपराधिक गतिविधियों यथा-डकैती, चोरी, हत्या, ठगी इत्यादि में धीरे-धीरे कमी आने लगी लेकिन विभिन्न अपराधों की जांच-पड़ताल करने में साधारण जनता से पुलिस का व्यवहार अशोभनीय होता था। सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन के दमन में भी पुलिस का भरपूर दुरुपयोग किया।

अंग्रेजों ने अखिल भारतीय स्तर पर पुलिस व्यवस्था की स्थापना नहीं की। 1861 के पुलिस अधिनियम में केवल प्रांतीय स्तर पर ही पुलिस विभाग के गठन से संबंधित दिशा-निर्देश थे। 1902 में, पुलिस आयोग ने केंद्र में केंद्रीय जांच ब्यूरो (central intelligence bureau, CBI) एवं प्रान्तों में सी. आई. दी. (criminal investigation department) की स्थापना की सिफारिश की।

1853 का चार्टर एक्ट – Charter Act of 1853

इस एक्ट के द्वारा नियुक्तियों के मामले में डायरेक्टरों का संरक्षण समाप्त हो गया तथा सभी नियुक्तियां एक प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा की जाने लगीं जिसमें किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं रखा गया।

कंपनी के उच्च पदों में नियुक्ति के लिये प्रारंभ से ही भारतीयों के लिये द्वार पूर्णतया बंद थे। कार्नवालिस का विचार था कि “हिन्दुस्तान का प्रत्येक नागरिक भ्रष्ट है।” 1793 के चार्टर एक्ट द्वारा 500 पाउंड वार्षिक आय वाले सभी पद, कंपनी के अनुबद्ध अधिकारियों (Covenanted Servents) के लिये आरक्षित कर दिये गये थे। कंपनी के प्रशासनिक पदों से भारतीयों को पृथक रखने के निम्न कारण थे-

  • अंग्रेजों का यह विश्वास कि ब्रिटिश हितों को पूरा करने के लिये अंग्रेजों को ही प्रशासन का दायित्व संभालना चाहिये।
  • अंग्रेजों की यह धारणा कि भारतीय, ब्रिटिश हितों के प्रति अयोग्य, अविश्वसनीय एवं असंवेदनशील हैं।
  • यह धारणा कि जब इन पदों के लिये यूरोपीय ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं तथा उनके बीच ही इन पदों को प्राप्त करने हेतु कड़ी प्रतिस्पर्धा है, तब ये पद भारतीयों को क्यों दिये जायें।

यद्यपि 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी के पदों हेतु भारतीयों के लिये भी प्रवेश के द्वार खोल दिये गये किंतु वास्तव में कभी भी इस प्रावधान का पालन नहीं किया गया। 1857 के पश्चात, 1858 में साम्राज्ञी विक्टोरिया की घोषणा में यह आश्वासन दिया गया कि सरकार सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिये रंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी तथा सभी भारतीय स्वतंत्रतापूर्वक अपनी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों को प्राप्त करने में सक्षम होगे। किंतु इस घोषणा के पश्चात भी सभी उच्च प्रशासनिक पद केवल अंग्रेजों के लिये ही सुरक्षित रहे। भारतीयों को फुसलाने एवं समानता के सिद्धांत का दिखावा करने के लिए डिप्टी मैजिस्ट्रेट तथा डिप्टी कलेक्टर के पद सृजित कर दिये गये, जिससे भारतीयों को लगा कि वे इन पदों को प्राप्त कर सकते हैं किंतु स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही।

यह भी पढ़ें: भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) – Indian Administrative Service (IAS)

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मृदा अपरदन- प्रकार, कारक, कारण, दुष्परिणाम, उपाय, संरक्षण आदि पर सामान्य ज्ञान

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मृदा अपरदन- प्रकार, कारक, कारण, दुष्परिणाम, उपाय, संरक्षण आदि पर सामान्य ज्ञान

मृदा अपरदन किसे कहते हैं? – What is soil erosion?

मृदा कृषि का आधार है। यह मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं, यथा- खाद्य, ईंधन तथा चारे की पूर्ति करती है। इतनी महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी मिट्टी के संरक्षण के प्रति उपेक्षित दृष्टिकोण अपनाया जाता है। यदि कहीं सरकार द्वारा प्रबंधन करने की कोशिश की भी गई है तो अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया गया है। फलतः मिट्टी अपनी उर्वरा शक्ति खोती जा रही है। मृदा अपरदन वस्तुतः मिट्टी की सबसे ऊपरी परत का क्षय होना है। सबसे ऊपरी परत का क्षय होने का अर्थ है-समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं हेतु मिट्टी का बेकार हो जाना। मृदा अपरदन प्रमुख रूप से जल व वायु द्वारा होता है। यदि जल व वायु का वेग तीव्र होगा तो अपरदन की प्रक्रिया भी तीव्र होती है।

मृदा अपरदन को परिभाषित कीजिए (Define soil erosion)

अपरदन (Erosion) वह प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें चट्टानों का विखंडन और परिणामस्वरूप निकले ढीले पदार्थों का जल, पवन, इत्यादि प्रक्रमों द्वारा स्थानांतरण होता है। अपरदन के प्रक्रमों में वायु, जल तथा हिमनद और सागरीय लहरें प्रमुख हैं।

लवणीयता व क्षारीयता मृदा के दुष्प्रभाव

  • ऐसे मृदा की संरचना सघन हो जाती है, जिससे इसमें जल की पारगम्यता कम हो जाती है।
  • पोषक तत्वों की आपूर्ति में बाधा आती है।
  • लवणों के विषैलेपन का पौधों पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
  • लवणीय व क्षारीय मृदा को पर्याप्त सिंचाई, जिप्सम, गंधक, सल्फ्यूरिक अम्ल, शोरे आदि के प्रयोग से सामान्य बनाया जा सकता है।

मृदा अपरदन के प्रकार (Types of soil erosion)

  • सामान्य अथवा भूगर्भिक अपरदन: यह क्रमिक व दीर्घ प्रक्रिया है; इसमें जहां एक तरफ मृदा की ऊपरी परत अथवा आवरण का ह्रास होता है वहीं नवीन मृदा का भी निर्माण होता है। यह बिना किसी हानि के होने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है।
  • धारा तट अपरदन: धाराएं एवं नदियां एक किनारे को काटकर तथा दूसरे किनारे पर गाद भार को निक्षेपित करके अपने प्रवाह मार्ग बदलतीं रहतीं हैं। तीव्र बाढ़ के दौरान क्षति और तीव्र हो जाती है। बिहार में कोसी नदी पिछले सौ वर्षों में अपने प्रवाहमार्ग को 100 किमी. पश्चिम की ओर ले जा चुकी है।
  • तीव्र अपरदन: इसमें मृदा का अपरदन निर्माण की तुलना में अत्यंत तीव्र गति से होता है। मरुस्थलीय अथवा अर्द्ध-मरुस्थलीय भागों में जहां उच्च वेग की हवाएं चलती हैं तथा उन क्षेत्रों में जहां तीव्र वर्षा होती है वहां इस प्रकार से मृदा का अपरदन होता है।
  • अवनालिका अपरदन: जैसे-जैसे प्रवाहित सतही जल की मात्रा बढ़ती जाती है, ढालों पर उसका वेग भी बढ़ता जाता है, जिसके परिणामस्वरूप क्षुद्र धाराएं चौड़ीं होकर अवनालिकाओं में बदल जाती है। आगे जाकर अवनालिकाएं विस्तृत खड्डों में परिवर्तित हो जाती हैं, जो 50 से 100 फीट तक गहरे होते हैं। भारत के एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में खड्ड फैले हुए हैं।
  • सर्पण अपरदन: भूस्खलन से सर्पण अपरदन का जन्म होता है। मिट्टी के विशाल पिंड तथा यातायात व संचार में बाधाएं पैदा होती हैं। सर्पण अपरदन के प्रभाव स्थानीय होते हैं।
  • आस्फाल अपरदन: इस प्रकार का अपरदन वर्षा बूंदों के अनावृत मृदा पर प्रहार करने के परिणामस्वरूप होता है। इस प्रक्रिया में मिट्टी उखड़कर कीचड़ के रूप में बहने लगती है।
  • परत अपरदन: जब किसी सतही क्षेत्र से एक मोटी मृदा परत एकरूप ढंग से हट जाती है, तब उसे परत अपरदन कहा जाता है। आस्फाल अपरदन के परिणामस्वरूप होने वाला मृदा का संचलन परत अपरदन का प्राथमिक कारक होता है।
  • क्षुद्र धारा अपरदन: जब मृदा भार से लदा हुआ प्रवाहित जल ढालों के साथ-साथ बहता है, तो वह उंगलीकार तंत्रों का निर्माण कर देता है। धारा अपरदन को परत अपरदन एवं अवनालिका अपरदन का मध्यवर्ती चरण माना जाता है।
  • समुद्र तटीय अपरदन: इस प्रकार का अपरदन शक्तिशाली तरंगों की तीव्र क्रिया का परिणाम होता है।

अपरदन दर को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting erosion rate)

जलवायु: अतिगहन एवं दीर्घकालिक वर्षा मृदा के भारी अपरदन का कारण बनता है। खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार, वर्षा की मात्रा, सघनता, उर्जा एवं वितरण तथा तापमान में परिवर्तन इत्यादि महत्वपूर्ण निर्धारक कारक हैं। वर्षा की गतिक ऊर्जा मृदा की प्रकृति के साथ गहरा संबंध रखती है। तापमान मृदा अपरदन की दर एवं प्रकृति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। मृदा की बदलती हुई शुष्क एवं नम स्थितियों का परिणाम मृदा के पतले आवरण के निर्जलीकरण और जलीकरण के रूप में सामने आता है। इससे मृदा कणों का विस्तार होता है और मृदा में दरारें पड़ जाती हैं।

भू-स्थलाकृतिक कारक: इनमें सापेक्षिक उच्चावच, प्रवणता, ढाल इत्यादि पहलू शामिल हैं। सतही जल का प्रवाह वेग तथा गतिक ऊर्जा गहन प्रवणता में बदल जाती है। अधिक लम्बाई वाले ढालों पर कम लम्बाई वाले ढालों की तुलना में मृदा अपरदन अधिक व्यापक होता है।

भूमि की स्थलाकृति यह निर्धारित करती है कि किस सतह पर अपवाह प्रवाहित होगा, जो बदले में अपवाह की अपरिपक्वता को निर्धारित करता है। लम्बी, कम ढाल वाली ढलानों (विशेष रूप से पर्याप्त वनस्पति कवर के बिना) छोटी, कम खड़ी ढलानों की तुलना में भारी बारिश के दौरान कटाव की बहुत अधिक दर के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। स्टेटर इलाके भी mudslides, भूस्खलन, और गुरुत्वाकर्षण कटाव प्रक्रियाओं के अन्य रूपों के लिए व्यापक होता हैं।

प्राकृतिक वनस्पति का आवरण: यह एक प्रभावी नियंत्रक कारक है, क्योंकि

  1. वनस्पति वर्षा को अवरोधित करके भूपर्पटी को वर्षा बूंदों के प्रत्यक्ष प्रभाव से बचाती है।
  2. वर्षा जल के प्रवाह को नियंत्रित करके वनस्पति उसे भू-सतह के भीतर रिसने का अवसर देती है।
  3. पौधों की जड़ों मृदा कणों के पृथक्करण एवं परिवहन की दर को घटाती हैं।
  4. जड़ों के प्रभाव के फलस्वरूप कणिकायन, मृदा क्षमता एवं छिद्रता में बढ़ोतरी होती है।
  5. मृदा वनस्पति के कारण उच्च एवं निम्न तापमान के घातक प्रभावों से बची रहती है, जिससे उसमें दरारें विकसित नहीं होतीं।
  6. वनस्पति पवन गति को धीमा करके मृदा अपरदन में कमी लाती है।

मृदा प्रकृति: मृदा की अपरदनशीलता का सम्बंध इसके भौतिक व रासायनिक गुणों, जैसे-कणों का आकार, वितरण, ह्यूमस अंश, संरचना, पारगम्यता, जड़ अंश, क्षमता इत्यादि से होता है। फसल एवं भूमि प्रबंधन भी मृदा अपरदन को प्रभावित करता है। एफएओ के अनुसार मृदा कणों की अनासक्ति, परिवाहंता तथा अणु आकर्षण और मृदा की आर्द्रता धारण क्षमता व गहराई मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारक हैं।

विकास: मानव भूमि विकास, कृषि और शहरी विकास सहित रूपों में, क्षरण और तलछट परिवहन में एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। ताइवान में, द्वीप के उत्तरी, मध्य और दक्षिणी क्षेत्रों में तलछट भार में वृद्धि 20 वीं शताब्दी में प्रत्येक क्षेत्र के लिए विकास की समयरेखा के साथ देखी जा सकती है।

वायु वेग: मजबूत एवं तेज हवाओं में अपरदन की व्यापक क्षमता होती है। इस प्रकार वायु वेग का अपरदन की तीव्रता के साथ प्रत्यक्ष आनुपतिक संबंध है।

मृदा अपरदन के कारण (Reasons of Soil Erosion)

  • वनों की कटाई: वनों की कटाई की वजह से मिट्टी की सतह से खनिज और मिट्टी की परतों को हटाकर, मिट्टी को एक साथ बांधने वाले वानस्पतिक आवरण को हटाने और लॉगिंग उपकरण से भारी मिट्टी संघनन के कारण खनिज कटाव के कारण कटाव की दर बढ़ जाती है। एक बार जब पेड़ों को आग या लॉगिंग द्वारा हटा दिया जाता है, तो घुसपैठ की दर उच्च हो जाती है और जंगल के फर्श के निचले स्तर तक क्षरण होता है। वनस्पति आवरण के लोप ने पश्चिमी घाट, उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश में विस्तृत अपरदन को जन्म दिया है।
  • त्रुटिपूर्ण कृषि पद्धतियां: नीलगिरी क्षेत्र में आलू एवं अदरक की फसलों को बिना अपरदन-विरोधी उपाय (ढालों पर सोपानों का निर्माण आदि) किये उगाया जाता है। ढालों पर स्थित वनों को भी पौध फसलें उगाने के क्रम में साफ किया जा चुका है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण मृदा अपरदन में तेजी आती है। इन क्षेत्रों में भूस्खलन एक सामान्य लक्षण बन जाता है।
  • झूम कृषि: झूम कृषि एक पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी तथा अनार्थिक कृषि पद्धति है। झूम कृषि की उत्तर-पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों छोटानागपुर, ओडीशा, मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश में विशेषतः जनजातियों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। झूम या स्थानांतरण कृषि के कारण उत्तर-पूर्वी पहाड़ी भागों का बहुत बड़ा क्षेत्र मृदा अपरदन का शिकार हो चुका है।
  • रेल मार्ग एवं सड़कों के निर्माण हेतु प्राकृतिक अपवाह तत्रों का रूपांतरण: रेल पटरियों एवं सड़कों को इस प्रकार बिछाया जाना चाहिए कि वे आस-पास की भूमि से ऊंचे स्तर पर रहें, किन्तु कभी-कभी रेल पटरियां एवं सड़कें प्राकृतिक अपवाह तंत्रों के मार्ग में बाधा बन जाते हैं। इससे एक ओर जलाक्रांति तथा दूसरी ओर जल न्यूनता की समस्या पैदा होती है। ये सभी कारक एक या अधिक तरीकों से मृदा अपरदन में अपना योगदान देते हैं
  • उचित भू-पृष्ठीय अपवाह का अभाव: उचित अपवाह के अभाव में निचले क्षेत्रों में जलाक्रांति हो जाती है, जो शीर्ष मृदा संस्तर को ढीला करके उसे अपरदन का शिकार बना देती है।
  • दावानल: कभी-कभी जंगल में प्राकृतिक कारणों से आग लग जाती है, किंतु मानव द्वारा लगायी गयी आग अपेक्षाकृत अधिक विनाशकारी होती है। इसके परिणामस्वरूप वनावरण सदैव के लिए लुप्त हो जाता है तथा मिट्टी अपरदन की समस्या से ग्रस्त हो जाती है।

मृदा अपरदन के दुष्परिणाम (Side effects of soil erosion)

  • आकस्मिक बाढ़ों का प्रकोप।
  • नदियों के मार्ग में बालू एकत्रित होने से जलधारा का परिवर्तन तथा उससे अनेक प्रकार की हानियां।
  • कृषि योग्य उर्वर भूमि का नष्ट होना।
  • आवरण अपरदन के कारण भूमि की उर्वर ऊपरी परत का नष्ट होना।
  • भौम जल स्तर गिरने से पेय तथा सिंचाई के लिए जल में कमी होना।
  • शुष्क मरुभूमि का विस्तार होने से स्थानीय जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव एवं परोक्ष रूप से कृषि पर दुष्प्रभाव।
  • वनस्पति आवरण नष्ट होने से इमारती व जलाऊ लकड़ी की समस्या तथा वन्य जीवन पर दुष्प्रभाव।
  • भूस्खलन से सड़कों का विनाश, आदि।

मृदा अपरदन को कम करने के उपाय (Measures to reduce soil erosion)

जैविक उपाय-

मौजूदा भू-पृष्ठीय आवरण में सुधार: इस प्रकार का सुधार बरसी (एक चारा फसल) जैसी आवरण फसलें या दूब, कुजू, दीनानाथ इत्यादि घासों को उगाकर मृदा आवरण को सुरक्षित रखने पर ही संभव है।

पट्टीदार खेती: इसके अंतर्गत अपरदन रोधी फसलों (घास, दालें आदि) के साथ अपरदन में सहायक फसलों (ज्वार, बाजरा, मक्का आदि) को वैकल्पिक पट्टियों के अंतर्गत उगाया जाता है। अपरदन रोधी फसल पट्टियां जल एवं मृदा के प्रवाह को रोक लेती हैं। फसल चक्रण: इसके अंतर्गत एक ही खेत में दो या अधिक फसलों को क्रमानुसार उगाया जाता है ताकि मृदा की उर्वरता कायम रखी जा सके। स्पष्ट कर्षित फसलों (तम्बाकू आदि) को लगातार उगाये जाने पर मृदा अपरदन में तीव्रता आती है। एक अच्छे फसल चक्र के अंतर्गत सघन रोपित लघु अनाज फसलें तथा फलीदार पौधे (जो मृदा अपरदन को नियंत्रित कर सकें) शामिल होने चाहिए।

ठूंठदार पलवार: इसका तात्पर्य भूमि के ऊपर फसल एवं वनस्पति ठूंठों को छोड़ देने से है, ताकि मृदा अपरदन से मृदा संस्तर को सुरक्षित रखा जा सके। ठूठदार पलवार से वाष्पीकरण में कमी तथा रिसाव क्षमता में वृद्धि होती है, जिसके परिणामस्वरूप मृदा की नमी का संरक्षण होता है।

जैविक उर्वरकों का प्रयोग: हरित खाद, गोबर खाद, कृषि अपशिष्टों इत्यादि के उपयोग से मृदा संरचना में सुधार होता है। रवेदार एवं भुरभुरी मृदा संरचना से मिट्टी की रिसाव क्षमता एवं पारगम्यता बढ़ती है तथा नमी के संरक्षण में सहायता मिलती है।

अन्य उपायों के अंतर्गत अति चराई पर नियंत्रण, पालतू पशु अधिशेष में कमी, झूम खेती पर प्रतिबंध तथा दावानल के विरुद्ध रोकथाम उपायों को शामिल किया जा सकता है।

भौतिक या यांत्रिक उपाय:

  1.  सोपानीकरण: तीव्र ढालों पर सोपानों तथा चपटे चबूतरों का श्रृंखलाबद्ध निर्माण किया जाना चाहिए इससे प्रत्येक सोपान या चबूतरे पर पानी को एकत्रित करके फसल वृद्धि हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है।
  2. समुचित अपवाह तत्रों का निर्माण तथा अवनालिकाओं का भराव।
  3. समोच्चकर्षण: ढालू भूमि पर सभी प्रकार की कर्षण क्रियाएं ढालों के उचित कोणों पर की जानी चाहिए, इससे प्रत्येक खांचे में प्रवाहित जल की पर्याप्त मात्रा एकत्रित हो जाती है, जो मृदा द्वारा अवशोषित कर ली जाती है।
  4. समोच्च बंध: इसके अंतर्गत भूमि की ढाल को छोटे और अधिक समस्तर वाले कक्षों में विभाजित कर दिया जाता है। ऐसा करने के लिए समोच्यों के साथ-साथ उपयुक्त आकार वाली भौतिक संरचनाओं का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार, प्रत्येक बंध वर्षा जल को विभिन्न कक्षों में संग्रहीत कर लेता है।
  5. बेसिन लिस्टिंग: इसके अंतर्गत ढालों पर एक नियमित अंतराल के बाद लघु बेसिनों या गर्तों का निर्माण किया जाता है, जो जल पञाह को नियंत्रित रखने तथा जल को संरक्षित करने में सहायक होते हैं।
  6. जल संग्रहण: इसमें जल निचले क्षेत्रों में संग्रहीत या प्रवाहित करने का प्रयास किया जाता है, जो प्रवाह नियंत्रण के साथ-साथ बाढ़ों को रोकने में भी सहायक होता है।
  7. वैज्ञानिक ढाल प्रबंधन: ढालों पर की जाने वाली फसल गतिविधियां ढाल की प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए। यदि ढाल का अनुपात 1:4 से 1:7 के मध्य है, तो उस पर उचित खेती की जा सकती है। यदि उक्त अनुपात और अधिक है, तो ऐसी ढालू भूमि पर चरागाहों का विकास किया जाना चाहिए। इससे भी अधिक ढाल अनुपात वाली भूमि पर वानिकी गतिविधियों का प्रसार किया जाना चाहिए। अत्यधिक उच्च अनुपात वाली ढालों पर किसी भी प्रकार की फसल क्रिया के लिए सोपानों या वेदिकाओं का निर्माण आवश्यक हो जाता है।

भारत में मृदा अपरदन के क्षेत्र (Soil erosion zones in India)

वर्तमान समय में मृदा अपरदन की समस्या भारतीय कृषि की एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। देश में प्रति वर्ष 5 बिलियन टन मिट्टी का अपरदन होता है। मृदा अपरदन के मुख्य कारणों के आधार पर भारत को निम्न क्षेत्रों में विभाजित किया गया है।

उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र (असमपश्चिम बंगालआदि): मृदा अपरदन का मुख्य कारण तीव्र वर्षा, बाढ़ तथा व्यापक स्तर पर नदी के किनारों का कटाव है।

हिमालय की शिवालिक पर्वत-श्रेणियां: वनस्पतियों का विनाश पहला कारण है। गाद जमा होने से नदियों में बाढ़ आ जाना दूसरा महत्वपूर्ण कारण है।

नदी तट (यमुनाचम्बलमाहीसाबरमतीआदि): उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश की कृषि भूमि के काफी विस्तृत भाग को बीहड़ों (Ravines) में परवर्तित होना मृदा अपरदन का परिणाम है।

दक्षिणी भारत के पर्वत (नीलगिरि): दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र में गहन मृदा अपरदन नुकीले ढाल, तीव्र वर्षा तथा कृषि का अनुचित ढंग हो सकता है।

राजस्थान व दक्षिणी पंजाब का शुष्क क्षेत्र: पंजाब व राजस्थान के कुछ भागों, यथा- कोटा, बीकानेर, भरतपुर, जयपुर तथा जोधपुर में वायु द्वारा मृदा अपरदन होता है।

मृदा संरक्षण (soil Conservation)

भारत में मृदा अपरदन की तीव्र गति को निम्नलिखित उपायों द्वारा कम किया जा सकता है और कहीं-कहीं तो इसे पूर्णतः नियंत्रित भी किया जा सकता है-

  1. वृक्षारोपण करना तथा वृक्षों को समूल नष्ट न करना।
  2. बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए बांधों का निर्माण करना और विशाल जलाशय बनाना।
  3. पहाड़ों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाना और ढाल के आर-पार जुताई करना।
  4. पशु-चारण को नियंत्रित करना।
  5. कृषि योग्य भूमि को कम से कम परती छोड़ना।
  6. फसलों की अदला-वदली कर उन्हें उगाना।
  7. मरुस्थलों को नियंत्रित करने के लिए वनों की कतार लगाना।
  8. भूमि की उर्वरक क्षमता एक समान बनाए रखने के लिए खाद व उर्वरक का समुचित उपयोग करना।
  9. स्थायी कृषि क्षेत्र विकसित करना, क्योंकि स्थानांतरित कृषि में वनों की सफाई कर दी जाती है।

भारत में मृदा संरक्षण के कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के लिए विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में कुछ राशि आवंटित की जाती है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि संरक्षण के कार्य के लिए देशभर में 10 क्षेत्रीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र खोले गए। 1952 में राजस्थान के जोधपुर जिले में मरुस्थल वृक्षारोपण तथा अनुसंधान केंद्र (कजरी) की स्थापना की गई। यह केंद्र मरुस्थल में उपयुक्त पौधे लगाता है तथा यहां से पौधे एवं बीज उगाने के लिए वितरित किए जाते हैं। प्रथम योजना से लेकर अभी तक की योजनाओं में इस कार्यक्रम के लिए कई करोड़ रुपये खर्च किए गए और कई लाख हेक्टेयर भूमि को संरक्षण प्रदान किया जा चुका है, परंतु अभी भी इसमें सुधार की आवश्यकता शेष है।

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आनुवंशिकी-Genetics

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आनुवंशिकी-Genetics

आनुवंशिकी किसे कहते हैं? What is Genetics?

प्रत्येक जीव में बहुत से ऐसे गुण होते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी माता-पिता अर्थात् जनकों से उनके संतानों में संचरित होते रहते हैं। ऐसे गुणों को आनुवंशिक गुण (Hereditary characters) या पैतृक गुण कहते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जीवों के मूल गुणों का संचरण आनुवंशिकता (Heredity) कहलाता है। मूल गुणों के संचरण के कारण ही प्रत्येक जीव के गुण अपने जनकों के गुण के समान होते हैं। इन गुणों का संचरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जनकों के युग्मकों (Gametes) के द्वारा होता है। अतः जनकों से उनके संतानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी युग्मकों के माध्यम से पैतृक गुणों का संचरण आनुवंशिकता कहलाता है।

आनुवंशिकी के जनक कौन है? Who is the father of genetics?

आनुवंशिकता एवं विभिन्नता (variations) का अध्ययन जीव-विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे आनुवंशिकी या जेनेटिक्स (Genetics) कहते हैं। ग्रेगर जॉन मेंडल (Gregor John Mendel) ने अपने वैज्ञानिक खोजों से आधुनिक आनुवंशिकी (Modern genetics) की नींव डाली। इसीलिए उन्हें आनुवंशिकी का पिता (Father of Genetics) भी कहा जाता है।

ग्रेगर जॉन मेंडल का संक्षित्प परिचय

ग्रेगर जॉन मेंडल का जन्म 22 जुलाई, 1822 को हुआ था ये एक जर्मन भाषी ऑस्ट्रियाई औगस्टेनियन पादरी एवं वैज्ञानिक थे। उन्हें आनुवांशिकी का जनक कहा जाता है। उन्होंने मटर के दानों पर प्रयोग कर आनुवांशिकी के नियम निर्धारित किए थे। उनके कार्यों की महत्ता बीसवीं शताब्दी तक नहीं पहचानी गई बाद में उन नियमों की पुनर्खोज ने उनका महत्व बताया।

ग्रेगर जॉन मेंडल का निधन 6 जनवरी, 1884 को हुआ जिसके सोलह वर्ष उपरान्त, विश्व को पता लगा कि वे कितने बड़े वैज्ञानिक थे। सन् 1900 में तीन यूरोपीय वैज्ञानिकों को उस भूले हुए लेख का पता चला था, जिसे 30 वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था। उन्होंने उसकी महत्ता को जान लिया और उसका समाचार वैज्ञानिक दुनियां में फैला दिया।

मेंडल के आनुवंशिकता का नियम (Mendel’s laws of heredity)

मेंडल ने अपने प्रयोगों के लिए मटर के सात जोड़ी गुणों को चुना, जिनमें से प्रत्येक जोड़े का एक गुण प्रयोग के दौरान दूसरे गुण को दबाने की क्षमता रखता था। उन्होंने पहले को प्रभावी (Dominant) तथा दूसरे को अप्रभावी (Recessive) गुण कहा। मेंडल ने गुणों की वंशागति के लिए जिम्मेदार इन कारकों (Factors) को एक प्रतीक से व्यक्त किया। गुणों के जोड़ों में से उन्होंने प्रभावी लक्षण के कारक को अंग्रेजी के बड़े अक्षर (Capital letters) तथा अप्रभावी लक्षण के कारक को अंग्रेजी के छोटे अक्षर (small letters) से व्यक्त किया। जैसे- लम्बेपन के लिए “T” तथा बौनेपन के लिए ‘t ।

लक्षण (Characters) प्रभावी गुण (Dominant characters) अप्रभावी गुण (Recessive characters)
बीजों की आकृति गोल चिकना बीज झुर्रीदार बीज
बीजपत्र का रंग पीला बीजपत्र हरा बीजपत्र
पुष्प का रंग लाल सफेद
फली की आकृति चिकनी संकीर्णित
फली का रंग हरा पीला
पुष्प की स्थिति कक्षस्थ अग्रस्थ
पौधे की लम्बाई लम्बा बौना

मेंडल के अनुसार प्रत्येक जनन कोशिका में एक ही गुण को व्यक्त करने के लिए दो कारक (Factor) होते हैं। जब ये दोनों कारक समान हों, तो इस स्थिति को समयुग्मजी (Homozygous) तथा जब ये विपरीत हों, तो इस स्थिति को विषमयुग्मजी (Heterozygous) कहते हैं।

उदाहरण के लिए-

ТТ – समयुग्मजी (Homozygous)
Tt – विषमयुग्मजी (Heterozygous)

मेंडल ने पहले एक जोड़ी विपरीत गुणों और फिर दो जोड़ी विपरीत गुणों की वंशागति का अध्ययन किया, जिन्हें क्रमशः एकसंकरीय क्रॉस तथा द्धिसंकरीय क्रॉस कहा जाता है

एकसंकरीय क्रॉस (Monohybrid cross)

जब दो पौधों के बीच एक इकाई लक्षण के आधार पर संकरण कराया जाता है, तो इसे एकसंकरीय क्रॉस कहते हैं। एक संकरीय क्रॉस में मेंडल ने मटर के पौधों की दो ऐसी उपजातियाँ चुनी जिनके विपरीत लक्षणों के जोड़ों में एक लम्बा (Tall) तथा दूसरा बौना (Dwarf) था और इसका आपस में क्रॉस कराया तो देखा गया कि पहली पीढ़ी (F1 Generation) में बीजों द्वारा जो पौधे उत्पन्न हुए, वे सभी लम्बे थे। इन सभी पहली पीढ़ी वाले पौधों को F1 पौधे कहते हैं। F1 पीढ़ी से प्राप्त पौधों को उन्होंने फिर स्वपरागण (self pollination) द्वारा उगाया और पाया कि दूसरी पीढ़ी F2 में पाये जाने वाले लम्बे तथा नाटे पौधों का समलक्षणी अनुपात (Phenotypic ratio) 3 : 1 था।

इस प्रकार के अनुपात को एकसंकरीय अनुपात् (Monohybrid Ratio) भी कहते हैं। तीन लम्बे पौधों में एक शुद्ध लम्बा (Pure tall, TT) और दो मिश्रित या संकर लम्बे (Mixed or hybrid tall, Tt) थे। एक बौना पौधा जो F2 पीढ़ी से बना था, वह शुद्ध बौना था।

यदि हम F2 के पौधे से तीसरी पीढ़ी अर्थात् F3 प्राप्त करें तो देखेंगे कि शुद्ध लम्बे पौधे (TT) सदैव ही लम्बे पौधे बनाते हैं। इसी प्रकार शुद्ध बौने पौधे (tt) हमेशा ही बौने पौधे बनाते हैं परन्तु यदि मिश्रित लम्बे पौधे (Tt × Tt) का क्रॉस कराया जाए तो F, पीढ़ी की भाँति लम्बे तथा बौने पौधों का समलक्षणी अनुपात (Phenotypic ratio) 3 : 1 होगा।

  • F2 पीढ़ी के तीन लम्बे और एक बौने पौधे में एक शुद्ध लम्बा (TT), दो मिश्रित लम्बा (Tt) और एक शुद्ध बौना (tt) हुआ जिसका अनुपात 1 : 2 : 1 होता है। F3 शुद्ध लम्बे से क्रॉस कराने पर शुद्ध लम्बे पौधे ही प्राप्त होते हैं। जैसे-

TT × Tr → TT

  • F3 शुद्ध नाटे से क्रॉस कराने पर शुद्ध नाटे पौधे ही प्राप्त होते हैं। जैसे-

tt × tt → tt

  • लेकिन मिश्रित लम्बे (Tt) को मिश्रित लम्बे (rt) से क्रॉस कराने पर पुनः 3 : 1 के अनुपात में ही लम्बे और बौने (नाटे) पौधे प्राप्त होते हैं। इसमें-

TT – हमेशा शुद्ध लम्बा (Homozygous tall)

Tt — मिश्रित लम्बा (Heterozygous tall)

tt – हमेशा शुद्ध बौना (Homozygous dwarf)

इसका अनुपात

  • फीनोटिपिक अनुपात (Phenotypic ratio)- 3 :1 (3 लम्बा व 1 बौना)
  • जीनोटिपिक अनुपात (Genotypic ratio)- 1 : 2 : 1 (1 शुद्ध लम्बा, 2 मिश्रित लम्बा व 1 शुद्ध बौना)

द्धिसंकरीय क्रॉस Dihybrid Cross

द्धिसंकरीय क्रॉस दो अलग-अलग जीनों के बीच का एक क्रॉस होता है जो दो देखे गए लक्षणों में भिन्न होता है। मेंडल के कथन के अनुसार, इन दोनों एलील के युग्मों के बीच पूरी तरह से प्रमुख – आवर्ती लक्षणों का संबंध है। उदाहरण में, RRYY / rryy माता-पिता के परिणामस्वरूप F1 संतान होती है जो R और Y (RrYy) दोनों के लिए विषम हैं।

“डायहाइब्रिड क्रॉस” नाम में, “दी (Di)” इंगित करता है कि इसमें दो लक्षण शामिल हैं (जैसे R और Y), “हाइब्रिड (hybrid)” का अर्थ है कि प्रत्येक विशेषता के दो अलग-अलग एलील हैं (जैसे R और r, या Y और y), और “क्रॉस (Cross)” का अर्थ है कि दो व्यक्ति (आमतौर पर एक माँ और पिता) हैं जो अपनी आनुवंशिक जानकारी को जोड़ रहे हैं या “पार” कर रहे हैं।

डायहाइब्रिड क्रॉस 16 आयामों के एक पुननेट्ट वर्ग (Punnett square) का उपयोग करके कल्पना करना आसान है:

RY Ry rY ry
RY RRYY RRYy RrYY RrYy
Ry RRYy RRyy RrYy Rryy
rY RrYY RrYy rrYY rrYy
ry RrYy Rryy rrYy rryy

अर्धसूत्रीविभाजन के नियम, जैसा कि वे डायहाइब्रिड पर लागू होते हैं, मेंडेल के पहले नियम और मेंडल के दूसरे नियम में संहिताबद्ध होते हैं, जिन्हें क्रमशः अलगाव का नियम और स्वतंत्र वर्गीकरण का नियम भी कहा जाता है।

अलग-अलग गुणसूत्रों पर जीन के लिए, प्रत्येक एलील जोड़ी ने स्वतंत्र अलगाव दिखाया। यदि पहली फिलायल जनरेशन (F1 जनरेशन) चार समान संतान पैदा करती है, तो दूसरी फिलायल जनरेशन, जो पहली फिलायल जनरेशन के सदस्यों को पार करके होती है, एक फेनोटाइपिक (उपस्थिति) अनुपात 9: 3: 3: 1 दिखाती है, जहां-

  • 9 दोनों प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करने वाले व्यक्तियों के अनुपात का प्रतिनिधित्व करता है-

RRYY + 2 x RRYy + 2 x RrYY + 4 x RrYy

  • पहले 3 में पहले प्रमुख गुण और दूसरा पुनरावर्ती गुण प्रदर्शित करने वाले व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है-

RRyy + 2 x Rryy

  • दूसरा 3 उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो पहली बार आने वाले लक्षण और दूसरा प्रमुख लक्षण प्रदर्शित करते हैं-

rrYY + 2 x rrYy

  • 1, समवर्ती का प्रतिनिधित्व करता है, दोनों आवर्ती लक्षणों को प्रदर्शित करता है-

rryy

द्धिसंकरीय क्रॉस/ डायहाइब्रिड क्रॉस अनुपात = 9:3:3:1

जीनोटाइपिक (genotypic) अनुपात:  RRYY 1: RRYy 2: RRyy 1: RrYY 2: RrYy 4: Rryy 2: rrYY 1: rrYy 2: rryy 1.

मेंडल के नियम Mendel’s Law

एकसंकरीय क्रॉस (Monohybrid cross) एवं द्विसंकरीय क्रॉस (Dihybrid cross) के आधार पर मेंडल ने आनुवंशिकता सम्बन्धी कुछ नियमों का प्रतिपादन किया, जिसे मेंडल के आनुवंशिकता के नियम  (Mendel’s law of Inheritance) के नाम से जाना जाता है। इन नियमों में पहला एवं दूसरा एकसंकरीय क्रॉस के आधार पर तथा तीसरा नियम द्विसंकरीय क्रॉस के आधार पर आधारित है।

  1. प्रभाविकता का नियम (Law of Dominance): इसके अन्तर्गत मेंडल ने एक जोड़े के विपरीत लक्षणों को ध्यान में रखकर क्रॉस (Cross) कराया, तो प्रथम पीढ़ी में उपस्थित होने वाला लक्षण प्रभावी रहा। उदाहरणस्वरूप जब मटर के लम्बे पौधे से बौने पौधे का क्रॉस कराया गया तो प्रथम पीढ़ी में केवल लम्बे पौधे ही उगे। इससे नियमानुसार लम्बा प्रभावी (Dominance) तथा बौना अप्रभावी (Recessive) हुआ। इस नियम  को “मेंडल का प्रथम नियम” के नाम से भी जाना जाता है।
  2. मेंडल का पृथक्करण का नियम (Law of segregation): इस नियम के अनुसार युग्मकों के निर्माण के समय कारकों (जीन) के जोड़े के कारक अलग-अलग हो जाते हैं और इनमें से केवल एक कारक ही युग्मक में पहुँचता है। दोनों कारक एक साथ युग्मक में कभी नहीं जाते। इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of purity of gametes) भी कहा जाता है। जैसे- जब मटर के लम्बे पौधे का बौने पौधे से क्रॉस कराया जाता है, तो F1 पीढ़ी में केवल लम्बे पौधे ही उगते हैं, लेकिन पुनः जब इसी पीढ़ी के पुष्पों में स्वपरागण कराया जाता है तो F2 पीढ़ी के पौधे दोनों प्रकार के होते हैं। यहाँ लम्बे तथा बौने पौधे में 3 :1 का अनुपात पाया जाता है।
  3. स्वतन्त्रं अपव्यूहन का नियम (Law of independent assortment): इस नियम के अनुसार कारकों के विभिन्न जोड़े जो किसी जीव में पाये जाते हैं, एक-दूसरे के प्रति स्वतंत्र होते हैं और स्वतंत्रतापूर्वक मिश्रित होकर नए रंग-रूप के जीव बना सकते हैं। इस नियम को दयिसंकर का प्रयोग भी कहा जाता है।

जेनेटिक प्रयोग मेंडल ने मटर के पौधों के साथ किया, उन्हें आठ साल (1856-1863) लगे और उन्होंने 1865 में अपने परिणाम प्रकाशित किए। इस समय के दौरान, मेंडल 10,000 से अधिक मटर के पौधों की वृद्धि हुई, जो पूर्वजों की संख्या और प्रकार का ध्यान रखते थे। उनके समय में मेंडल के काम और उनके कानून की प्रशंसा नहीं की गई थी। यह 1900 तक नहीं था, अपने कानूनों के पुनर्वितरण के बाद, कि उनके प्रयोगात्मक परिणामों को समझा गया था।

यह भी पढ़ें:

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एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह का जीवन परिचय – Chief Marshal Arjan Singh Biography in Hindi

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अर्जन सिंह का जीवन परिचय | Biography of Arjan Singh in Hindi

भारतीय वायु सेना के पहले एयर चीफ मार्शल: अर्जन सिंह का जीवन परिचय: (Biography of First IAF Chief Marshal Arjan Singh in Hindi)

भारतीय वायु सेना के मार्शल अर्जन सिंह औलख, भारतीय वायु सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी थे। उन्होंने 1964 से 1969 तक वायु सेना के तीसरे प्रमुख के रूप में कार्य किया, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के माध्यम से वायु सेना का नेतृत्व किया। वह भारतीय वायु सेना (IAF) के पहले और एकमात्र अधिकारी थे, जिन्हें पाँच सितारा में पदोन्नत किया गया था

अर्जन सिंह के जीवन परिचय का संक्षिप्त विवरण:

नाम मार्शल अर्जन सिंह
जन्म तिथि 15 अप्रैल 1919
जन्म स्थान लायलपुर,फैसलाबाद (अब पाकिस्तान)
निधन तिथि  16 सितम्बर 2017
पिता का नाम किशन सिंह
माता का नाम करतार सिंह
उपलब्धि भारतीय वायुसेना के पहले एयर चीफ मार्शल
उपलब्धि वर्ष 1964

मार्शल अर्जन सिंह का प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा:

मार्शल अर्जन सिंह का जन्म 15 अप्रैल 1919 को लायलपुर (अब फैसलाबाद,पाकिस्तान) में ब्रिटिश भारत के एक प्रतिष्ठित सैन्य परिवार हुआ था। इनके पिता का नाम किशन सिंह था जो कि एक रिसालदार के रूप मे कार्य करते थे. वे एक डिवीजन कमांडर के एडीसी के रूप में सेवा प्रदान करते थे।  इनकी माता का नाम करतार सिंह था, वह एक गृहणी थी अर्जन सिंह के दादाजी ने भी 1917 के दौरान रिसालदार मेजर के रूप में कार्य किया. इनके परिवार के अधिकांश लोग सेनाओ में कार्यरत थे. अर्जन सिंह ने अपनी शिक्षा मोंटगोमरी (अभी साहिवाल, पाकिस्तान) में पूरी की। उन्होंने 1938 में आरएएफ कॉलेज क्रैनवेल में प्रवेश किया और वर्ष 1939 में एक पायलट अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया।

मार्शल अर्जन सिंह से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य: (Important Facts Related to Marshal Arjan Singh)

  1. सन 1964 मे अर्जन सिंह भारत के पहले एयर चीफ़ मार्शल बने थे।
  2. अर्जन सिंह ने वायुसेना मे अपनी नौकरी की शुरुआत 1939 में की थी।
  3. चीन के साथ 1962 की लड़ाई के बाद 1963 में उन्हें वायु सेना उप प्रमुख बनाया गया।
  4. एक अगस्त 1964 को जब वायु सेना अपने आप को नई चुनौतियों के लिए तैयार कर रही थी, उस समय एयर मार्शल के रूप में अर्जन सिंह को इसकी कमान सौंपी गई थी।
  5. जून 2008 में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की मृत्यु के बाद अर्जन सिंह पांच सितारा रैंक वाले अकेले भारतीय सैन्य अधिकारी हैं।
  6. पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध मे महत्वपूर्ण भूमिका के लिए उन्हे पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।
  7. 1944 में द्वितीय विश्वयुद्ध के बर्मा अभियान में उनकी भूमिका के लिए उन्हें डिस्टिग्विश्ड फ्लाइंग क्रॉस प्रदान किया गया था।
  8. अपने कई दशकों के करियर में उन्होंने 60 प्रकार के विमान उड़ाए, जिनमें दूसरे विश्व युद्ध से पहले के तथा बाद में समसामयिक विमानों के साथ साथ परिवहन विमान भी शामिल हैं।
  9. मार्शल अर्जन सिह वर्ष 1971 से 1974 तक स्विट्ज़रलैंड में भारत के राजदूत रह रहे है।
  10. अर्जन सिह वर्ष 1989 से 90 तक देश की राजधानी दिल्ली के उपराज्यपाल रह चुके हैं।
  11. अर्जन सिंह वर्ष 1980 से 1983 तक इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलोजी,दिल्ली के अध्यक्ष रह चुके हैं।
  12. अर्जन सिंह पहले ऐसे वायु सेना प्रमुख हैं, जिन्होंने इस पद पर पहुंचने तक विमान उड़ाना नहीं छोड़ा था और अपने कार्यकाल के अंत तक वह विमान उड़ाते रहे।
  13.  वायु सेना के लिए उनकी सेवाओं के लिए सरकार ने जनवरी 2002 में वायु सेना के मार्शल के रैंक से नवाजा। यह उपलब्धि पाने वाले वह वायु सेना के एक मात्र अधिकारी हैं।
  14. मार्शल अर्जन सिंह का 16 सितम्बर 2017 को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

मार्शल अर्जन सिंह की वायु सेना में प्रगति:

वर्ष पद
1938 रॉयल एयर फ़ोर्स कॉलेज (आरएएफ), क्रैनवेल में फ्लाइट कैडेट के रूप में प्रवेश
23 दिसंबर 1939 रॉयल एयर फोर्स में पायलट अधिकारी के रूप में कमीशन
9 मई 1941 फ्लाइंग ऑफिसर
15 मई 1942 फ्लाइट लेफ्टिनेंट
1944 (कार्यकारी) स्क्वाड्रन लीडर
2 जून 1944 प्रतिष्ठित फ्लाइंग क्रॉस से सम्मानित किया गया
1947 विंग कमांडर, रॉयल भारतीय वायु सेना, वायु सेना स्टेशन, अंबाला
1948 ग्रुप कैप्टन, निदेशक, प्रशिक्षण, वायु मुख्यालय
12 दिसम्बर 1950 (कार्यकारी) एयर कमोडोर, भारतीय वायुसेना, एओसी, ऑपरेशनल कमांड
1 अक्टूबर 1955 एयर कमोडोर, एओसी पश्चिमी वायु कमान, दिल्ली
19 दिसंबर 1959 एयर वाइस मार्शल
1961 एयर वाइस मार्शल, वायुसेना अधिकारी, एयर मुख्यालय के प्रभारी
1963 वायुसेना के उप प्रमुख और बाद में वायु सेना के वाइस चीफ (भारत)
1 अगस्त 1964 वायुसेनाध्यक्ष (भारत) (कार्यकारी एयर मार्शल)
26 जनवरी 1966 एयर चीफ मार्शल (वायुसेना प्रमुख), चीफ ऑफ़ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष नियुक्त
15 जुलाई 1969 भारतीय वायु सेना से सेवानिवृत्त
26 जनवरी 2002 भारतीय वायु सेना के मार्शल

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भारत के प्रमुख पारिवारिक रिश्ते और सम्बन्धों के नाम की सूची हिंदी व अंग्रेजी में

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प्रमुख पारिवारिक रिश्ते और सम्बन्धों के नाम हिंदी में | Relation Names in Hindi

भारत के प्रमुख पारिवारिक रिश्ते और सम्बन्ध: (Name of Indian Relations in Hindi)

पारिवारिक रिश्ते और सम्बन्ध:

परिवार साधारणतया पति, पत्नी और बच्चों के समूह को कहते हैं, किंतु दुनिया के अधिकांश भागों में वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह है जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा द्वारा स्वीकृत व्यक्ति भी सम्मिलित हैं। परिवार और रिश्ते हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। इसके लिए कोई भी कीमत चुकाई जा सकती है। जो इसका मूल्य समझ जाए वो संसार को भी समझ जाएगा। कर्तव्य और हमारे बीच या यूं कहें धर्म और हमारे बीच की ही एक डोर परिवार और रिश्ते होते हैं।

परमात्मा ने हमें इसी को सहेजने की जिम्मेदारी भी दी है, हर आदमी इसी के बोझ से झुका हुआ भी है। घर-परिवार में माता-पिता या बड़ों के प्रति क्या कर्तव्य होता है इसका उदाहरण हमे रामचरितमानस में देखने को मिलता है। राम ने रिश्तों की मर्यादाओं को कैसे सहेजा, रिश्तों के लिए कितना त्याग किया, यह सबसे बड़ा उदाहरण है। आइये जानते है, भारत के प्रमुख पारिवारिक रिश्ते और सम्बन्धों के हिन्दी व अंग्रेजी नामों के बारे में:-

भारत के प्रमुख पारिवारिक रिश्ते और सम्बन्धों के हिन्दी व अंग्रेजी नाम की सूची:

Relations Names in English रिश्ते और सम्बन्ध हिन्दी में
Guest अतिथि, यजमान
Teacher अध्यापक
Mother मां, अम्मा, माता
Tenant किरायेदार
Mistress उप-पत्नी, स्वामिनी
Preceptor गुरू
Customer ग्राहक
Uncle चाचा
Aunt चाची
Disciple चेला, शिष्य
Landlord जमींदार, मकान मालिक
Sister-in-low साली, जेठानी, देवरानी, ननद
Adopted daughter गोद ली हुई बेटी
Adopted sun गोद लिया हुआ बेटा
Grandfather दादा
Grandmother दादी
Sun-in-low दामाद
Friend दोस्त
Maternal-Grandfather नाना
Maternal-Grandmother नानी
Husband पति
Wife पत्नी
Daughter-in-low पतोहू
Father पिता
Sun पुत्र
Daughter पुत्री, बेटी
Lover Affection प्रेम
Lover प्रेमी
Sister बहन
Brother-in-low बहनोई, साला
Nephew भतीजा, भांजा
Niece भतीजी, भांजी
Brother भाई
Maternal uncle मामा
Maternal Aunt मामी
Client मुव्वकिल
Mother’s sister मौसी
Concubine,kept, mistress रखैल
Patient मरीज
Heir वारिस
Pupil छात्र
Own सगा
Father-in-low ससुर
Mother-in-low सास
Relation सम्बन्ध
Relative संबंधी
Step Daughter सौतेली बेटी
Step-sun सौतेला पुत्र
Step-Father सौतेले पिता
Step-sister सौतेली बहन
Step-brother सौतेला भाई

हिन्दी मे पारिवारिक संबंध:-

  • नाना : माँ का पिता
  • नानी : माँ की माँ
  • मामा : माँ का भाई
  • मामी : मामा की पत्नी
  • मौसी : माँ की बहन
  • मौसा : मौसी का पति
  • दादा : पिता का पिता
  • दादी : पिता की माँ
  • ताऊ : पिता का बड़ा भाई
  • ताई : ताऊ की पत्नी
  • चाचा : पिता का छोटा भाई
  • चाची :चाचा की पत्नी
  • बुआ : पिता की बहन
  • फूफा : बुआ का पति
  • जेठ : पति का बड़ा भाई
  • जेठानी :जेठ की पत्नी
  • देवर : पति का छोटा भाई
  • देवरानी : देवर की पत्नी
  • नन्द : पति की बहन
  • नंदोई : नन्द का पति
  • साला : पत्नी का भाई
  • सलज : साले की पत्नी
  • साली : पत्नी की बहन
  • साडू : साली का पति
  • भाभी : भाई की पत्नी
  • जीजा :बहन का पति
  • पोता : बेटे का बेटा
  • पोती : बेटे की बेटी
  • नाती : बेटी का बेटा
  • नातिन : बेटी की बेटी
  • भतीजा : भाई का बेटा
  • भतीजी : भाई की बेटी
  • भांजी : बहन की बेटी
  • भांजा : बहन का बेटा

इन्हें भी पढे: विश्व के प्रमुख खनिजों के नाम हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा में

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जैव विकास – Organic Evolution

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जैव विकास - Organic Evolution

जैव विकास क्या है? What is Organic Evolution

पृथ्वी पर वर्तमान जटिल प्राणियों का विकास प्रारम्भ में पाए जाने वाले सरल प्राणियों में परिस्थिति और वातावरण के अनुसार होने वाले परिवर्तनों के कारण हुआ। सजीव जगत में होने वाले इस परिवर्तन को जैव-विकास (Organic evolution) कहते हैं।

आसान शब्दों में जैव विकास का शाब्दिक अर्थ होता है छिपी हुई वस्तु के बारे में समय समय पर हुए परिवर्तन को जानना। जीव विज्ञान(बायोलॉजी) की वह शाखा जिसमें जीव जंतुओं की उत्पति। उनकी पीढ़ियों में हूए कर्मिक परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है जैव विकास कहलाता है। जैव विकास एक धीमी गति से होने वाला क्रमिक परिवर्तन है।

जैव विकास की परिभाषा Definition of Organic Evolution

“पर्यावरणीय परिवर्तनों का जवाब देने के परिणामस्वरूप आबादी में प्रजातियों के आनुवंशिक श्रृंगार में परिवर्तन जैविक विकास है”

जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत जीवों की उत्पत्ति तथा उसके पूर्वजों का इतिहास तथा उनमें समय-समय पर हुए क्रमिक परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है, जैव विकास या उद्विकास (Evolution) कहलाता है।

जैव विकास के सिद्धांत (Theories Of Organic Evolution)

जैव विकास की व्याख्या के लिए कई प्रकार के विचार प्रस्तुत किये गए, परन्तु उनमें से अधिकांश को उचित प्रमाण के अभाव में वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल सकी। फ्रांसीसी वैज्ञानिक जे.बी. लैमार्क (Jean Baptiste Lamarck) के उपार्जित लक्षणों (Acquired Characters) या लैमार्कवाद (Lamarckism) तथा चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (Charles Robert Darwin) के प्राकृतिक चुनाव द्वारा जीवों का विकास (Origin of species by naturalselection) या डार्विनवाद (Darwinism) को ही सर्वप्रथम जैव विकास के सम्बन्ध में वैज्ञानिक मान्यता मिली।

लैमार्कवाद सिद्धांत

मार्कवाद फ्रांसीसी प्रकृति वैज्ञानिक जे.बी. लैमार्क (Jean Baptiste Lamarck) की रूपरेखा 1801 में ही सामने आई थी। उन्होने सिद्धांत को सर्वप्रथम 1809 ई. में जैव विकास के अपने विचारों को अपनी पुस्तक फिलॉसफिक जूलौजिक (Philosophic Zoologique) में प्रकाशित किया। इसे लैमार्कवाद (Lamarckism) या उपार्जित लक्षणों का वंशागति सिद्धान्त (Theory of inheritance of acquired characters) कहते हैं।

सिद्धांत-

  • लैमार्क के अनुसार जीवों की संरचना, कायिकी, उनके व्यवहार पर वातावरण (Environment) के परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है।परिवर्तित वातावरण के कारण जीवों के अंगों का उपयोग ज्यादा अथवा कम होता है।
  • जिन अंगों का उपयोग अधिक होता है, वे अधिक विकसित हो जाते हैं, तथा जिनका उपयोग नहीं होता है, उनका धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है।
  • वातावरण के सीधे प्रभाव से या अंगों के कम या अधिक उपयोग के कारण जन्तु के शरीर में जो परिवर्तन होते हैं, उन्हें उपार्जित लक्षण (Acquired characters) कहते हैं।
  • जन्तुओं के उपार्जित लक्षण वंशागत होते हैं, अर्थात् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रजनन के द्वारा चले जाते हैं।
  • ऐसा लगातार होने से कुछ पीढ़ियों के पश्चात उनकी शारीरिक रचना बदल जाती है तथा एक नए प्रजाति का विकास हो जाता है।

लैमार्कवाद का बाद में कई वैज्ञानिकों ने बढ़ चढ़कर विरोध किया। विरोधी वैज्ञानिकों के अनुसार उपार्जित लक्षण वंशागत नहीं होते हैं। इसकी पुष्टि के लिए जर्मन वैज्ञानिक वाईसमैन (Weismann) ने 21 पीढ़ियों तक चूहे की पूंछ काटकर यह प्रदर्शित किया कि कटे पूंछ वाले चूहे की संतानों में हर पीढ़ी में पूंछ वर्तमान रह जाता है। लोहार की हाथों की माँसपेशियाँ हथौड़ा चलाने के कारण मजबूत हो जाती है, परन्तु उसकी संतानों में ऐसी मजबूत मांसपेशियों का गुण वंशागत नहीं हो पाता है। वैसे जीव जिनमें लैंगिक जनन होता है।

जनन कोशिकाओं का निर्माण उनके जनद या जनन ग्रंथि का गोनड (Gonad) में होता है। शरीर की अन्य कोशिकाएँ कायिक कोशिकाएँ (somatic cells) कहलाती हैं। वातावरण के प्रभाव के कारण कायिक कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तन संतानों में संचरित नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि कायिक कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तन उनके साथ-साथ जनन कोशिकाओं में नहीं होते हैं।

डार्विन के जैव विकास का सिद्धांत

”चार्ल्स डार्विन”’ जैव-उद्विकास (organic-evolution) एवं प्राकृतिक चयन (natuaral selection) से सम्बन्धित चार्ल्स डार्विन के विचारों को डार्विनवाद कहा जाता है इस सिद्धान्त को दो अंग्रेज वैज्ञानिकों आल्फ्रेड रसेल वैलेस (Alfred Russel Wallace) तथा चार्ल्स रॉबर्ट (Charles Robert Darwin) ने मिलकर प्रतिपादित किया था। दोनों वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से कार्य कर समान निष्कर्षों को निकाला था। चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन नामक प्रसिद्ध अंग्रेज वैज्ञानिक ने जैव विकास की व्याख्या अपनी पुस्तक The Origin of Species में व्यक्त की। जैव विकास का उनका सिद्धान्त प्राकृतिक चुनाव द्वारा प्राणियों का विकास (Origin of species by natural selection) या डार्विनवाद (Darwinism) कहलाता है।

सिद्धांत-

  •  उनका यह सिद्धान्त उनके प्रसिद्ध समुद्री यात्रा के दौरान किए गए रोचक अवलोकनों पर आधारित है।
  • उन्होंने यह समुद्री यात्रा 1831 ई. से 1836 ई. तक दक्षिण अमेरिका जाने वाले एक ब्रिटिश जहाज एच.एम.एस. बीगल (H.M.S. Beagle) से किया था।
  • डार्विन के मतानुसार जीवों में प्रजनन के द्वारा अधिक-से-अधिक संतान उत्पन्न करने की क्षमता होती है।
  • प्रत्येक जीव में अत्यधिक प्रजनन दर की तुलना में इस पृथ्वी पर जीवों के लिए भोजन तथा आवास नियत है। अतः जीवों में अपने अस्तित्व के लिए आपस में संघर्ष होने लगता है। अस्तित्व के लिए संघर्ष दूसरे प्रजातियों के साथ-साथ प्रकृति या वातावरण के साथ भी होता है।
  • प्रकृति में कोई दो जीव बिल्कुल एक समान नहीं होते हैं। उनमें कुछ-न-कुछ असमानताएँ अवश्य होती हैं।
  • जीवों में विभिन्नताओं की अधिकता के फलस्वरूप जीवन के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है। जीवन के लिए संघर्ष में वही जीव योग्यतम होते हैं, जो सबसे अधिक योग्य गुणों वाले होते हैं। अयोग्य गुण वाले जीव नष्ट हो जाते हैं।
  • दूसरे शब्दों में प्रकृति योग्यतम तथा अनुकूल विभिन्नताओं वाले जीवों को चुन लेती है तथा अयोग्य एवं प्रतिकूल विभिन्नता वाले जीवों को नष्ट कर देती है।
  • जीवन संघर्ष में सफल सदस्य अधिक समय तक जीवित रहते हैं और अपनी वंशानुक्रम (Inheritance) को जारी रखने में योगदान देते हैं।
  • इसी को एक अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert spencer) ने सामाजिक विकास के सन्दर्भ में योग्यतम की अतिजीविता (survival of fittest) तथा इसी को जैव विकास के संदर्भ में डार्विन ने प्राकृतिक चयन (Natural selection) कहा।

उन्होंने कहा कि प्रकृति भी इसी प्रकार चुनाव के द्वारा सफल सदस्यों को प्रोत्साहित कर नई जातियों की उत्पत्ति करती है। इसीलिए डार्विनवाद प्राकृतिक चयनवाद (Theory of natural selection) कहलाता है। सन् 1858 में डार्विन और वैलेस ने अपने कार्यों को संयुक्त रूप से प्राकृतिक चयनवाद के नाम से प्रकाशित किया।

चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत की कमियाँ-

  • डार्विन ने विकासवाद को आनुवंशिकता के आधार पर नहीं समझाया था।
  • डार्विन के अनुसार नई जातियों की उत्पत्ति के लिए विभिन्नताएँ उत्तरदायी थीं लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार छोटी-छोटी भिन्नताओं से नई जातियों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
  • वैज्ञानिकों ने डार्विन के लिंग चयनवाद को भी गलत ठहराया है।
  • वंशागत लक्षणों वाले जीव जब एक-दूसरे जीवों के साथ मैथून करते हैं, जिनमें ये लक्षण नहीं होते, तो इन दोनों के मिलन से लक्षणों का प्रभाव कम नहीं होता है। डार्विन इसकी व्याख्या नहीं कर सके।
  • प्रकृति वरणवाद ने किसी अंग के विशिष्टिकरण को नहीं बताया जिसके कारण कुछ जातियाँ नष्ट हो गई। 

नियो-डार्विनवाद सिद्धांत

नियो-डार्विनवाद का उपयोग आमतौर पर ग्रेगोर मेंडल के आनुवंशिकी के सिद्धांत के साथ प्राकृतिक चयन द्वारा चार्ल्स डार्विन के विकास के सिद्धांत के एकीकरण के लिए किया जाता है। नवडार्विनवाद को आधुनिक सांश्लेषिकवाद परिकल्पना (Modern synthetic theory) भी कहते हैं। नव डार्विनवाद निम्नलिखित प्रक्रमों की पारस्परिक क्रियाओं का परिणाम है।

1. जीन उत्परिवर्तन (Gene mutation): 

जीन के DNA अणु में न्यूक्लियोटाइड्स (Nucleotides) की संख्या अथवा विन्यास के क्रम में आनेवाले उन परिवर्तनों को जीन उत्परिवर्तन कहते हैं जो सामान्य जीन की अभिव्यक्ति में परिवर्तन करते हैं।

2. गुणसूत्रों की संरचना एवं संख्या में परिवर्तन द्वारा विभिन्नताएँ (variation due to change instructure and number of chromosome): 

गुणसूत्रों पर आलग्न जीनों की संख्या अथवा विन्यास के परिवर्तन के द्वारा गुणसूत्रों की संरचना में परिवर्तन आ जाता है जिसे गुणसूत्र विपथन (chromosomal aberration) कहते हैं।

3. आनुवंशिक पुनर्योजन (Genetic recombination):

लैंगिक जनन की क्रिया में युग्मक निर्माण के समय अर्द्धसूत्री विभाजन होता है। अलग होते समय गुणसूत्रों में पारस्परिक जीन विनिमय (Crossing over) के फलस्वरूप नए जीन विन्यास बनते हैं, जिनसे जीवों में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। संकरण (Hybridization) द्वारा भी जीनों का पुनर्योजन होता है।

4. पृथक्करण (Isolation):

एक ही जाति की विभिन्न समष्टियाँ (Population) जब भौगोलिक कारणों से पृथक हो जाती हैं तो उनकी जीनी संरचना में पर्यावरण के अनुरूप तथा जीन उत्परिवर्तन, गुणसूत्र विपथन तथा बहुगुणिता द्वारा नई विभिन्नताएँ संकलित होने लगती हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती ही जाती हैं।

उत्परिवर्तन सिद्धांत

जीन डी एन ए के न्यूक्लियोटाइडओं का ऐसा अनुक्रम है, जिसमें सन्निहित कूटबद्ध सूचनाओं से अंततः प्रोटीन के संश्लेषण का कार्य संपन्न होता है। यह अनुवांशिकता के बुनियादी और कार्यक्षम घटक होते हैं। यह यूनानी भाषा के शब्द जीनस से बना है। क्रोमोसोम पर स्थित डी.एन.ए. (D.N.A.) की बनी अति सूक्ष्म रचनाएं जो अनुवांशिक लक्षणें का धारण एंव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरण करती हैं, उन्हें जीन (gene) कहते हैं।

जीन आनुवांशिकता की मूलभूत शारीरिक इकाई है। यानि इसी में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की जानकारी होती है जैसे हमारे बालों का रंग कैसा होगा, आंखों का रंग क्या होगा या हमें कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। और यह जानकारी, कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद जिस तत्व में रहती है उसे डीऐनए कहते हैं। जब किसी जीन के डीऐनए में कोई स्थाई परिवर्तन होता है तो उसे उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) कहा जाता है। यह कोशिकाओं के विभाजन के समय किसी दोष के कारण पैदा हो सकता है या फिर पराबैंगनी विकिरण की वजह से या रासायनिक तत्व या वायरस से भी हो सकता है।

जीवों की तुलनात्मक रचना Comparative Anatomy of Organisms

  1. समजात अंग (Homology): ऐसे अंग जो अलग अलग कार्यों में उपयोग होने के कारण काफी असमान हो सकते हैं लेकिन उसकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में समानता होती है, समजात अंग (Homologous Organs) कहलाते हैं। समजात अंगों की रक्त एवं तंत्रिकीय संरचना में भी समनता होती है। समजात अंग के उदाहरण- कीट के पंख तथा पक्षी के पंख, कीट के पंख तथा चमगादड़ के पंख आदि।
  2. समरूपता (Analogy): ऐसे अंग जो समान कार्यों में उपयोग होने के कारण समान दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में भिन्नता पायी जाती है, समरूप अंग (Analogous organ) कहलाते हैं। यह समरूपता अभिसारी जैव विकास (Convergent evolution) अर्थात् भिन्न पूर्वजों से एक ही दिशा में हुए जैव विकास को प्रमाणित करती है।
  3. अवशेषी अंग (vestigial organs): विकसित जन्तुओं में पाए जाने वाले कुछ स्पष्ट किन्तु अद्धविकसित एवं निष्क्रिय अनुपयोगी अंग या अंगों के भाग अवशेषी अंग (vestigial organs) कहलाते हैं। जैसे- शुतुर्मुर्ग के पंख, आस्ट्रेलिया के एमू (Emu) एवं केसीवरी के पंख, न्यूजीलैंड के कीवी के पंख, डोडो (वर्तमान में विलुप्त) के पंख आदि। इनके पूर्वजों में पंख पूर्ण विकसित थे लेकिन वातावरणीय प्रभाव के कारण एवं उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाने के कारण उद्विकास के क्रम में क्रमिक लोप की दिशा में अवशेषी अंगों के रूप में है। मनुष्य में एपेन्डिक्स (Apendix) भी अवशेषी अंग का उदाहरण है।
  4. संयोजक कड़ी (Connecting link): वे जीव जातियाँ जो अपने से कम विकसित जातियों तथा अपने से अधिक विकसित उच्च कोटि की जातियों की सीमा रेखा अर्थात् दोनों ही (निम्न एवं उच्च) जातियों के लक्षण का सम्मिश्रण होता है, संयोजक जातियाँ कहलाती हैं। इनके द्वारा जैव विकास का ठोस प्रमाण मिलता है।

उदाहरण:-

  • यूग्लीना: संघ प्रोटोजोआ, क्लोरोफिल युक्त पादपों एवं जन्तुओं के संयोजक के रूप में होते हैं।
  • प्रोटीरोस्पंजिया (Proterospongia): संघ प्रोटोजोआ, एककोशिकीय सदस्य, इन्हीं के पूर्वजों से स्पंज (sponge) की उत्पत्ति।
  • निओपिलाइना (Neopilina): संघ मोलस्का, ऐनीलिडा के सदस्यों से अधिक विकसित अकशेरुकी जन्तु, मोलस्का एवं एनीलिडा के संयोजक के रूप में।
  • पैरीपेटस (Peripatus): संघ आश्रोपोडा, यह एनीलिडा एवं आश्रोपोडा के बीच का संयोजक है तथा एनीलिडा से आश्रोपोडा के उद्विकास को प्रमाणित करता है।
  • आर्कियोप्टेरिक्स (Archaeopteryx): वर्तमान में विलुप्त, यह सरीसृपों एवं पक्षियों के बीच का संयोजक था। यह पक्षी वर्ग का जन्तु था क्योंकि इसके पंख अधिक विकसित थे।
  • प्रोटीथीरिया (Prototheria): निम्नकोटि के स्तनधारियों का उपवर्ग, वर्तमान में इसकी तीन श्रेणियाँ हैं- एकिडना (Echidina), जैग्लोसस (zaglossus), एवं आर्निथोरिंकस (Ornithorhynchus) ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूगिनी में पाये जाने वाले ये सरीसृपों एवं स्तनधारियों के संयोजक जन्तु हैं।

आनुवंशिकी एवं जैव विकास से सम्बन्धित शब्दावली:

शब्द अर्थ
समयुग्मजी (Homozygous) जब किसी गुण के युग्म विकल्पी या एलील समान हो, तो उसे समयुग्मजी (Homozygous) कहते हैं। जैसे- लम्बा पौधा (TT), बौना पौधा (tt) आदि।
समजीनी (Genotype) किसी जीव की जीनी संरचना उस जीव का समजीनी या जीन प्ररूप या जीनोटाइप (Genotype) कहलाता है।
सेक्स क्रोमोसोम (sex chromosome) लिंग निर्धारण में भाग लेने वाले क्रोमोसोम को सेक्स क्रोमोसोम कहते हैं। ये गुणसूत्र नर एवं मादा दोनों पौधों या जन्तुओं में अलग-अलग होते हैं।
ऑटोसोम्स (Autosomes) ये गुणसूत्र नर एवं मादा में समान रूप से पाये जाते हैं। ये गुणसूत्र कायिक कोशिकाओं में पाये जाते हैं।
जीन (Gene) DNA का वह छोटा खण्ड जिनमें आनुवंशिक कृट निहित होता है, जीन कहलाता है। जीन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जोहान्सन (Johhansen) ने 1909 ई. में किया था।
जीनोम (Genome) गुणसूत्र में पाये जाने वाले आनुवंशिक पदार्थ को जीनोम कहते हैं।
प्लाज्माजीन (Plasmagene) क्रोमोसोम के बाहर जीन यदि कोशिका द्रव्य के कोशिकांगों में होती है, तो उन्हें प्लाज्माजीन कहते हैं।
उत्परिवर्तन (Mutation) उत्परिवर्तन ऐसे असतत आनुवंशिक परिवर्तन होते हैं, जो अचानक उत्पन्न होते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका स्थानान्तरण होता रहता है।
बैक क्रॉस (Back Cross) यदि प्रथम पीढ़ी के जीनोटाइप से पितृपीढ़ी के जीनोटाइप में शुद्ध या संकर प्रकार को संकरण कराया जाए तो यह क्रॉस बैक क्रॉस कहलाता है।
एक जीन एक एन्जाइम (One gene one enzyme theory) एक जीन के द्वारा एक एन्जाइम का संश्लेषण होता है। इस सिद्धान्त की खोज बीडल और टेटम (Beadle and Tatum) ने 1948 में की।
वेसेक्टोमी (vasectomy) पुरुषों का बंध्याकरण वेसेक्टोमी कहलाता है।
ट्यूबेक्टोमी (Tubectomy) महिलाओं का बंध्याकरण ट्यूबेक्टोमी कहलाता है।
यूथेनिक्स (Euthenics) इसमें मानव के उच्च आनुवंशिक लक्षणों को उत्तम पालन पोषण एवं शिक्षा द्वारा विकास का अध्ययन किया जाता है।
कारक (Factors) आनुवंशिक लक्षणों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ले जाने वाले लक्षण को कारक (Factor) कहा जाता है।
क्लाइनफेल्टर्स सिन्ड्रोम (Klinefelter’s syndrome) इसमें लिंग गुणसूत्र दो के स्थान पर तीन और प्रायः XXY होते हैं। इसमें एक अतिरिक्त X-गुणसूत्र की उपस्थिति के कारण वृषण (Testes) होते हैं और उनमें शुक्राणु (sperms) नहीं बनते। ऐसे पुरुष नपुंसक होते हैं।
आनुवंशिक लक्षण (Hereditary characters) वैसे लक्षण जो माता-पिता से सन्तान में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचते रहते हैं, आनुवंशिक लक्षण कहलाते हैं।
दिसंकरण क्रॉस (Dihybrid cross) जब दो पौधों के बीच दो जोड़े विपरीत लक्षण के आधार पर संकरण कराया जाता है, तो उसे द्विसंकरण क्रॉस कहते हैं।
लिंग निर्धारण (sex determination) व्यक्तियों में लिंग निर्धारित होने की प्रक्रिया को लिंग निर्धारण कहते हैं। व्यक्ति के लिंग निर्धारण में आनुवंशिकी का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
उपार्जित लक्षण (Acquired character) वातावरण के सीधे प्रभाव से या अंगों के कम या अधिक उपयोग के कारण जन्तु के शरीर में जो परिवर्तन होते हैं, उन्हें उपार्जित लक्षण कहते हैं।
विषमयुग्मजी (Heterozygous) यदि समजातीय कारकों में दोनों कारक एक-दूसरे के विपर्यायी हों अर्थात् उनमें एक प्रभावी तथा दूसरा अप्रभावी हो, तो वह जोड़ा विषमयुग्मजी या संकर (Hybrid) कहलाता है। जैसे- संकर लम्बा पौधा (Tt) 4. समलक्षणी (Phenotype)
सहलग्नता (Linkage) जब दो विभिन्न लक्षण एक ही गुणसूत्र पर बँधे होते हैं, तो उनकी वंशागति स्वतंत्र न होकर एक साथ ही होती है। इस घटना को मॉर्गन (Morgan) ने सहलग्नता (Linkage) कहा। यह मेंडल के नियम का अपवाद है।
आनुवंशिकी (Genetics) माता-पिता से संतानों में विभिन्न लक्षणों के स्थानान्तरण का विषय तथा उससे सम्बन्धित कारणों और नियमों का अध्ययन आनुवंशिकी कहलाता है। जेनेटिक्स (Genetics) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम डब्ल्यू वाटसन ने 1905 ई. में किया था।
इंडियोग्राम (Indiogram) किसी कैरियोटाइप के पहचाने गए गुणसूत्रों के समजातीय जोड़ों को जब लम्बाई के गिरते हुए क्रम में व्यवस्थित करने के बाद किसी निश्चित पैमाने पर आरेख रूप में दशयिा जाता है, तो उसे इंडियोग्राम कहते हैं।
रंग वर्णान्धता (Colour blindness) इसे डाल्टोनिज्म (Daltonism) भि कहते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति लाल एवं हरे रंग का भेद नहीं कर पाते हैं। यह लिंग सम्बन्धित रोग है जो वंशागति के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता है।
टरनर्स सिन्ड्रोम (Turner’s syndrome) ये ऐसी स्थितियाँ होती हैं जिनमें केवल एक X-गुणसूत्र पाया जाता है। इनका कद छोटा होता है तथा जननांग अल्पविकसित होता है। वक्ष चपटा तथा जनद अनुपस्थित या अल्पविकसित होते हैं। ये नपुंसक होती है।
फीनाइल कीटोनूरिया (Phenylketonuria) बच्चों के तंत्रिका ऊतक में फीनाइल ऐलेमीन के जमाव से अल्पबुद्धिता (Mental Deficiency) आ जाती है। इस रोग में फीनाइल ऐलेमीन को टाइरोसीन नामक ऐमीनो अम्ल में बदलने वाले एन्जाइम फीनाइल ऐलेमीन हाइड्रोक्सीलेज की कमी होती है।
जैव विकास (Organic evolution) जैव विकास जीव विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत जीवों की उत्पत्ति तथा उनके पूर्वजों का इतिहास एवं उनमें समय-समय पर हुए क्रमिक परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है।
समजात अंग (Hornologous organ) भिन्न-भिन्न वातावरण में रहनेवाले जन्तुओं के ऐसे अंग जो संरचना एवं उत्पत्ति की दृष्टिकोण से एकसमान होते हैं परन्तु अपने वातावरण के अनुसार वे भिन्न-भिन्न कार्यों का सम्पादन करते हैं, समजात अंग कहलाते हैं।
असमजात अंग (Analogous organ) भिन्न-भिन्न जन्तुओं में पाये जाने वाले वैसे अंग जो संरचना एवं उत्पत्ति की दृष्टिकोण से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, परन्तु एक ही प्रकार का कार्य करते हैं, असमजात अंग कहलाते हैं।
जननिक विभिन्नता (Germinal variation) जनन कोशिकाओं के क्रोमोसोम या जीन की संरचना या संख्या में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाली विभिन्नता को जननिक विभिन्नता कहते हैं। इसे आनुवंशिक विभिन्नता भी कहा जाता है, क्योंकि ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचरित होती है।
कायिक विभिन्नता (somatic variation) जलवायु एवं वातावरण का प्रभाव उपलब्ध भोजन के प्रकार, अन्य उपस्थित जीवों के साथ परस्पर व्यवहार इत्यादि के कारण उत्पन्न होने वाली विभिन्नता कायिक विभिन्नता कहलाती है। इस प्रकार की विभिन्नता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में वंशागत नहीं होती है। ऐसी विभिन्नताएँ उपार्जित (acquired) होती हैं।
युग्म विकल्पी (Aneles) एक ही गुण के विभिन्न विपर्यायी रूपों को प्रकट करने वाले लक्षण कारकों को एक-दूसरे का युग्म विकल्पी या एलील (Allele) या एलीलोमार्फ (Allelomorph) कहते हैं। जैसे- किसी पुष्प का रंग लाल, हरा व पीला को क्रमशः R,G,Y से प्रकट करते हैं। इसी प्रकार लम्बा (T) तथा बौना (t) भी युग्म विकल्पी है।
जीन विनिमय (Crossing over) अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रोफेज अवस्था की सिनेप्सिस क्रिया के दौरान समजाती गुणसूत्रों के नान-सिस्टर क्रोमेटिड (Nonsister chromatids) में संगत आनुवंशिक अण्डों का पारस्परिक विनिमय होता है जिससे सहलग्न जीनों के नये संयोजन बनते हैं। इसके द्वारा माता और पिता के गुणों का विनिमय होता है और संतान में दोनों के गुण आते हैं।
टेस्ट क्रॉस (Test Cross) यदि प्रथम पीढ़ी (F1) के जीनोटाइप से पितृपीढ़ी (P) के जीनोटाइप में (शुद्ध या संकर =TT या Tt) संकरण कराया जाए तो यह बैक क्रॉस कहलाता है, परन्तु जब प्रथम पीढ़ी (F1) के जीनोटाइप से पितृपीढ़ी (P) के जीनोटाइप संकर (Hybrid) अप्रभावी (Recessive) जैसे- tt से संकरण कराया जाए तो यह टेस्ट क्रॉस कहलाता है।
सुजननिकी (Eugenics) यह आनुवंशिकी की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत मानव जाति के समाज को आनुवंशिक नियमों के द्वारा सुधारने सम्बन्धी अध्ययन किया जाता है। सर फ्रांसिस गाल्टन (Sir Francis Galton) ने सर्वप्रथम सुजननिकी नामक नई शाखा का नाम दिया। इसीलिए गाल्टन को सुजननिकी का जनक कहा जाता है।
हीमोफिलिया (Haemophilia) यह भी मनुष्यों में होने वाला एक लिंग सहलग्न रोग है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति में चोट के काफी समय के बाद तक भी रक्त लगातार बहता रहता है। अतः इसे रक्त स्रावण रोग (Bleeder’s disease) भी कहते हैं। यह रोग प्रायः पुरुषों में पाया जाता है। यह रोग भी वंशागति द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता है।
हँसियाकार रक्ताणु ऐनीमिया (sickle cell anaemia) इस रोग में ऑक्सीजन की कमी की वजह से RBC के हीमोग्लोबिन सिकुड़कर हँसिया (sickle) की आकृति के हो जाते हैं। यह रोग सुप्त जीन के कारण होता है। इस रोग में ऑक्सीजन की कमी के कारण RBC हँसिया के आकार की होकर फट जाती है जिससे हीमोलिटिक एनीमिया (Haemolytic anaemia) रोग हो जाता है।
डाउन्स सिंड्रोम (Down’s syndrome) इसमें 21वीं जोड़ी के गुणसूत्र दी के जगह तीन होते हैं अर्थात् ऐसे व्यक्ति में गुणसूत्रों की संख्या 47 होती है। इस सिन्ड्रॉम वाला व्यक्ति छोटे कद एवं मंदबुद्धि वाला होता है। इसमें जननांग समान लेकिन पुरुष नपुंसक होते हैं। इसे मंगोली जड़ता (Mongoloid Idiocy) भी कहते हैं।
गुणसूत्र (Chromosomes) केन्द्रक द्रव्य में उलझी हुई महीन धागों के समान की संरचना पायी जाती है, जिसे क्रोमेटिन जालिका (Chromatin network) कहते हैं। क्रोमेटिन की जालिका कोशिका विभाजन के समय टुकड़ों में बँटकर धागे (Thread) की तरह रचनाएँ बनती हैं जिन्हें गुणसूत्र या क्रोमोसोम (Chromosomes) कहते हैं। किसी खास जाति के जीव के लिए गुणसूत्र की संख्या निश्चित होती है। गुणसूत्र छोटे तथा मोटे छड़नुमा संरचना के रूप में होते हैं। गुणसूत्र के द्वारा आनुवंशिक गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाये जाते हैं। अर्थात् गुणसूत्र आनुवंशिक गुणों के वाहक होते हैं। गुणसूत्र का निर्माण DNA तथा प्रोटीन अणुओं द्वारा होता है। युग्मकों (Gametes) में विभिन्न गुणसूत्रों का केवल एक-एक प्रतिरूप होता है जिसे अगुणित (Haploid) य जीनोम (Genorne) कहते हैं। कायिक कोशिकाओं (somatic cells) में इस तरह के दो-दो प्रतिरूप होते हैं, जिसे द्विगुणित गुणसूत्र (Diploid chromosomes) कहते हैं।

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विश्व के सबसे ऊँचे झरनों के नाम एवं देश पर आधारित सामान्य ज्ञान

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विश्व के सबसे ऊँचे झरने, ऊँचाई एवं देश | Top Waterfall in the World in Hindi

विश्व के सबसे ऊँचे झरने, ऊँचाई एवं देश: (List of top Waterfall in the World in Hindi)

झरना एक जलस्रोत है। प्राकृतिक झरने कई नदियों के उद्गम हैं। दुनिया भर में झरने या जलप्रपात बड़ी संख्या में पाए जाते हैं परन्तु इनमें से कुछ बेहद खास हैं। कुछ बहुत ऊँचाई से गिरने वाले हैं तो कुछ बेहद विशाल इलाके में एक साथ गिरते हैं।

विश्व के ऊँचे झरनों के आधार पर हर परीक्षा में कुछ प्रश्न अवश्य पूछे जाते है, इसलिए यह आपकी सभी प्रकार की परीक्षा की तैयारी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। आइये जाने विश्व के चुनिंदा आश्चर्यजनक झरनों के बारे में:-

विश्व के शीर्ष (ऊँचे) झरनों के नाम एवं स्थान की सूची:

झरने का नाम किस देश में स्थित है  ऊँचाई (फीट में)
एंजेल फॉल्स कानैमा राष्ट्रीय उद्यान, बोलिवर, वेनेजुएला 3,212
एन्जिल जलप्रपात वेनेजुएला का एक झरना है। यह दुनिया का सबसे ऊंचा जलप्रपात है जिसकी ऊंचाई 979 मी॰ (3,212 फीट) है और गहराई 807 मी॰ (2,648 फीट) है। यह जलप्रपात वेनेजुएला के बोलिवर राज्य के ग्रान सबाना क्षेत्र में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, कानाईमा राष्ट्रीय उद्यान (स्पैनिश: पार्के नेशिनल कैनाईमा), में ऑयनटेपुई पर्वत से गिरता है। जलप्रपात की ऊंचाई इतनी अधिक है कि पानी नीचे ज़मीन पर गिरने से पहले ही वाष्प बन जाता है या तेज हवा द्वारा धुंध के रूप में दूर ले जाया जाता है। जलप्रपात का आधार केरेप नदी से जुड़ा हुआ है (वैकल्पिक रूप से रियो गौया के रूप में ज्ञात), जो कराओ नदी की सहायक-नदी चुरून नदी से मिलता है।
तुगेला फॉल्स क्वाज़ुलु – नेटाल, दक्षिण अफ्रीका 3,110
Tugela Falls दक्षिण अफ्रीका के KwaZulu-Natal प्रांत के Royal Natal National Park के Drakensberg (Dragon’s Mountains) में स्थित मौसमी झरनों का एक परिसर है। इसे आमतौर पर दुनिया के दूसरे सबसे ऊंचे झरने के रूप में स्वीकार किया जाता है इसके पांच अलग-अलग फ्री-लीपिंग फॉल्स की संयुक्त कुल गिरावट आधिकारिक तौर पर 948 मीटर (3,110 फीट) है। 2016 में, हालांकि, एक चेक वैज्ञानिक अभियान ने नए माप लिए, जिससे फॉल्स 983 मीटर लंबा हो गया। पुष्टि के लिए डेटा को विश्व जलप्रपात डेटाबेस में भेजा गया था। तुगेला नदी का स्रोत मोंट-औक्स-स्रोत पठार है जो एम्फीथिएटर एस्केरपमेंट से कई किलोमीटर आगे तक फैला हुआ है जहां से यह गिरता है।
कैटरेटस लास ट्रेस हर्मनस अयाकुचो, पेरू 3,000
दुनिया के सबसे ऊंचे झरने” का तीसरा नाम “तीन बहने” (तीन बहनें गिर गईं) अपने असामान्य निर्माण के कारण। दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा झरना “थ्री सिस्टर्स” (स्पांस्की में) कैटरेटस लास ट्रेस हर्मनस) एक छोटे से देश के घने जंगलों की गहराई में छिप गया। पेरू में अयाकाचो क्षेत्र अपनी उपस्थिति का दावा कर सकता है। थ्री सिस्टर्स जलप्रपात लंबे समय से सभ्यता से छिपा हुआ है। विश्व विज्ञान अभी हाल ही में पेरू में इस उच्चतम झरने के बारे में जानकारी से समृद्ध हुआ है। फ़ोटोग्राफ़रों ने इसे एक समूह में खोला, जब वे एक और पेरू जलप्रपात – कैटारता का एक फोटोशूट कर रहे थे, जो पास में स्थित है और तीन गुना कम (267 मीटर ऊँचा) है। झरने की धारा में 914 मीटर की कुल ऊंचाई के साथ तीन अलग-अलग टीयर हैं। इसके अलावा, उनमें से दो (ऊपरी) केवल हवा से देखे जा सकते हैं, और निचले, तीसरा एक विशाल पूल में फैलता है, जो 30 मीटर ऊंचे पेड़ों के बीच छिपा होता है।
ओलो’उपेन फॉल्स मोलोकाई, हवाई, संयुक्त राज्य अमेरिका 2,953
ऑलूपेन फॉल्स Oloupen (ओलोउपेना फॉल्स अंग्रेजी में) संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे लंबा झरना और दुनिया में चौथा सबसे बड़ा झरना है। ओलूपेना ज्वालामुखी मालोकाई द्वीप के उत्तरी तट पर स्थित है ( Moloka’i)। 900 मीटर ऊंचा झरना माउंट हल्कू के लगभग ऊर्ध्वाधर ढलान पर बहता है ( Haloku), हालांकि पानी आमतौर पर ऊंचाई से स्वतंत्र रूप से उड़ता है। ओलूपेन फॉल्स लंबे समय से लोगों से छिपा हुआ था, क्योंकि एक पृथक ज्वालामुखी द्वीप पर्वत श्रृंखला के अंदर स्थित है और यह ऊंचे पहाड़ों से घिरा हुआ है। अब भी, जब ओलूपेना फॉल्स पर्यटकों के बीच व्यापक रूप से जाना जाता है, तो हेलीकाप्टर द्वारा इसे प्राप्त करना अधिक सुविधाजनक है। अब तक, ओलूपेना फॉल्स हाइकर्स के लिए दुर्गम हैं। सिवाय, हवा के रूप में, यह केवल समुद्र के किनारे से संपर्क किया जा सकता है, जहां यह अपने पानी को निर्देशित करता है।
कातरता युम्बिल्ला अमज़ोनस, पेरू 2,938
पेरू में दूसरा सबसे ऊंचा और दुनिया में पांचवां – एक झरना Yumbilla (उम्बिला, अंग्रेजी में Yumbilla, और क्वेशुआ भाषा में Yumbillo)। उम्बिला फॉल पेरू के सेल्वा क्षेत्र में स्थित है। झरने की ऊंचाई 870 मीटर है। हालांकि, पेरू नेशनल जियोग्राफिक इंस्टीट्यूट 895.4 मीटर के आंकड़े पर जोर देता है। दुनिया में सबसे बड़ा झरना भूमिगत से बहता है। इसका स्रोत: सैन फ्रांसिस्को की गुफा, अध्ययन किए गए भाग की लंबाई लगभग 250 मीटर है।
विन्नुफोस्सें मोरे ओग रोम्स्दल, नॉर्वे 2,822
नॉर्वे और यूरोप में सबसे ऊंचा झरना Winnufossen विन्नु नदी पर स्थित है, जिसने अपना नाम (नार्वे में) निर्धारित किया है Vinnufossen विन्नु नदी पर एक झरना का मतलब है)। Vinnufossen झरना Sunndalsera (इसके पूर्व) के गाँव के पास स्थित है। कुल ऊंचाई यूरोप में सबसे ऊंचा झरना 860 मीटर। Vinnufossen झरने के कई स्तर हैं। विन्नुफ़ुसेन जलप्रपात के लिए जल आपूर्ति का स्रोत विन्नुफ़न ग्लेशियर है ( Vinnufonna)। यह ग्लेशियर विन्नू नदी को जन्म देता है, जो माउंट विन्फ्यूलेले (बहने वाली पर्वत) को बहाती है Vinnufjellet) विन्नुफोसेन झरने के रूप में। दिलचस्प है, आधुनिक नॉर्वेजियन में विन्नू शब्द नहीं है, जो ग्लेशियर, पहाड़, नदी और झरने के नामों में शामिल है।
बालाइफोस्सें होर्दालंद, नॉर्वे 2,788
बालिफ़ॉसन जलप्रपात नॉर्वे में दूसरा सबसे ऊंचा झरना Balayfossen (बलाई फोसेन, बालिफ़ॉसन फॉल्स) ओसाफजॉर्ड fjord के पास स्थित है ( Osafjord या Osafjorden) उल्विक नगरपालिका में ( Ulvik) खुरलान फीलके में ( Hordaland)। Balaifossen झरना 850 मीटर ऊँचा है और इसमें 3 कैस्केड हैं जिनमें उच्चतम 452 मीटर है। Balaifossen झरने के लिए पानी की आपूर्ति का स्रोत बाला धारा है, जिसे पिघले हुए पानी से भर दिया जाता है। घाटी के किनारे पर, जहां पहाड़ के झरने Balaifossen का पानी उतरता है, ओसा शहर की स्थापना की गई थी। एक वार्मर में सामान्य वर्ष की तुलना में 6 मीटर तक की एक विशिष्ट धारा एक सुस्त चाल में बदल सकती है, जो ग्रह के सबसे ऊंचे झरने के पत्थर के बिस्तर को उजागर करती है।
पुचुकुको, यूएसए हवाई, संयुक्त राज्य अमेरिका 2,756
पुचुकुको, यूएसए झरना Puukaoku (Pu’uka’oku) 840 मीटर (2,756 फीट) ऊँचा, दुनिया का सबसे ऊँचा झरना नहीं, बल्कि दुनिया के दस सबसे ऊँचे झरनों में से एक है। Moloka’i)। यह द्वीप दिलचस्प है क्योंकि इसमें 12 (!) झरने हैं, जिनमें से दो शीर्ष 10 में आते हैं: दुनिया में सबसे लंबा झरना। मोलोकाई द्वीप पर सबसे लंबा झरना, ओलूपेना संयुक्त राज्य अमेरिका में पहला और दुनिया में चौथा है। इस छोटे से द्वीप पर सबसे छोटा हाहा झरना केवल 240 मीटर ऊंचा है। पुचोकु फॉल्स का पानी स्वतंत्र रूप से नहीं गिरता है, लेकिन समान रूप से ढलान के नीचे बहता है, लगभग लंबवत स्थित है। झरने की तस्वीर शायद ही कभी खींची गई हो क्योंकि इसके चारों ओर की ढलानें लोगों के लिए दुर्गम हैं। घनी बढ़ने वाली मोटी परतें पर्वतारोहियों के साथ हस्तक्षेप करती हैं और उपकरण के साथ किसी व्यक्ति के वजन का समर्थन करने के लिए ढीली ज्वालामुखीय मिट्टी पर इतनी कसकर छड़ी नहीं करती हैं।
जेम्स ब्रूस फॉल्स ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा 2,755
कनाडा और उत्तरी अमेरिका का सबसे ऊंचा झरना है जेम्स ब्रूस (जेम्स ब्रूस गिर जाता है) 840 मीटर (2.755 फीट) ऊँचा। जेम्स ब्रूस फॉल्स, दुनिया के दस सबसे ऊंचे झरनों में नंबर 9, हवाई पक्केकू फॉल्स से सिर्फ एक फीट (31 सेंटीमीटर) नीचे। झरने का नाम महान यात्री, स्कॉट्समैन जेम्स ब्रूस के नाम पर रखा गया है, जो ब्लू नाइल के स्रोत को खोजने वाले पहले व्यक्ति थे। जेम्स ब्रूस फॉल्स कनाडा में स्थित है। ब्रिटिश कोलंबिया में, जेम्स ब्रूस फॉल्स राजकुमारी लुईस मरीन प्रांतीय पार्क में विचारों का नेता है। झरने की छोटी चौड़ाई (केवल 5 मीटर) को इस तथ्य से समझाया जाता है कि, दुनिया के सभी उच्चतम झरने की तरह, यह पिघले पानी से बनता है। उत्तरी अमेरिका में सबसे बड़ा झरना एक उच्च पठार पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाली बर्फ पर फ़ीड करता है।
ब्राउन फॉल्स दक्षिण द्वीप, न्यूजीलैंड 2,744
न्यूजीलैंड में सबसे ऊंचा झरना भूरा (ब्राउन) 1940 में विक्टर कार्लिले ब्राउन द्वारा दक्षिण द्वीप पर खोजा गया था। सबसे अधिक की सूची में दसवें का उद्घाटन बड़े झरने हवाई फोटोग्राफी के दौरान शांति हुई और एक साधारण पायलट को अमर कर दिया। आज यह झरना न्यूजीलैंड के साउथ आइलैंड पर स्थित फियोर्डलैंड नेशनल पार्क का हिस्सा है। ब्राउन फॉल का स्रोत एक छोटी पहाड़ी झील है (वैसे, ब्राउन द्वारा खोजा गया और उसके नाम पर) द्वीप के दक्षिणी भाग में। झरना अपने आप में एक उपोष्णकटिबंधीय सदाबहार जंगल से घिरा हुआ है, जिसमें मुख्य रूप से 50 मीटर ऊँचे और 6 मीटर चौड़े कौड़ी के पेड़ हैं। झरना 12 मीटर चौड़ा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है शक्तिशाली झरना प्रति सेकंड 14 क्यूबिक मीटर पानी तक पहुंचता है। लेकिन यह उन महीनों में होता है जब इसका पानी से भरना अधिकतम होता है। और सामान्य पानी की खपत लगभग 3 घन मीटर प्रति सेकंड है। खुद पानी बड़ा झरना न्यूजीलैंड में आर्म बे फजॉर्ड में बसता है।
गुल्फफॉस सोगं ओग फ्जोर्दाने, नॉर्वे 2,690
गुल्फफॉस दक्षिण-पश्चिम आइसलैंड में हिवेटा नदी के घाटी में स्थित एक झरना है। यह दुनिया के कई बड़े झरनों में से एक है।
राम्नेफ्जेल्ल्स्फोस्सें सोगं ओग फ्जोर्दाने, नॉर्वे 2,685
राम्नेफ्जेल्ल्स्फोस्सें (Ramnefjellsfossen) इसे Utigardsfossen या Utigordsfossen के रूप में भी जाना जाता है अनौपचारिक रूप से कई प्रकाशनों में दुनिया में तीसरे सबसे ऊंचे झरने के रूप में सूचीबद्ध है। दूसरी ओर, द वर्ल्ड वाटरफॉल डेटाबेस, एक झरना उत्साही वेबसाइट, जिसमें देश के सभी छोटे और मौसमी झरने शामिल हैं, इसे ग्यारहवें-सबसे ऊंचे के रूप में सूचीबद्ध करता है। फॉल्स को रामस्नेफजेलब्रीन ग्लेशियर द्वारा खिलाया जाता है, जो कि महान जोस्टेडलब्रिन ग्लेशियर की एक शाखा है।
वैहिलाऊ फॉल्स हवाई, संयुक्त राज्य अमेरिका 2,600
वैहिलाऊ जलप्रपात (Waihilau Falls)  अमेरिका के हवाई राज्य में वेमनू घाटी में एक झरना है। यह हवाई में तीसरा सबसे ऊंचा झरना है और दुनिया में तेरहवें सबसे ऊंचा 2,600 फीट (790 मीटर) है।
औपनिवेशिक क्रीक फॉल्स वाशिंगटन, संयुक्त राज्य अमेरिका 2,584
औपनिवेशिक क्रीक जलप्रपात (Colonial Creek Falls) महाद्वीपीय संयुक्त राज्य अमेरिका का सबसे ऊँचा जलप्रपात है। 4,200 फीट (1,300 मीटर) से अधिक के क्षैतिज आड़े में, यह 13 अलग-अलग बूंदों में लंबवत 2,568 फीट (783 मीटर) गिरता है, जिसमें औसत 65 डिग्री है। विश्व जलप्रपात डेटाबेस के अनुसार, यह महाद्वीपीय संयुक्त राज्य में सबसे ऊंचा झरना है, और दुनिया में 15 वां सबसे ऊंचा है, जो 143 फीट से अधिक प्रसिद्ध योसेमाइट फॉल्स से अधिक है।
मोंगेफोस्सें मोरे ओग रोम्स्दल, नॉर्वे 2,535
मोंफेफोसन फॉल्स मॉर्रे ओग और रोम्सडाल काउंटी, नॉर्वे के राउमा नगर पालिका में एक झरना है। यह दुनिया का सबसे लंबा एकलौता झरना है। यह यूरोपीय मार्ग E136 राजमार्ग और राउमा नदी के पास स्थित है, जो इसमें बहती है। ऊंचाई के रूप में कुछ विवाद है, लेकिन यह आमतौर पर 773 मीटर (2,536 फीट) पर सूचीबद्ध है। जैसा कि नॉर्वे के कई झरनों के मामले में है, इसे जलविद्युत शक्ति के लिए लक्षित किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप गर्मियों के पर्यटक मौसम के दौरान पानी का प्रवाह बहुत कम हो जाता है। Mongefossen दुनिया का सबसे ऊँचा झरना होने का गौरव भी रखता है, जिसे एक रेलवे स्टेशन से लेकर रुमा लाइन पर, उत्तर की तरफ फ्लैटमार्क और मारस्टीन गाँवों के बीच देखा जा सकता है।
कैटरेटा डेल गोक्टा अमज़ोनस, पेरू 2,531
गोक्टा (स्पैनिश: कैटरेटा डेल गोक्टा) एक बारहमासी झरना है जो पेरू प्रांत के बोंगारा के दो बूंदों में स्थित है, जो लीमा के उत्तर-पूर्व में लगभग 700 किलोमीटर (430 मील) है। यह कोकाहूयो नदी में बहती है। हालाँकि यह झरना सदियों से स्थानीय लोगों के लिए जाना जाता था, इसका अस्तित्व दुनिया को तब तक ज्ञात नहीं था, जब तक कि 2002 में एक जर्मन, स्टीफन ज़ेमेन्डोर्फ द्वारा किए गए एक अभियान के दौरान खोजा गया था। जिसे कई किलोमीटर दूर से देखा जा सकता है, को निकटतम बस्ती के नाम पर गोक्टा फॉल्स नाम दिया गया है।
मुताराज़ी फॉल्स मनिकालंद, जिम्बाब्वे 2,499
मुताराज़ी फॉल, जिम्बाब्वे में सबसे ऊंचा, अफ्रीका में दूसरा और दुनिया में 17 वां सबसे ऊंचा जलप्रपात है।
क्जेल्फोस्सें (Kjelfossen) सोगं ओग फ्जोर्दाने, नॉर्वे 2,477
Kjelfossen (अंग्रेज़ी: Kjell Falls) नॉर्वे के सबसे ऊंचे झरनों में से एक है। गिर वेस्टलैंड काउंटी में औरलैंड नगर पालिका में गुदवांगेन गांव के पास स्थित हैं। 705 मीटर (2,313 फीट) की कुल गिरावट के साथ, यह झरना दुनिया के 18 वें सबसे ऊंचे झरने के रूप में सूचीबद्ध है। सबसे लंबी सिंगल ड्रॉप 198 मीटर (650 फीट) है। झरने की ऊँचाई को कभी भी सही तरीके से नहीं मापा गया है, इसलिए इसकी वास्तविक ऊँचाई में विसंगतियाँ हैं। कुछ स्रोत इसे 840 मीटर (2,760 फीट) लंबा बताते हैं।
जोहानसबर्ग फॉल्स वाशिंगटन, संयुक्त राज्य अमरीका 2,465
जोहान्सबर्ग फॉल्स, एक लंबा, कम-मात्रा वाला झरना है जो जोहान्सबर्ग पर्वत पर कई छोटे अनाम ग्लेशियरों से लगभग 2,465 फीट (751 मीटर) की दूरी पर लंबवत है। इसकी सबसे प्रमुख विशेषता 800 फीट (240 मीटर) की अपनी अंतिम ऊर्ध्वाधर गिरावट है। कुल मिलाकर, यह दुनिया का 19 वां सबसे ऊंचा झरना है।
योसेमिते फॉल्स कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका 2,425
योसेमिते फॉल्स Yosemite Falls, Yosemite National Park का सबसे ऊंचा जलप्रपात है, जो ऊपरी प्रपात के ऊपरी भाग से निचले पतन के आधार तक कुल 2,425 फीट (739 मीटर) की दूरी पर है। कैलिफोर्निया के सिएरा नेवादा में स्थित, यह पार्क में एक प्रमुख आकर्षण है, विशेष रूप से देर से वसंत में जब पानी का प्रवाह अपने चरम पर होता है। जब इसकी सुंदरता देखने लायक होती है।
द ट्रॉ डे दंगल डे सलाजिए, रियूनियन 2,380
द ट्रॉ डे (“आयरन होल”) हिंद महासागर में मेडागास्कर के तट से दूर रीयूनियन द्वीप पर एक घाटी है। माध्यम से बहने वाली प्राथमिक नदी, जो 300 मीटर (1,000 फीट) तक गहरी है, ब्राई डे कावेर्न नदी है, जो रिवियेर डु एमएटी की एक सहायक नदी है। घाटी माज़रीन धारा के झरने पर शुरू होती है और बाईं ओर से लगभग 1.4 – 1.8 किमी की दूरी पर मुख्य ब्रास डे कावेर्न धारा में मिलती है। ब्रास डी कावेर्न नदी लगभग 200 मीटर (660 फीट) ऊंचे झरने के साथ घाटी में प्रवेश करती है।
ओल्माफॉसन मोरे ओग रोम्स्दल, नॉर्वे 2,362
ओल्माफॉसन (Ølmåafossen) नॉर्वे में सबसे ऊंचे झरनों में से एक है और रोस्टडेलन (रौमा) में स्थित है, जो कि अधिक और ओग पोम्स्डल क्षेत्र में nesndalsnes के दक्षिण में Marstein के पास स्थित है।
मनावैनुई फॉल्स हवाई, संयुक्त राज्य अमरीका 2,360
मनावैनुई फॉल्स जिसकी ऊंचाई 719 मीटर (2,359 फीट) है हवाई संयुक्त राज्य मे स्थिति विश्व के बड़े जलप्रपातों मे से एक है
क्जेराग्फोस्सें रोगालंद, नॉर्वे 2,345
क्जेराग्फोस्सें (Kjeragfossen) नॉर्वे के रोगालैंड काउंटी में सैंडन्स के नगर पालिका में एक झरना है। 715-मीटर (2,346 फीट) लंबा झरना कैसैग पठार से नीचे लेसेफजॉर्डेन के दक्षिण तट पर स्थित है। यह नॉर्वे में सबसे ऊंचे झरनों में से एक है और दुनिया में सबसे ऊंचा है। यह एक प्लंज शैली का झरना है जो आमतौर पर वर्ष के केवल 5 महीनों में सक्रिय होता है। झरना एक बहुत ही दर्शनीय क्षेत्र में स्थित है जिसमें हर साल कई पर्यटक आते हैं। प्रसिद्ध केजरबोलटेन बोल्डर पास में स्थित है।
हिमस्खलन बेसिन फॉल्स मोंटाना, संयुक्त राज्य अमरीका 2,320
हिमस्खलन बेसिन फॉल्स ग्लेशियर नेशनल पार्क में हिमस्खलन झील के सिर के नीचे डालने वाले महत्वपूर्ण झरनों में से सबसे उत्तरी है। फॉल्स को स्पेरी ग्लेशियर के सबसे उत्तरी भाग द्वारा खिलाया जाता है, साथ ही ऊपर के बेसिन में दर्जनों तार और बर्फ़ की धाराएं, एक विशाल हॉर्सटेल में लगभग 900 फीट नीचे गिरती हैं और पड़ोसी स्पेरी ग्लेशियर के समानांतर कोर्स में हेडवाल गिरती हैं। । इस जलप्रपात से थोड़ी दूरी पर धारा के रूप में स्मारक जलप्रपात बनता है,
हैरिसन बेसिन फॉल्स मोंटाना, संयुक्त राज्य अमरीका 2,320
हैरिसन ग्लेशियर पिघले पानी की एक महत्वपूर्ण मात्रा का उत्पादन करता है – कम से कम गर्मियों के महीनों के दौरान – और छह अलग-अलग धारा के रूप में आगे बढ़ता है जो हैरिसन बेसिन में कैस्केड करता है, जो सभी सैकड़ों फीट तक गिरते हैं। उन धाराओं में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण, इसमें लगभग 1,400 फीट की ऊँचाई से गिरने का एक प्रभावशाली सेट है, जो क्रमशः 490 फीट और 550 फीट की दो सरासर छलांग से बना है, जिसमें लगभग 300 ऊर्ध्वाधर फीट कैस्केड हैं। इस झरने को बनाने वाली धारा के साथ कई छोटी-छोटी जलधाराएँ अक्सर आपस में टकराती रहती हैं तब एक बहुत ही सुंदर दृश्य दिखाई देता है।
हलोकू फॉल्स हवाई, संयुक्त राज्य अमरीका 2,297
दुनिया के कुछ सबसे ऊँचे समुद्री तट मोलकोई द्वीप के उत्तरी तट के साथ फैले हुए हैं। सबसे ऊँची कुछ 4.2 किमी चौड़ी चट्टानें पेलेकुनु और वेलाउ घाटियों के बीच हैं, जो 1,010 मीटर की ऊँचाई तक पहुँचती हैं। यहाँ हल्कू फ़ॉल सहित कई शानदार और बेहद ऊंचे झरने स्थित हैं।
झील चेम्बरलेन फॉल्स दक्षिण द्वीप, न्यूजीलैंड 2,297
अल्फ्रेड क्रीक फॉल्स ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा 2,296
अल्फ्रेड क्रीक, एक समय में ग्लेशियर क्रीक के रूप में जाना जाता है, माउंट अल्फ्रेड के पूर्वी तट से बहने वाला एक नाला है, जो दक्षिण-पूर्व में स्केवाका नदी के निचले हिस्से में अपने मुंह के पास जर्विस इनलेट के सिर में घुसता है, जो ब्रिटिश के दक्षिण तट पर है कोलंबिया, कनाडा। यह अनौपचारिक रूप से नामित अल्फ्रेड क्रीक फॉल्स का स्थान है, जो एक जलोढ़ प्रशंसक पर एक विशाल चट्टान की दीवार से 700 मीटर (2,300 फीट) की दूरी पर स्थित है और उत्तरी अमेरिका के सबसे ऊंचे झरनों में से एक है।
दोंतेफोस्सें मोरे ओग रोम्स्दल, नॉर्वे 2,296
दोंतेफोस्सें (Døntefossen) Døntelva में एक झरना है, जो Muma और Ooms Romsdal में Rauma नगर पालिका में फ्लैटमार्क और वर्मा के बीच, Rauma की एक सहायक नदी है। झरने में चार फॉल हैं और इनमें से सबसे लंबा लगभग 200 मीटर लंबा है। झरने की ऊंचाई अनिश्चित है, लेकिन लगभग 700 मीटर के स्थलाकृतिक मानचित्रों पर आधारित है।
ब्रुफोसन होर्दालंद, नॉर्वे 2,289
ब्रुफोसन नॉर्वे और यूरोप में कुल गिरावट के आधार पर दसवां सबसे ऊंचा झरना है। वह हेर्दालैंड में किन्नरहाद नगरपालिका में बोंधुसाल्डेन में स्थित है। झरना फोल्गफोना के ठीक नीचे और बोंधुसब्रे के उत्तर में स्थित है। जलराशि अभी तक विकसित नहीं हुई है, लेकिन हाल ही में काउंटी समिति ने क्षेत्र में बोंधस पावर प्लांट के विकास के लिए लाइसेंस देने का फैसला किया है।

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मानव शरीर के अंगो के नाम हिंदी व अंग्रेजी में – Parts of Body Name in Hindi

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मानव शरीर के प्रमुख अंगो के नाम हिंदी में | Name of Body Parts in Hindi

मानव शरीर के अंगो के नाम की सूची: (Names of Human Body Parts in Hindi)

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यहाँ पर मानव के शरीर के अंगो के नाम हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषा में दिए गए है। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में शरीर के अंगो के नाम के आधार पर प्रश्न पूछे जाते है, इसलिए यह पोस्ट आपकी सभी प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे:- एसएससी, बैंक, शिक्षक, टीईटी, कैट, यूपीएससी, अन्य सरकारी परीक्षाओं की तैयारी के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। आइये जानते है मानव के शरीर के अंगो के नाम हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषा में:-

मानव शरीर के अंगो के नाम की सूची:

मानव शरीर के अंग Human Body Parts
अक्कल दाढ़ Densserotinous
अनामिका Ring finger
अंगुली (पैर की) Toe (foot)
अंगुली (हाथ की) Finger (hand)
अंगूठा Thumb
आँख Eye
आंत, अंतड़ी Intestine
उपास्थि Cartilage
ओंठ Lip
एडी Heel
कंधा Shoulder
कनपटी Temple
कमर Waist
कर्णपटल Eardrum
कलाई Wrist
कान Ear
कानी अंगुली Little Finger
कांख, बगल Armpit
कोहनी Elbow
खोपड़ी Skull
गर्दन,ग्रीवा Neck
गर्भाशय Uterus,Womb
गालमुच्छ Whiskers
गला Throat
गाल Cheeks
गुदा Anus
गुर्दा, वृक्क Kidney, renal
गोद Lap
घुटना Knee
चमड़ा Leather
चूची Nipple
चूतड़ Rump
चेहरा Face
छाती (पुरुष की) Chest
छाती (स्त्री की) Breast
जठर, आमाशय stomach
जबड़ा Jaw
जांघ Thigh
जिगर Liver
जीभ Tongue
जुड़ा बालों का Bun
टखना Ankle
जोड़ Joint
ठुड्डी Chin
तर्जनी Index
तलवा Sole
तालू Palate
थूथन Snout
दाढ़ (चबाने वाले दांत) Molar Teeth
दाढी Beard
दांत, दंत Teeth
दिमाग Brain
धमनी Artery
नख या नाखून Nail or nails
नथुना Nostril
नस Vein
नाक Nose
नाड़ी Pulse
नाभि Navel
निगल नली Gullet
पलक Eyelid
प्लीहा Spleen
पिंडली Calf
पित्त Bile
पीठ Back
पेट (बाहरी) Abdominal (external)
पेट (भीतरी) Belly (inner)
पेट Stomach
पुतली (आंख की) Eyeball
पेशी Muscle
पैर Foot
फेफड़ा, फुफ्फस Lung, fuffs
बगल Armpit
बरौनी Eyelash
बाल Hair
बांह Arm
भग Vagina
भगनास Glans clitoris
भ्रूण Embryo
भौंह भृकुटि Eyebrow
मध्यमिक अंगुली Middle Finger
मसूड़ा Gum
मस्तिष्क Brain
मुट्ठी Fist
मुख Mouth
मूत्राशय Urinary Bladder
मूंछ Mustache
योनि Vagina
रग Nerve
रोमकूप Pore
रौवा Hair
लट Lock
ललाट Forehead
लार Saliva
लिंग (शिश्न) Penis
लोहू Blood
श्वास नली, कंठनाल Trachea
शिश्न मुंड Glans Penis
स्कन्ध, मध्य धड़ Trunk
हड्डी Bone
हथेली Palm
हंसुली की हड्डी Collar bone
हृदय Heart
हृदयवरण Pericardium
हाथ Hand

इन्हें भी पढे: मानव शरीर में होने वाले विभिन्न प्रकार के रोग एवं उनके लक्षण

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औषधीय पौधों के नाम व उपयोग – Names and Uses of Medicinal Plants

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औषधीय पौधों के नाम व उपयोग - Names and Uses of Medicinal Plants

औषधीय पौधे

औषधीय पौधों को भोजन, औषधि, खुशबू, स्वाद, रंजक और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में अन्य मदों के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय पौधों का महत्व उसमें पाए जाने वाले रसायन के कारण होता है। औषधीय पौधों का उपयोग मानसिक रोगों, मिर्गी, पागलपन तथा मंद-बुद्घि के उपचार में किया जाता है। औषधीय पौधे कफ एवं वात का शमन करने, पीलिया, आँव, हैजा, फेफड़ा, अण्डकोष, तंत्रिका विकार, दीपन, पाचन, उन्माद, रक्त शोधक, ज्वर नाशक, स्मृति एवं बुद्घि का विकास करने, मधुमेह, मलेरिया एवं बलवर्धक, त्वचा रोगों एवं ज्वर आदि में लाभकारी हैं।

सुगंध पौधों का महत्व:

दुनिया भर में चिकित्सा प्रणाली मुख्य रूप से दो अलग-अलग धाराओं के माध्यम से काम करती है:- (1) स्थानीय या आदिवासी धारा और (2) कोडित और संगठित चिकित्सा प्रणाली [जैसे- आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और अम्ची (तिब्बती औषधि)]। औषधीय पौधों को भोजन, औषधि, खुशबू, स्वाद, रंजक और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में अन्य मदों के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय पौधों का महत्व उसमें पाए जाने वाले रसायन के कारण होता है। औषधीय पौधों का उपयोग मानसिक रोगों, मिर्गी, पागलपन तथा मन्द-बुद्घि के उपचार में किया जाता है। औषधीय पौधे कफ एवं वात का शमन करने, पीलिया, आँव, हैजा, फेफड़ा, अण्डकोष, तंत्रिका विकार, दीपन, पाचन, उन्माद, रक्त शोधक, ज्वर नाशक, स्मृति एवं बुद्घि का विकास करने, मधुमेह, मलेरिया एवं बलवर्धक, त्वचा रोगों एवं ज्वर आदि में लाभकारी हैं।

भारत में इन पौधों की खेती के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। आज इन पौधों को खेती के बड़े पैमाने पर वैकल्पिक औषधि एवं सुगंध के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों के लिए वैश्विक/राष्ट्रीय बाज़ार की उपलब्धता का होना भी इन पौधों की खेती के लिए उत्तम है। भारत में इन पौधों की खेती के लिए कृषि-प्रौद्योगिकियों, प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता का होना भी खेती करने के लिए कृषकों को आसान बनाता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती से टिकाऊ आधार पर लाभप्रद रिटर्न प्राप्त किया जा सकता है। भारत में उत्पादन होने वाला सुगंध पौधों का तेल फ्रांस, इटली, जर्मनी व संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात किया जाता है। आज देश के हजारों किसान औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती करके अधिक मुनाफा कमा सकते हैं, जिससे उनकी आय में वृद्धि होगी।

औषधीय पौधे के नाम व उपयोग

अंकोल एक पेड़, जो सारे भारतवर्ष में प्रायः पहाड़ी जमीन पर होता है। यह शरीफे के पेड़ से मिलता-जुलता है। इसमें बेर के बराबर गोल फल लगते हैं, जो पकने पर काले हो जाते हैं। छिलका हटाने पर इसके भीतर बीज पर लिपटा हुआ सफेद गूदा होता है, जो खाने में कुछ मीठा होता है। इस पेड़ की लकढ़ी कड़ी होती है और छड़ी आदि बनाने के काम में आती है। इसकी जड़ की छाल दस्त लाने, वमन कराने, कोढ़ और उपदंश आदि चर्म रोगों को दूर करने तथा सर्प आदि विषैले जंतुओं के विष को हटाने में उपयोगी मानी जाती है।

वनस्पतिशास्त्र की भाषा में इसे एलैजियम सैल्बीफोलियम या एलैजियम लामार्की भी कहते हैं। वैसे विभिन्न भाषाओं में इसके विभिन्न नाम हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • संस्कृत: अंकोट, दीर्घकील
  • हिंदी: दक्षिणी ढेरा, ढेरा, थेल, अंकूल ; सहारनपुर क्षेत्र- विसमार
  • बँगला: आँकोड़
  • मराठी: आंकुल
  • गुजराती: ओबला
  • कोल: अंकोल
  • संथाली: ढेला।

औषधीय गुण: इस पौधे की जड़ में 0.8 प्रतिशत अंकोटीन नामक पदार्थ पाया जाता है। इसके तेल में भी 0.2 प्रतिशत यह पदार्थ पाया जाता है। अपने रोग नाशक गुणों के कारण यह पौधा चिकित्साशास्त्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। रक्तचाप को कम करने में इसका पूर्ण बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। हिमालय की तराई, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, दक्षिण भारत एवं बर्मा आदि क्षेत्रों में यह पौधा आसानी से पाया जाता है।

2. अजवायन:

अजवायन तीन भिन्न प्रकार की वनस्पतियों को कहते हैं। एस केवल अजवायन (कैरम कॉप्टिकम), दूसरी खुरासानी अजवायन तथा तीसरी जंगली अजवायन (सेसेली इंडिका) कहलाती है। इसकी खेती समस्त भारतवर्ष में, विशेषकर बंगाल में होती है। मिस्र, ईरान तथा अफ़गानिस्तान में भी यह पौधा होता है। अक्तूबर, नवंबर में यह बोया जाता है और डेढ़ हाथ तक ऊँचा होता है। इसका बीज अजवायन के नाम से बाजार में बिकता है।

औषधीय गुण: अजवायन के बहुत से गुण हैं। इसे अपने साथ यात्रा में भी रखा जा सकता है। इसका प्रयोग रोगों के अनुसार कई प्रकार से होता है। यह मसाला, चूर्ण, काढ़ा, क्वाथ और अर्क के रूप में भी काम में लायी जाती है। इसका चूर्ण बनाकर व आठवाँ हिस्सा सेंधा नमक मिलाकर 2 ग्राम की मात्रा में जल के साथ सेवन किया जाये तो पेट में दर्द, मन्दाग्नि, अपच, अफरा, अजीर्ण तथा दस्त में लाभकारी होती है। इसका सेवन दिन में तीन बार करना चाहिए।

अजवायन खाने फायदे:

  1. कान का दर्द: अजवायन के तेल 10 बूँद में शुद्ध सरसों का तेल 30 बूँद मिलाये. फिर उसे धीमी आग पर गुनगुना करके दर्द वाले कान में 4-5 बूँद डालकर, ऊपर से साफ़ रुई का फाहा लगा दे. बाल और अजवायन मिलाकर पोटली बना ले, उस पोटली से सिकाई भी करे. दिन में 2-3 बार यह प्रयोग करने से लाभ हो जायेगा.
  2. पथ्य: पतला दलिया, हलुआ या कफ-नाशक पदार्थो का सेवन कराये. बासी व गरिष्ठ भोजन न दे.
  3. दातो में दर्द: अजवायन के तेल में भीगे हुए रुई के फाहे को रोग-ग्रस्त दात पर लगाकर, मुख नीचे करके लार टपकाने से दर्द बंद हो जाता है.
  4. संधि-शूल: शरीर के जोड़ो में किसी भी प्रकार का दर्द होने पर अजवायन के तेल की मालिश करनी चाहिए.
  5. ह्रदय-शूल: अजवायन खिलाते ही ह्रदय में होने वाला दर्द शांत होकर ह्रदय में उत्तेजना बढ़ जाती है.
  6. उदर-शूल या पेट में दर्द होना: अजवायन 3 ग्राम में थोडा पिसा नमक मिलाकर ताजा गरम पानी से फंकी देने से पेट का दर्द बंद हो जाता है. प्लीहा की विकृति दूर हो जाती है तथा पतले दस्त भी बंद हो जाते है.
  7. गले की सूजन: अजवायन के तेल की 5-6 बूंदों को 5 ग्राम शहद में मिलाकर दिन में 3-4 बार तक चाटे. साथ ही थोड़े से अजवायन के चूर्ण को नमक मिले हुए गरम जल में घोलकर उस जल से गरारे भी करने चाहिए. भूख लगने पर भुने हुए आटे का (नमकीन अजवायन भी डाले) हलुआ खाए. बलगम व वायुवर्धक, बासी, गरिष्ठ पदार्थो का सेवन न करे तथा ऊनी वस्त्र आदि से गर्दन व कर्णमूल को ढक ले ताकि रोगी को उचित लाभ मिल सके.

3. अदरक:

अदरक जिंजीबरेसी कुल का पौधा है। वनस्पति शास्त्र की भाषा में इसे जिंजिबर ऑफ़िसिनेल (Zingiber officinale) नाम दिया गया है। इस कुल में लगभग 47 जेनरा और 1150 जातियाँ (स्पीशीज़) पाई जाती हैं। इसका पौधा अधिकतर उष्णकटिबंधीय (ट्रापिकल्स) और शीतोष्ण कटिबंध (सबट्रापिकल) भागों में पाया जाता है। अदरक को अंग्रेज़ी में जिंजर, संस्कृत में आद्रक, हिंदी में अदरख, मराठी में आदा के नाम से जाना जाता है। गीले स्वरूप में इसे अदरक तो सूखने पर इसे सौंठ (शुष्ठी) कहते हैं। यह भारत में बंगाल, बिहार, चेन्नई, कोचीन, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अधिक उत्पन्न होती है। अदरक का कोई बीज नहीं होता, इसके कंद के ही छोटे-छोटे टुकड़े ज़मीन में गाड़ दिए जाते हैं। यह एक पौधे की जड़ है। यह भारत में एक मसाले के रूप में प्रमुख है। अदरक का पौधा चीन, जापान, मसकराइन और प्रशांत महासागर के द्वीपों में भी मिलता है। इसके पौधे में सिमपोडियल राइजोम पाया जाता है।

अदरक के औषधीय प्रयोग:

  1. एक गिलास गरम पानी में एक चम्मच अदरक का रस मिलाकर कुल्ले करने से मुंह से दुर्गंध आनी बंद हो जाती है।
  2. सर्दी के कारण सिरदर्द हो तो सोंठ को घी या पानी में घिसकर सिर पर लेप करने से आराम मिलता है।
  3. पेट दर्द में एक ग्राम पिसी हुई सोंठ, थोड़ी सी हींग और सेंधा नमक की फंकी गरम पानी के साथ लेने से फ़ायदा होता है।
  4. आधा कप उबलते हुए गरम पानी में एक चम्मच अदरक का रस मिलाकर एक-एक घंटे के अंतराल पर पीने से पानी की तरह हो रहे पतले दस्त पूरी तरह बंद हो जाते हैं।
  5. अदरक का रस और पानी बराबर मात्रा में पीने से हृदय रोग में लाभ होता है।
  6. सोंठ का चूर्ण छाछ में मिलाकर पीने से अर्श (बवासीर) मस्से में लाभ होता है।
  7. पाचन की समस्या होने पर रोजाना सुबह अदरक का एक टुकड़ा खाएं। ऐसा करने से आपको बदहजमी नहीं होगी। इसके अलावा सीने की जलन दूर करने में भी अदरक मददगार साबित होता है।
  8. शरीर में वसा का स्तर कम करने में भी अदरक काफ़ी मददगार है।
  9. यदि आपको खांसी के साथ कफ की भी शिकायत है तो रात को सोते समय दूध में अदरक डालकर उबालकर पिएं। यह प्रक्रिया क़रीब 15 दिनों तक अपनाएं। इससे सीने में जमा कफ आसानी से बाहर निकल आएगा।
  10. ताजे अदरक को पीसकर कप़ड़े में डाल लें और निचोड़कर रस निकालकर रोगी को पीने को दें।
  11. भोजन से पूर्व अदरक की कतरन में नमक डालकर खाने से खुलकर भूख लगती है, खाने में रुचि पैदा होती है, कफ व वायु के रोग नहीं होते एवं कंठ व जीभ की शुद्धि होती है।
  12. अदरक और प्याज का रस समान मात्रा में पीने से उल्टी (वमन) होना बंद हो जाता है।
  13. सर्दियों में अदरक को गुड़ में मिलाकर खाने से सर्दी कम लगती है तथा शरीर में गर्मी पैदा होती है। सर्दी लगकर होने वाली खांसी का कफ वाली खांसी की यह अचूक दवा है।
  14. अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े मुंह में रखकर चूसने से हिचकियां आनी बंद हो जाती हैं।
  15. सर्दी के कारण होने वाले दांत व दाढ़ के दर्द में अदरक के टुकड़े दबाकर रस चूसने से लाभ होता है।

4. अनंतमूल:

अनंतमूल (अंग्रेज़ी नाम: Indian Sarsaparilla और वानस्पतिक नाम नाम: Hemidesmus indicus) एक बेल है, जो लगभग सारे भारतवर्ष में पाई जाती है। इनमें सुगंध एक उड़नशील सुगंधित द्रव्य के कारण होती है, जिस पर इस औषधि के समस्त गुण अवलंबित प्रतीत होते हैं। इनकी जडें औषधि बनाने के काम में आती हैं।

अनंतमूल का औषधीय उपयोग: आयर्वैदिक रक्तशोशक औषधियों में इसी का प्रयोग किया जाता हैं। काढ़े या पाक के रूप में अनंतमूल दिया जाता है। आयुर्वेद के मतानुसार यह सूजन कम करती है, मूत्ररेचक है, अग्निमांद्य, ज्वर, रक्तदोष, उपदंश, कुष्ठ, गठिया, सर्पदंश, वृश्चिकदंश इत्यादि में उपयोगी हैं।

5. अरण्यतुलसी:

अरण्यतुलसी का पौधा ऊँचाई में आठ फुटतक, सीधा और डालियों से भरा होता है। छाल खाकी, पत्ते चार इंच तक लंबे और दोनों ओर चिकने होते हैं। यह बंगाल, नैपाल, आसाम की पहाड़ियों, पूर्वी नैपाल और सिंध में मिलता है। यह श्वेत (ऐल्बम) और काला (ग्रैटिसिमम) दो प्रकार का होता है। इसके पत्तों को हाथ से मलने पर तेज सुगंध निकलती है।

अरण्यतुलसी का औषधीय उपयोग: आयुर्वेद में इसके पत्तों को वात, कफ, नेत्ररोग, वमन, मूर्छा अग्निविसर्प (एरिसिपलस), प्रदाह (जलन) और पथरी रोग में लाभदायक कहा गया है। ये पत्ते सुखपूर्वक प्रसव कराने तथा हृदय को भी हितकारक माने गए हैं। इन्हें पेट के फूलने को दूर करने वाला, उत्तेजक, शांतिदायक तथा मूत्रनिस्सारक समझा जाता है। रासायनिक विश्लेषण से इनमें थायमोल, यूगेनल तथा एक अन्य उड़नशील (एसेंशियल) तेल मिले हैं।

6. अश्वगंधा

अश्वगंधा (वानस्पतिक नाम: ‘विथानिआ सोमनीफ़ेरा’ – Withania somnifera) एक झाड़ीदार रोमयुक्त पौधा है। कहने को तो अश्वगंधा एक पौधा है, लेकिन यह बहुवर्षीय पौधा पौष्टिक जड़ों से युक्त है। अश्वगंधा के बीज, फल एवं छाल का विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है। इसे ‘असंगध’ एवं ‘बाराहरकर्णी’ भी कहते हैं। अश्वगंधा की कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है, इसीलिए भी इसे ‘अश्वगंधा’ या ‘वाजिगंधा’ कहा जाता है। इसका सेवन करते रहने से अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है, अतः इसका नाम सार्थक है। सूख जाने पर अश्वगंधा की गंध कम हो जाती है।

अश्वगंधा का औषधीय उपयोग: 

  1. अश्वगंधा के पौधे को पीसकर लेप बनाकर लगाने से शरीर की सूजन, शरीर की किसी विकृत ग्रंथि और किसी भी तरह के फुंसी-फोड़े को हटाने में काम आती है।
  2. पोधे की पत्तियों को घी, शहद, पीपल इत्यादि के साथ मिलाकर सेवन करने से शरीर निरोग रहता है।
  3. यदि किसी को चर्म रोग है तो उसके लिए भी अश्वगंधा जड़ी-बूटी बहुत लाभकरी है। इसका चूर्ण बनाकर तेल से साथ लगाने से चर्म रोग से निजात पाई जा सकती है।
  4. उच्च रक्तचाप की समस्या से पीडि़त लोग यदि अश्वगंधा के चूर्ण का दूध के साथ नियमित सेवन करेंगे तो निश्चित तौर पर उनका रक्तचाप सामान्य‍ हो जाएगा।
  5. शरीर में कमज़ोरी या दुर्बलता को भी अश्वगंधा तेल से मालिश कर दूर किया जा सकता है, इतना ही नहीं गैस संबंधी समस्या में भी ये पौधा अत्यंत लाभदायक होता है।

7. आंवला:

आंवला एक फल देने वाला वृक्ष है। यह लगभग 20 से 25 फुट लंबा झारीय पौधा होता है। यह एशिया के अलावा यूरोप और अफ़्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्रायद्वीपीय भारत में आंवला के पौधे बहुत बड़ी मात्रा में मिलते हैं। इसके फूल घंटे की तरह होते हैं। इसके फल सामान्यरूप से छोटे होते हैं, लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गुदेदार होते हैं। आंवले को मनुष्य के लिए प्रकृति का वरदान कहा जाता है। आंवला या इंडियन गूसबेरी एक देशज फल है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति और विकास मुख्य रूप से भारत में मानी जाती है। आंवले का पेड़ भारत के प्राय: सभी प्रांतों में पैदा होता है।

आंवला का औषधीय उपयोग: आयुर्वेद में आंवले को बहुत महत्ता प्रदान की गई है, जिससे इसे रसायन माना जाता है। च्यवनप्राश आयुर्वेद का प्रसिद्ध रसायन है, जो टॉनिक के रूप में आम आदमी भी प्रयोग करता है। इसमें आंवले की अधिकता के कारण ही विटामिन ‘सी’ भरपूर होता है। यह शरीर में आरोग्य शक्ति बढ़ाता है। त्वचा, नेत्र रोग और केश (बालों) के लिए विटामिन सी बहुत उपयोगी है। संक्रमण से बचाने, मसूढ़ों को स्वस्थ रखने, घाव भरने और रक्त बनाने में भी विटामिन सी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके अलावा आंवला का उपयोग त्रिफला बनाने में किया जाता है जो कब्ज या पेट में गैस की समस्या को दूर करने के लिए उपयुक्त दवा है। त्रिफला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के साथ ही शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता को भी बढाता है। इस फल में आयरन व कैल्शियम भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। आयरन रक्त को बढ़ाता है। आंवला आयुर्वेद और यूनानी पैथी की प्रसिद्ध दवाइयों, च्यवन प्राश, ब्राह्म रसायन, धात्री रसायन, अनोशदारू, त्रिफला रसायन, आमलकी रसायन, त्रिफला चूर्ण, धायरिष्ट, त्रिफलारिष्ट, त्रिफला घृत आदि के साथ मुरब्बे, शर्बत, केश तेल आदि निर्माण में प्रयुक्त होता है।

8. इमली:

इमली पादप कुल फैबेसी का एक वृक्ष है। इसके फल लाल से भूरे रंग के होते हैं, तथा स्वाद में बहुत खट्टे होते हैं। इमली का पेड़ सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसके अलावा यह अमेरिका, अफ्रीका और कई एशियाई देशों में पाया जाता है। इमली के पेड़ बहुत बड़े होते हैं। 8 वर्ष के बाद इमली का पेड़ फल देने लगता है। फरवरी और मार्च के महीनों में इमली पक जाती है। इमली शाक (सब्जी), दाल, चटनी आदि कई चीजों में डाली जाती है। इमली का स्वाद खट्टा होने के कारण यह मुंह को साफ़ करती है। पुरानी इमली नई इमली से अधिक गुणकारी होती है। इमली के पत्तों का शाक (सब्जी) और फूलों की चटनी बनाई जाती है। इमली की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। इस कारण लोग इसकी लकड़ी से कुल्हाड़ी आदि के दस्ते भी बनाते हैं।

इमली का औषधीय उपयोग: पके हुए फल का गूदा पित्त की उल्टी, कब्ज, वायु विकार, अपचन के इलाज में लाभदायक है। पानी के साथ इसके गूदे को कोमल करके बनाया हुआ अर्क भूख में कमी होने में फायदा पहुंचाता है। यह बीमारी विटामिन सी की कमी से होने वाला रोग है, जिससे त्वचा में धब्बे आ जाते हैं, मसूड़े स्पंजी हो जाते हैं और श्लेष्मा झिल्ली से रक्त बहता है। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति पीला और उदास दिखता है। इमली में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह स्कर्वी के इलाज में लाभदायक है।

9. केसर:

केसर का वानस्पतिक नाम क्रोकस सैटाइवस (Crocus sativus) है। अंग्रेज़ी में इसे सैफरन (saffron) नाम से जाना जाता है। यह इरिडेसी (Iridaceae) कुल का क्षुद्र वनस्पति है जिसका मूल स्थान दक्षिण यूरोप है। ‘आइरिस’ परिवार का यह सदस्य लगभग 80 प्रजातियों में विश्व के विभिन्न भू-भागों में पाया जाता है। विश्व में केसर उगाने वाले प्रमुख देश हैं – फ्रांस, स्पेन, भारत, ईरान, इटली, ग्रीस, जर्मनी, जापान, रूस, आस्ट्रिया, तुर्किस्तान, चीन, पाकिस्तान के क्वेटा एवं स्विटज़रलैंड। आज सबसे अधिक केसर उगाने का श्रेय स्पेन को जाता है, इसके बाद ईरान को। कुल उत्पादन का 80% इन दोनों देशों में उगाया जा रहा है, जो लगभग 300 टन प्रतिवर्ष है।

केसर का औषधीय उपयोग:

  1. केसर का उपयोग आयुर्वेदिक नुस्खों में, खाद्य व्यंजनों में और देव पूजा आदि में तो केसर का उपयोग होता ही था पर अब पान मसालों और गुटकों में भी इसका उपयोग होने लगा है। केसर बहुत ही उपयोगी गुणों से युक्त होती है। यह कफ नाशक, मन को प्रसन्न करने वाली, मस्तिष्क को बल देने वाली, हृदय और रक्त के लिए हितकारी, तथा खाद्य पदार्थ और पेय (जैसे दूध) को रंगीन और सुगन्धित करने वाली होती है।
  2. चिकित्सा में यह उष्णवीर्य, आर्तवजनक, वात-कफ-नाशक और वेदनास्थापक माना गया है। अत: पीड़ितार्तव, सर्दी जुकाम तथा शिर:शूलादि में प्रयुक्त होता है। यह उत्तेजक, वाजीकारक, यौनशक्ति बनाए रखने वाली, कामोत्तेजक, त्रिदोष नाशक, आक्षेपहर, वातशूल शामक, दीपक, पाचक, रुचिकर, मासिक धर्म साफ़ लाने वाली, गर्भाशय व योनि संकोचन, त्वचा का रंग उज्ज्वल करने वाली, रक्तशोधक, धातु पौष्टिक, प्रदर और निम्न रक्तचाप को ठीक करने वाली, कफ नाशक, मन को प्रसन्न करने वाली, वातनाड़ियों के लिए शामक, बल्य, वृष्य, मूत्रल, स्तन (दूध) वर्द्धक, मस्तिष्क को बल देने वाली, हृदय और रक्त के लिए हितकारी, तथा खाद्य पदार्थ और पेय (जैसे दूध) को रंगीन और सुगन्धित करने वाली होती है।
  3. आयुर्वेदों के अनुसार केसर उत्तेजक होती है और कामशक्ति को बढ़ाती है। यह मूत्राशय, तिल्ली, यकृत (लीवर), मस्तिष्क व नेत्रों की तकलीफों में भी लाभकारी होती है। प्रदाह को दूर करने का गुण भी इसमें पाया जाता है।

10. नीम:

नीम एक चमत्कारी वृक्ष माना जाता है। नीम जो प्रायः सर्व सुलभ वृक्ष आसानी से मिल जाता है। नीम के पेड़ पूरे दक्षिण एशिया में फैले हैं और हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं। नीम एक बहुत ही अच्छी वनस्पति है जो कि भारतीय पर्यावरण के अनुकूल है और भारत में बहुतायत में पाया जाता है। भारत में इसके औषधीय गुणों की जानकारी हज़ारों सालों से रही है।

नीम का औषधीय उपयोग:

  1. नीम के तेल से मालिश करने से विभिन्न प्रकार के चर्म रोग ठीक हो जाते हैं।
  2. नीम का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों के निवारण में सहायक है।
  3. नीम की दातुन करने से दांत व मसूढे मज़बूत होते है और दांतों में कीडा नहीं लगता है, तथा मुंह से दुर्गंध आना बंद हो जाता है।
  4. इसमें दोगुना पिसा सेंधा नमक मिलाकर मंजन करने से पायरिया, दांत-दाढ़ का दर्द आदि दूर हो जाता है।
  5. नीम की कोपलों को पानी में उबालकर कुल्ले करने से दाँतों का दर्द जाता रहता है।
  6. नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और चमकदार होती है।
  7. नीम की पत्तियों को पानी में उबालकर और पानी ठंडा करके उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं, और ये ख़ासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।
  8. चेचक होने पर रोगी को नीम की पत्तियों बिछाकर उस पर लिटाएं।
  9. नीम की छाल के काढे में धनिया और सौंठ का चूर्ण मिलाकर पीने से मलेरिया रोग में जल्दी लाभ होता है।
  10. नीम मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को दूर रखने में अत्यन्त सहायक है। जिस वातावरण में नीम के पेड़ रहते हैं, वहाँ मलेरिया नहीं फैलता है। नीम के पत्ते जलाकर रात को धुआं करने से मच्छर नष्ट हो जाते हैं और विषम ज्वर (मलेरिया) से बचाव होता है।
  11. नीम के फल (छोटा सा) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये तो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
  12. नीम के द्वारा बनाया गया लेप वालों में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं।
  13. नीम और बेर के पत्तों को पानी में उबालें, ठंण्डा होने पर इससे बाल, धोयें स्नान करें कुछ दिनों तक प्रयोग करने से बाल झडने बन्द हो जायेगें व बाल काले व मज़बूत रहेंगें।

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भौतिक राशियाँ, मानक एवं उनके मात्रको की सूची

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भौतिक राशियाँ, मानक एवं मात्रक | Physical Quantities and their units in Hindi

भौतिक राशियाँ, मानक एवं मात्रको की सूची: (Physical Quantities and their units in Hindi)

भौतिक राशियाँ किसे कहते है?

भौतिक राशियाँ : वे सभी राशियाँ जिन्हें हम एक संख्या द्वारा व्यक्त कर सकते हैं तथा प्रत्यक्ष रूप से माप सकते हैं । उन्हें हम भौतिक राशियाँ कहते हैं । जैसे—वस्तु का द्रव्यमान, लम्बाई, बल, चाल, दूरी, विद्युत् धारा, घनत्व आदि।

भौतिक राशियाँ कितने प्रकार की होती है?

भौतिक राशियों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:

  1. अदिश (Scalar) राशियाँ।
  2. सदिश (vector) राशियाँ।

1. अदिश राशियाँ: वैसी भौतिक राशियाँ जिनमें केवल परिमाण (magnitude) होता है, दिशा (direction) नहीं होती है, उन्हें अदिश राशि कहते हैं। जैसे- द्रव्यमान, घनत्व, तापमान, विद्युत् धारा, समय, चाल, आयतन, कार्य आदि।

2. सदिश राशियाँ: वैसी भौतिक राशियाँ जिनमें परिमाण के साथ-साथ दिशा भी होती है और जो योग के निश्चित नियमों के अनुसार जोड़ी जाती हैं, उन्हें सदिश राशि कहते हैं। जैसे- वेग, विस्थापन, बल, संवेग, त्वरण, बल आघूर्ण, विद्युत् तीव्रता आदि।

मापन किसे कहते है?

मापन (Measurement): वह प्रक्रिया जिसमें हम यह पता करते हैं कि कोई दी हुई राशि किसी मानक राशि का कितने गुना हैं, मापन कहलाता है। ऊपर के चित्र को यदि आप ध्यान पूर्वक देखेंगे तो आप पायेंगे की 1 मीटर यदि मानक है, तो इस मानक से यदि पेड़ की तुलना की जाए तो आप पायेंगे कि पेड़ की लम्बाई इस मानक से 4 गुनी है | अब हम कह सकते हैं कि किसी भौतिक राशि का मान ज्ञात करने के लिए किसी मानक से तुलना करना ही मापन है।

मात्रक किसे कहते है?

मात्रक (Unit): किसी भौतिक राशि के एक नियत परिमाण को मानक (Standard) मान लिया जाता है तथा इस पर परिणाम का संख्यात्मक मान 1 माना जाता है। इस मानक के नाम को उस राशि का मात्रक कहते हैं।

माप के मात्रक/इकाई (Unites of Measurement): किसी भी राशि की माप करने के लिए उसी राशि के एक परिमाण को मानक मान लिया जाता है और उसे कोई नाम दे दिया जाता है। इसी को उस राशि का मात्रक कहते हैं।

मात्रक के प्रकार:

मात्रक दो प्रकार के होते हैं:- (i) मूल मात्रक (ii) व्युत्पन्न मात्रक।

  • मूल मात्रक/इकाई: किसी भौतिक राशि को व्यक्त करने के लिए कुछ ऐसे मानकों का प्रयोग किया जाता है, जो अन्य मानकों से स्वतंत्र होते हैं, इन्हें मूल मात्रक कहते हैं। जैसे- लम्बाई, समय और द्रव्यमान के मात्रक क्रमशः मीटर, सेकेण्ड एवं किलोग्राम मूल मात्रक हैं।
  • व्युत्पन्न मात्रक/इकाई: किसी भौतिक राशि को जब दो या दो से अधिक मूल इकाईयों में व्यक्त किया जाता है, तो उसे व्युत्पन्न इकाई कहते हैं। जैसे- बल, दाब, कार्य एवं विभव के लिए क्रमशः न्यूटन, पास्कल, जूल एवं वोल्ट व्युत्पन्न मात्रक हैं।

मात्रक पद्धतियां (System of Unites): भौतिक राशियों के मापन के लिए निम्नलिखित चार पद्धतियां प्रचलित हैं:-

  • CGS पद्धति (Centimetre Gram Second System): इस पद्धति में लम्बाई, द्रव्यमान तथा समय का मात्रक क्रमशः सेंटीमीटर, ग्राम और सेकेण्ड होता है। इसलिए इसे Centimetre Gram Second या CGS पद्धति कहते हैं। इसे फ्रेंच या मीट्रिक पद्धति भी कहते हैं।
  • FPS पद्धति (Foot, Pound, Second System): इस पद्धति में लम्बाई, द्रव्यमान तथा समय का मात्रक क्रमशः फुट, पाउण्ड और सेकेण्ड होता है। इसे ब्रिटिश पद्धति भी कहते हैं।
  • MKS पद्धति (Metre Kilogram Second System): इस पद्धति में लम्बाई, द्रव्यमान तथा समय का मात्रक क्रमशः मीटर, किलोग्राम और सेकेण्ड होता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मात्रक पद्धति (International System of Units or S.I. Units): 1960 ई. में अंतर्राष्ट्रीय माप-तौल के अधिवेशन में SI को स्वीकार किया गया जिसका पूरा नाम de Systeme International d’ Units है। इस पद्धति में सात मूल मात्रक तथा दो सम्पूरक मात्रक हैं।

SI के सात मूल मात्रक निम्न हैं:

  1. लम्बाई का मूल मात्रक ‘मीटर’: SI unit में लम्बाई का मूल मात्रक मीटर है। 1 मीटर वह दूरी है, जिसे प्रकाश निर्वात में 1/299792458 सेकेण्ड में तय करता है।
  2. द्रव्यमानका मूल मात्रक ‘किलोग्राम’: फ्रांस के सेवरिस नामक स्थान पर माप-तौल के अंतर्राष्ट्रीय माप तौल ब्यूरो में सुरक्षित रखे प्लेटिनम-इरीडियम मिश्रधातु के बने हुए बेलन के द्रव्यमान को मानक किलोग्राम कहते हैं। इसे संकेत में किग्रा. (Kg) लिखते हैं।
  3. समयका मूल मात्रक ‘सेकेण्ड’: सीजियम-133 परमाणु की मूल अवस्था के दो निश्चित ऊर्जा स्तरों के बीच संक्रमण से उत्पन्न विकिरण के 9192631770 आवर्तकालों की अवधि को 1 सेकेण्ड कहते हैं।
  4. विद्युत्-धारा का मूल मात्रक ‘ऐम्पियर’: यदि दो लम्बे और पतले तारों को निर्वात में 1 मीटर की दूरी पर एक-दूसरे के सामानांतर रखा जाए और उनमें ऐसे परिमाण की सामान विद्युत् धारा प्रवाहित की जाए जिससे तारों के बीच प्रति मीटर लम्बाई में 2 x 10-7 न्यूटन का बल लगने लगे तो विद्युत् धारा के उस परिमाण को 1 ऐम्पियर कहा जाता है। इसका प्रतीक A है।
  5. तापका मूल मात्रक ‘केल्विन’: जल के त्रिक बिंदु (triple point) के उष्मागतिक ताप के 1/273.16 वें भाग को केल्विन कहते हैं। इसका प्रतीक K होता है।
  6. ज्योति-तीव्रता का मूल मात्रक ‘कैण्डेला’: किसी निश्चित दिशा में किसी प्रकाश स्रोत की ज्योति-तीव्रता 1 कैण्डेला तब कही जाती है, जब यह स्रोत उस दिशा में 540 x 1012 हर्ट्ज़ का तथा 1/ 683 वाट/स्टेरेडियन तीव्रता का एकवर्णीय प्रकाश उत्सर्जित करता है।

नोट: यदि घन कोण के अन्दर प्रति सेकेण्ड 1 जूल प्रकाश प्रकाश उर्जा उत्सर्जित हो, तो उसे 1 वाट/स्टेरेडियन कहते हैं।

  1. पदार्थ की मात्रा का मूल मात्रक ‘मोल’: एक मोल, पदार्थ की वह मात्रा है, जिसमें उसके अवयवी तत्वों (परमाणु, अणु,……. आदि) की संख्या 6.023 x 1023 होती है। इस संख्या को ऐवोगाड्रो नियतांक कहते हैं।

SI के दो सम्पूरक मात्रक निम्न हैं:

  1. रेडियन:किसी वृत्त की त्रिज्या के बराबर लम्बाई के चाप द्वारा उसके केंद्र पर बनाया गया कोण एक रेडियन होता है। इस मात्रक का प्रयोग समतल पर बने कोणों (plane angles) को मापने के लिए किया जाता है।
  2. स्टेरेडियन:किसी गोले की सतह पर उसकी त्रिज्या के बराबर भुजा वाले वर्गाकार क्षेत्रफल द्वारा गोले के केंद्र पर बनाए गए घन कोण को 1 स्टेरेडियन कहते हैं। यह ठोस कोणों (solid angles) को मापने का मात्रक है।

मूल मात्रक (Fundamental Units)
भौतिक राशि SI मात्रक एवं प्रतीक
लम्बाई मीटर (m)
द्रव्यमान किलोग्राम (Kg)
समय सेकेण्ड (s)
विद्युत् धारा ऐम्पियर (A)
ताप केल्विन (K)
ज्योति-तीव्रता कैण्डेला (cd)
पदार्थ की मात्रा मोल (mol)
सम्पूरक कोण (Supplementary Units)
समतल कोण रेडियन (rad)
ठोस कोण स्टेरेडियन (sr)

 

कुछ प्रमुख व्युत्पन्न मात्रक
भौतिक राशि SI मात्रक
क्षेत्रफल m2
आयतन m3
घनत्व Kg/m3
चाल m/s
वेग m/s
त्वरण m/s2
बल Kgm/s2 = N
संवेग Kgm/s
आवेग N.s
दाब N/m2
कार्य या ऊर्जा Nm = Joule
शक्ति J/s = Watt

कुछ अन्य महत्वपूर्ण मात्रक:

अत्यधिक लम्बी दूरियों को मापने में प्रयोग किये जानेवाले मात्रक:-

1. खगोलीय इकाई (Astronomical Unit- A.U.): सूर्य और पृथ्वी के बीच की माध्य दूरी ‘खगोलीय इकाई’ कहलाती है।

1 A.U. = 1.495 x 1011मीटर

2. प्रकाशवर्ष (Light Year): एक प्रकाश वर्ष निर्वात में प्रकाश द्वारा एक वर्ष में चली गयी दूरी है।

1 ly = 9.46 x 1015 मीटर

3. पारसेक: यह दूरी मापने की सबसे बड़ी इकाई है।

1 पारसेक  = 3.08 x 1016 मीटर

लम्बाई/दूरी के मात्रक
1 किलोमीटर = 1000 मीटर
1 मील = 1.60934 किलोमीटर
1 नाविक मील =  1.852 किलोमीटर
1 खगोलीय इकाई =  1.495 x 1011 मीटर
1 प्रकाश वर्ष =  9.46 x 1015 मीटर = 48612 A.U
1 पारसेक =  3.08 x 1016 मीटर = 3.26 ly

 

द्रव्यमान के मात्रक
1 औंस = 28.35 ग्राम
1 पाउण्ड = 16 औंस = 453.52 ग्राम
1 किलोग्राम = 2.205 पाउण्ड = 1000 ग्राम
1 क्विंटल = 100 किलोग्राम
1 मीट्रिक टन = 1000 किलोग्राम

 

समय के मात्रक
1 मिनट = 60 सेकेण्ड
1 घंटा =  60 मिनट = 3600 सेकेण्ड
1 दिन =  24 घंटे
1 सप्ताह = 7 दिन
1 चन्द्र मास =  4 सप्ताह = 28 दिन
1 सौर मास =  30 या 31 दिन (फरवरी 28 या 29 दिन)
1 वर्ष =  13 चन्द्र मास 1 दिन = 12 सौर मास = 365  दिन
1 लीप वर्ष =  366 दिन

 

क्षेत्रफल के मात्रक
1 एकड़ =  4840 वर्ग गज

= 43560 वर्ग फुट

= 4046.94 वर्ग मीटर

1 हेक्टेयर = 2.5 एकड़
1 वर्ग किलोमीटर = 100 हेक्टेयर
1 वर्ग मील = 2.6 वर्ग किलोमीटर

= 256 हेक्टेयर

= 640 एकड़

 

आयतन के मात्रक
1 लीटर = 1000 घन सेंटीमीटर = 0.2642 गैलन
1 गैलन =  3.785 लीटर

Bhotik Rashiyan, Manak evm unke Matrak Hindi Me

प्रमुख प्रतियोगी परिक्षाओ में मापन से पूछे गये महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न:

  1. मीट्रिक टन में 10 क्विटल होते है।
  2. 1 पिको सेकण्‍ड =10^(-12) सेकण्‍ड होते है।
  3. 1 पाउण्‍ड में 0.4536किलोग्राम होते है।
  4. चन्‍द्रशेखर सीमा का प्रयोग तारों का द्रव्‍यमान प्रदर्शित करने में किया जाता है।
  5. 1 डिग्री 60 मिनट के बराबर होता है।
  6. आपेक्षिक घनत्‍व =(पदार्थ का घनत्‍व )/█(4 डिग्री सेल्सियस पर जल का घनत्‍व @)
  7. आपेक्षिक घनत्‍व की कोई इकाई नहीं होती है।
  8. अमीटर का प्रयोग विधुतधारा की तीव्रता नापने वाला यंत्र है।
  9. अल्‍टीमीटर का प्रयोग उडते हुए विमान की ऊँचाई नापने का यंत्र है।
  10. एक्टिनोमीटर का प्रयोग सूर्य किरणों की तीव्रता मापने की यंत्र है।
  11. टेप रिकोर्डर की टेप पर फेरोमैग्‍निटिक चूर्ण का लेप किया जाताहै।
  12. घडी में स्‍फटिक क्रिस्‍टल का कार्य दाब विद्युत प्रभाव पर आधारित होता है।
  13. सिनेमैटोग्राफ द्रष्टिबंधन के सिद्धांत पर कार्य करता है।
  14. टेलीविजन का आविस्‍कार जे एल वेयर्ड ने किया था।
  15. लेजर का आविष्‍कार थियोडर मेमैन ने किया था।
  16. रिवाल्‍वर का आविष्‍कार सैमुअल कोल्‍ट ने किया था।
  17. रेडार की खोज राबर्ट वाटसन वाट ने की थी।
  18. फैदोमीटर उपकण समुद्र की गहराई मापने वाला यंत्र है।
  19. हाइड्रोमीटर का प्रयोग द्रवों का आपेक्षिक घनत्‍व मापता है।
  20. राष्ट्रिय भौतिक प्रयोगशाला नई दिल्‍ली मे स्थित है।
  21. मैनोमीटर गैसो का दाब मापने वाला यंत्र है।
  22. प्रकाश के‍ प्रकीर्णन का नियम सी वी रमन ने प्रतिपादित किया था।
  23. राष्ट्रिय विज्ञान दिवस 28 फरवरी को मनाया जाता है।
  24. श्‍यानता की इकाई प्‍वाइज होती है।
  25. 1 बैरल मे 159 लीटर होते है।
  26. सूर्य से प्रथ्वी की दूरी लगभग 14.95 करोड किमी होती है।
  27. 1 किलोमीटर मे दश लाख मिली मीटर होते है।

इन्हें भी पढ़े: जीवधारियों के लक्षण, वर्गीकरण एवं मुख्य प्राणी संघो की सूची

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बादलों (मेघों) के बारे में रोचक जानकारी – Interesting facts about Clouds in Hindi

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बादलों या मेघों के बारे में रोचक जानकारी। जाने बादलों का निर्माण कैसे होता है?

बादलों या मेघों के बारे में रोचक जानकारी (Interesting facts about Clouds in Hindi):

“क्लाउड” शब्द की उत्पत्ति पुरानी अंग्रेजी के शब्द क्लुड या क्लोड के रूप में पाई जा सकती है, जिसका अर्थ है एक पहाड़ी या एक चट्टान का द्रव्यमान। 13 वीं शताब्दी की शुरुआत के आसपास, “क्लाउड” शब्द का इस्तेमाल बारिश के बादलों के लिए एक रूपक के रूप में किया जाने लगा था।

लगभग 340 ईसा पूर्व, यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने मेटोरोलॉजिका लिखा था, जो एक ऐसा काम था जिसमें मौसम और जलवायु सहित प्राकृतिक विज्ञान के बारे में उस समय के ज्ञान का योग था। पहली बार, वर्षा और जिन बादलों से बादल गिरे थे, उन्हें उल्का कहा जाता था, जो ग्रीक शब्द उल्कापिंड से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है ‘उच्च आकाश में’। उस शब्द से आधुनिक शब्द मौसम विज्ञान आया, जो बादलों और मौसम का अध्ययन था।

बादल (मेघ) किसे कहते है? (What is the cloud?)

वायुमण्डल में उपस्थित जलवाष्प के संघनन से बने जलकणों या हिमकणों की दृश्यमान राशि बादल कहलाती है। बादल वर्षण का प्रमुख स्रोत है, इसी के कारण वर्षा, हिमपात और ओलावृष्टि पृथ्वी के धरातल पर पहुँचते है। मौसम विज्ञान की भाषा में मेघ या बादल को उस जल अथवा अन्य रासायनिक तत्वों के मिश्रित द्रव्यमान के रूप में परिभाषित किया जाता है जो द्रव रूप में बूंदों अथवा ठोस हिमकणो के रूप में वायुमण्डल में व्यवस्थित हो जाते है।

बादल (मेघ) का निर्माण कैसे होता है? (How is cloud formed?)

मेघों के निर्माण के लिए आवश्यक तत्व: (1) जल का विस्तृत क्षेत्रफल में फैला होना  (2) सूर्यातप या ऊष्मा का अधिक होना (3) वायुमंडल में धूलकणों की उपस्थित (4) पवनें

निर्माण की प्रक्रिया (Construction process):

बदलों का निर्माण संघनन की प्रक्रिया के कारण होता है। सबसे पहले दिन के समय विस्तृत महासागरों या सागरों में सूर्य की किरणे पड़ती है जिस कारण महासागरों का जल गर्म होकर वाष्पीकृत होने लगता है और जलवाष्प में परिवर्तित होने लगता है। इसके बाद गर्म वायु इन जलवाष्प को ऊपर उढ़ाकर वायुमंडल में ले जाने का कार्य करती है। वायु जैसे-जैसे ऊंचाई पर बढ़ती रहती है वैसे-वैसे तापमान कम होता रहता है और जलवाष्प ठंडा होने लगता है और वायु में उपस्थित धूलकणों के केंद्रकों के चारो ओर जलवाष्प संघनित होने लगता है जिससे बादल (मेघ) बनते है। चूंकि इनका निर्माण पृथ्वी की सतह से कुछ ऊंचाई पर होता है, इसलिए इनके विस्तार, घनत्व तथा पारदर्शिता या अपारदर्शिता में अंतर आने लगता से जिसे ये विभिन्न रूप धारण करते है।

बादल (मेघ) के प्रकार (Types of cloud): सामान्यतः बदलो का वर्गीकरण उनके विस्तार, घनत्व तथा पारदर्शिता या अपारदर्शिता के आधार पर किया जाता है। ये मुख्य रूप से चार प्रकार के होते है, जो निम्नलिखित है-

  1. पक्षाभ मेघ (Cirrus Clouds): इस प्रकार के मेघो का निर्माण सामान्यतः 8 से 12 कि.मी. कि ऊंचाई पर होता है। ये बादल पतले तथा बिखरे हुये होते है, जो पंख के समान प्रतीत होते है। इनका रंग सदैव सफ़ेद होता है।
  2. कपासी मेघ (Cumulus Clouds):कपासी मेघों का निर्माण प्राय: 4 से 7 कि.मी. कि ऊंचाई पर होता है। इस प्रकार के बादलों का आधार चपटा होता है और ये छितरे तथा इधर-उधर बिखरे हुये होते है, जिस कारण ये रुई कि आकृति जैसे दिखते है, इसीलिए इन्हे कपासी मेघ कहा जाता है।
  3.  वर्षा मेघ (Nimbus Clouds): इन मेघो का निर्माण सामान्यत: 2 कि.मी. कि ऊंचाई पर ही होता है, जिस कारण ये पृथ्वी कि सतह के काफी नजदीक होते है। इनका रंग काला या स्लेटी होता है, जिस कारण ये सूर्य कि किरणों के लिए अपारदर्शी हो जाते है। ये मेघ मोटे, जलवाष्प कि आकृति से विहीन संहति होते है।
  4. स्तरी मेघ (Stratus Clouds): इस प्रकार के बादलों का निर्माण उष्ण वाताग्र पर होता है जहाँ उष्ण वायुराशि अपेक्षाकृत ठंडी वायुराशि के संपर्क में आकर उस पर चढ़ने लगती है। ये बादल परतदार होते है जोकि आकाश के बहुत बड़े भागों में फैले रहते है। ये बादल सामान्यत: या तो ऊष्मा के ह्रास या अलग-अलग तापमानों पर हवा के आपस में मिश्रित होने से बनते है।

बादलों (मेघो) के अन्य मुख्य प्रकार (Other types of clouds): ये चार प्रकार के प्रमुख मेघ- कपासी, स्तरी, वर्ष और पक्षाभ मिलकर निम्नलिखित रूपों के बादलों का निर्माण करते है-

  1. ऊंचे बादल: इनका निर्माण लगभग 5 से 14 कि.मी. कि ऊंचाई पर होता है जब विभिन्न प्रकार के बाद एक साथ मिल जाते है। इसमे पक्षाभस्तरी और पक्षाभकपासी आते है।
  2. मध्य ऊंचाई के बादल: इनका निर्माण लगभग 2 से 7 कि.मी. कि ऊंचाई पर होता है। इसमे मध्यस्तरी तथा मध्यकपासी मेघ आते है।
  3. कम ऊंचाई के बादल: इस प्रकार के बादलों का निर्माण लगभग 2 कि.मी. कि ऊंचाई पर ही होता है। इसमे स्तरी कपास मेघ, स्तरी वर्षा मेघ तथा कपासी वर्षा मेघ आते है।

बादलों के बारे में रोचक तथ्य (nteresting facts about clouds):

  1. धुंध भी एक तरह का बादल ही है और यह जमीन के बहुत करीब होता है। धुंध में चलना बादलों में चलने जैसा ही है।
  2. ऐसा नहीं है कि बादलों में वजन नहीं होता, एक बादल का वजन लागभग 5 लाख किलो मतलब एक हवाई जहाज या 100 हथियों के बराबर होता है। यह 1- 1.5 किलोमीटर लंबा-चौड़ा हो सकता है।
  3. बादल सूर्य कि रोशनी को रेफलेक्ट करते हैं इसलिए सफ़ेद दिखाई देते हैं।
  4. बादल 146 फीट प्रति सेकेंड कि स्पीड से दौड़ सकते है यानि एक बादल को दिल्ली से मुंबई पाहुचने में 9 घंटे लगेंगे।
  5. जिस भी ग्रह पर वातावरण है वहाँ बादल है। लेकिन पानी के नहीं, शुक्र ग्रह पर sulphhur oxide और आपको जानकार हैरानी होगी कि शनि और बृहस्पति ग्रह पर अमोनिया के बादल है।
  6. फ्लाइट का लेट होने ‘Cumulonimbus’ बादलों कि वजह से होता है। यह बिजली कड़काने से लेकर तूफान, ओले और कभी कभी बवंडर भी लाने में सक्षम है।
  7. नक्षत्रमंडल बादल (Noctilucent Clouds) 75 से 85 km कि ऊंचाई पर होते है। ये इतने ऊंचे हैकि रात को भी सूर्य कि रोशनी को रिफलेक्ट करते रहते है।
  8. ईरान में बादलों को भाग्यशाली माना जाता है। यहाँ किसी को आशीर्वाद देते समय ‘your sky is always filled with clouds’ कहा जाता है।
  9. दुनिया में सबसे ज्यादा बादलों से घिरा हुआ स्थान अंटर्कटिक हिन्द महासागर का साउथ अफ्रीका प्रिंस आइसलैंड है। यहाँ साल के 8760 घंटों में सिर्फ 800 घंटे धुप निकलती है।
  10. जब अरबों पानी कि बूंदों के साथ बादल बहुत मोटे हो जाते हैं तब सूर्य कि रोशनी इनमे चमक नहीं पाती और यही स्लेटी नजर आने लगते हैं। बादलों के स्लेटी होते ही हमें समझ जाना चाहिए कि बारिश होने वाली है।
  11. बादल कभी नीचे नहीं गिरते क्योंकि बादल बहुत छोटी-छोटी यानि 1 माइक्रोन साइज जितनी बूंदों से मिलकर बना होता है। बूँद इतनी हल्की होने के कारण Gravity को सही से रिस्पोंड नहीं करती और यही बाद पूरे बादल पर भी लागू होती है।

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विद्युत – Electricity

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विद्युत - Electricity

विद्युत क्या है? What is electricity?

विद्युत आवेशों के मौजूदगी और बहाव से जुड़े भौतिक परिघटनाओं के समुच्चय को विद्युत (Electricity) कहा जाता है।अर्थात् इसे न तो देखा जा सकता है व न ही छुआ जा सकता है केवल इसके प्रभाव के माध्यम से महसुस किया जा सकता है| विद्युत से जानी-मानी घटनाएं जुड़ी है जैसे कि तडित, स्थैतिक विद्युत, विद्युतचुम्बकीय प्रेरण, तथा विद्युत धारा। इसके अतिरिक्त, विद्युत के द्वारा ही वैद्युतचुम्बकीय तरंगो (जैसे रेडियो तरंग) का सृजन एवं प्राप्ति सम्भव होता है?

स्थिर-विद्युत क्या है? What is static electricity?

लगभग 600 ईसा पूर्व (BC) में, यूनान के दार्शनिक थेल्स (Thales) ने देखा कि जब अम्बर (Amber) को बिल्ली की खाल से रगड़ा जाता है, तो उसमें कागज के छोटे-छोटे टुकड़े आदि को आकर्षित करने का गुण आ जाता है। यद्यपि इस छोटे से प्रयोग का स्वयं कोई विशेष महत्व नहीं था, परन्तु वास्तव में यही प्रयोग आधुनिक विद्युत् युग का जन्मदाता माना जा सकता है।

थेल्स के दो हजार वर्ष बाद तक इस खोज की तरफ किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। 16वीं शताब्दी में गैलीलियो के समकालीन डॉ० गिलबर्ट ने, जो उन दिनों इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ के घरेलू चिकित्सक थे, प्रमाणित किया कि अम्बर एवं बिल्ली के खाल की भाँति बहुत-सी अन्य वस्तुएँ-उदाहरणार्थ, काँच और रेशम तथा लाख और फलानेल-जब आपस में रगड़े जाते हैं, तो उनमें भी छोटे-छोटे पदार्थों को आकर्षित करने का गुण आ जाता है।

घर्षण से प्राप्त इस प्रकार की विद्युत् को घर्षण-विद्युत् (frictional electricity) कहा जाता है। इसे स्थिर विद्युत् (static electricity) भी कहा जाता है, बशर्ते पदार्थों को रगड़ने से उन पर उत्पन्न आवेश वहीं पर स्थिर रहे जहाँ वे रगड़ से उत्पन्न होते हैं।

विद्युत धारा क्या है? What is electric current?

आवेश के प्रवाह को विद्युत धारा कहते हैं। ठोस चालकों में आवेश का प्रवाह इलेक्ट्रॉनों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तरण के कारण होता है, जबकि द्रवों जैसे- अम्लों, क्षारों व लवणों के जलीय विलयनों तथा गैसों में यह प्रवाह आयनों की गति के कारण होता है। साधारणः विद्युत धारा की दिशा धन आवेश के गति की दिशा की ओर तथा ॠण अवेश के गति की विपरीत दिशा में मानी जाती है। ठोस चालकों में विद्युत धारा की दिशा, इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह की दिशा के विपरीत मानी जाती है।

विद्युत धारा एवं नियम Electric current and rules:

किसी सतह से जाते हुए, जैसे किसी तांबे के चालक के खंड से विद्युत धारा की मात्रा (एम्पीयर में मापी गई) को परिभाषित किया जा सकता है :- विद्युत आवेश की मात्रा जो उस सतह से उतने समय में गुजरी हो। यदि किसी चालक के किसी अनुप्रस्थ काट से Q कूलम्ब का आवेश t समय में निकला; तो औसत धारा

मापन का समय t को शून्य (rending to zero) बनाकर, हमें तत्क्षण धारा i(t) मिलती है :

I = Q / t (यदि धारा समय के साथ अपरिवर्ती हो)

एम्पीयर, जो की विद्युत धारा की SI इकाई है। परिपथों की विद्युत धारा मापने के लिए जिस यंत्र का उपयोग करते हैं उसे एमीटर कहते हैं।

एम्पीयर परिभाषा: किसी विद्युत परिपथ में 1 कूलॉम आवेश 1 सेकण्ड में प्रवाहित होता है तो उस परिपथ में विद्युत धारा का मान 1 एम्पीयर है।

  1. उदाहरण: किसी तार में 10 सेकण्ड में 50 कूलॉम आवेश प्रवाहित होता है तो उस तार में प्रवाहित विद्युत धारा का मान 50 कूलॉम / 10 सेकण्ड = 5 एम्पीयर

विद्युत आवेश क्या है? What is electric charge?

इसकी खोज 600 ई . पूर्व हुई थी इसका श्रेय ग्रीस देश के निवासी थेल्स को जाता है ‘इलेक्ट्रिसिटी’ शब्द भी ग्रीस भाषा के शब्द इलेक्ट्रान से लिया गया है जिसका अर्थ ‘ऐम्बर’ है। विद्युत आवेश कुछ उपपरमाणवीय कणों में एक मूल गुण है जो विद्युतचुम्बकत्व का महत्व है। आवेशित पदार्थ को विद्युत क्षेत्र का असर पड़ता है और वह ख़ुद एक विद्युत क्षेत्र का स्रोत हो सकता है। आवेश पदार्थ का एक गुण है! पदार्थो को आपस में रगड़ दिया जाये तो उनमें परस्पर इलेक्ट्रोनों के आदान प्रदान के फलस्वरूप आकर्षण का गुण आ जाता है।

विद्युत धारा के प्रभाव Effects of Electric Current

प्रवहमान विद्युत् धारा के मुख्यतः निम्नलिखित प्रभाव हैं- चुम्बकीय प्रभाव, ऊष्मीय प्रभाव, रासायनिक प्रभाव एवं प्रकाशीय प्रभाव।

चुम्बकीय प्रभाव

जब भी किसी चालक से विद्युत् धारा का प्रवाह होता है, तो चालक के चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। सन् 1812 ई० में कोपेनहेगन निवासी ऑर्स्टेड (Oersted) ने एक प्रयोग के द्वारा पता लगाया कि यदि किसी धारावाही तार के समीप चुम्बकीय सूई रखी जाए, तो यह विचलित हो जाती है। चूंकि चुम्बकीय सूई केवल चुम्बकीय क्षेत्र में ही विचलित होती है, अतः स्पष्ट है कि विद्युत्-धारा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करती है। इसे ही विद्युत् का चुम्बकीय प्रभाव कहते हैं।

चुम्बकत्व की दिशा संबंधी नियम: चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा मैक्सवेल के कॉर्क-स्क्रू नियम, पलेमिंग के दाहिने हाथ के नियम आदि से दी जाती है।

मैक्सवेल का कॉक-स्क्रू नियम Maxwell’s Cork-screw Law

यदि एक काग पेंच की हाथ में ले कर इस तरह से घुमाया जाए कि वह धारा की दिशा में आगे की ओर बढ़े, तो अँगूठे की गति की दिशा चुम्बकीय बल रेखाओं की धनात्मक दिशा बताती है।

फ्लेमिंग के दाहिने हाथ का नियम Fleming’s Right Hand Rule

जिस तार से होकर धारा बहती है उस तार के ऊपर यदि दाहिने हाथ को रखकर अँगूठे तथा पहली दो ऊँगलियों को इस तरह फैलाया जाय कि वे एक-दूसरे के समकोणिक दिशा में हों और यदि तर्जनी (fore finger) धारा की दिशा तथा बीच वाली ऊँगली सूई की विक्षेपित दिशा बतावें, तो अँगूठे की दिशा चुम्बकीय बल की दिशा बताती है।

लॉरेंज बल Lorentz Force

जब किसी चुम्बकीय क्षेत्र में कोई आवेशित कण गति करता है, तो उस पर एक बल आरोपित होता हैं, जिसे लॉरेन्ज बल कहते हैं। यह बल कण के आवेश, उसकी चाल तथा चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता के अनुक्रमानुपाती होता है।

भौतिकी (विशेषतः विद्युत चुम्बकीकी) में लॉरेंज बल बिन्दु-आवेश पर वैद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में लगने वाले विद्युतीय और चुम्बकीय बलों का मिश्रित रूप है।

q आवेश का v वेग से गतिशिल कण विद्युत क्षेत्र और चुंबकीय क्षेत्र B में एक शक्ति का अनुभव करता है-

[जहाँ q = कण का आवेश, v = कण की चाल, B = चुम्बकीय क्षेत्र, θ = कण के वेग v एवं चुम्बकीय क्षेत्र B के मध्य का कोण]

बल F की दिशा फलेमिंग के बाये हाथ के नियम (Fleming’s Left Hand Rule) से भी ज्ञात की जा सकती है।

यदि एक आवेश q, वेग v किसी बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र B में प्रवेश करता है तो उस पर गति की दिशा तथा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा दोनों के लम्बवत एक बल लगता है लॉरेंज बल कहते हैं ।

इसे वेक्टर के रूप में-

  1. F= qv × B

विद्युत-चुम्बक Electromagnet

यदि किसी बेलनाकार वस्तु के चारों ओर विद्युत्रोधी तार (insulated wire) को लपेट दिया जाए, तो इसे परिनालिका (solenoid) कहते हैं। बेलनाकार वस्तु को उसका क्रोड़ (core) कहते हैं। नर्म लोहे के क्रोड़ वाली परिनालिका विद्युत् चुम्बक कहलाती है। इनका उपयोग डायनमो, ट्रांसफॉर्मर, विद्युत् घंटी, तार-संचार, टेलीफोन, अस्पताल आदि में होता है। नर्म लोहा से अस्थायी चुम्बक बनता है। विद्युत् चुम्बक द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता निम्न बातों पर निर्भर करती है-

  1. परिनालिका के फेरों (turns) की संख्या: यदि फेरों की संख्या अधिक है, तो चुम्बकीय क्षेत्र भी तीव्र होगा।
  2. क्रोड़ पदार्थ की प्रकृति: यदि क्रोड़ नर्म लोहे का है, तो चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता अधिक होती है।
  3. धारा का परिमाण: धारा का परिमाण जितना अधिक होगा, क्षेत्र उतना तीव्र होगा।

चुम्बकीय पदार्थों पर लगने वाला बल

लौहचुम्बकीय पदार्थों पर लगने वाले बल की गणना करना एक जटिल कार्य है। इसका कारण यह है कि वस्तुओं के आकार आदि भिन्न-भिन्न होते हैं जिसके कारण सभी स्थितियों में चुम्बकीय क्षेत्र की गणना के लिये कोई सरल सूत्र नहीं हैं। इसका अधिक शुद्धता से मान निकालना हो तो फाइनाइट-एलिमेन्ट-विधि का उपयोग करना पड़ता है। किन्तु कुछ विशेष स्थितियों के लिये चुम्बकीय क्षेत्र और बल की गणना के सूत्र दिये जा सकते हैं। उदाहरण के लिये, सामने के चित्र को देखें। यहाँ अधिकांश चुम्बकीय क्षेत्र, एक उच्च पारगम्यता (परमिएबिलिटी) के पदार्थ (जैसे, लोहा) में ही सीमित है। इस स्थिति के लिये अधिकतम बल का मान निम्नलिखित है-

जहाँ:

  • F, बल (न्यूटन में
  • B , चुम्बकीय क्षेत्र (चुम्बकीय फ्लक्स घनत्व) (टेस्ला में)
  • A, पोल का क्षेत्रफल (m² में);
  •  , निर्वात की चुम्बकीय पारगम्यता

चुम्बकीय फ्लक्स Magnetic Flux :चुम्बकीय क्षेत्र में रखी हुई किसी सतह के लम्बवत् गुजरने वाली कुल चुम्बकीय रेखाओं की संख्या को उस सतह का चुम्बकीय फ्लक्स कहते हैं। चुम्बकीय फ्लक्स की SI इकाई वेबर (wb) है।

चुम्बकीय क्षेत्र Magnetic Field: चुम्बकीय क्षेत्र की परिभाषा किसी बिन्दु पर चुम्बकीय फ्लक्स के पद में भी दी जाती है यथा प्रति इकाई क्षेत्रफल से लम्बवत् गुजरने वाली चुम्बकीय फ्लक्स उस बिन्दु का चुम्बकीय क्षेत्र कहलाता है। चुंबकीय क्षेत्र का एस आई मात्रक ,एंपियर/ मीटर , टेस्ला और बेवर है।

धारामापी Galvanometer: धारामापी या गैल्वानोमीटर (galvanometer) एक प्रकार का अमीटर ही है। यह किसी परिपथ में धारा की उपस्थिति का पता करने के लिये प्रयोग किया जाता है। प्रायः इसपर एम्पीयर, वोल्ट या ओम के निशान नहीं लगाये गये रहते हैं। धारामापी के समानान्तर समुचित मान वाला अल्प मान का प्रतिरोध (इसे शंट कहते हैं) लगाकर इसे अमीटर की तरह प्रयोग किया जाता है। धारामापी के श्रेणीक्रम में समुचित मान का बड़ा प्रतिरोध (इसे मल्टिप्लायर) लगाकर इसे वोल्टमापी की भांति प्रयोग किया जाता है। इस यंत्र से 10-6 एम्पियर तक की विद्युत् धारा को मापा जा सकता है।

आमीटर Ammeter: ऐमीटर या ‘एम्मापी’ (ammeter या AmpereMeter) किसी परिपथ की किसी शाखा में बहने वाली विद्युत धारा को मापने वाला यन्त्र है। बहुत कम मात्रा वाली धाराओं को मापने के लिये प्रयुक्त युक्तियोंको “मिलिअमीटर” (milliameter) या “माइक्रोअमीटर” (microammeter) कहते हैं। अमीटर की सबसे पुरानी डिजाइन डी’अर्सोनल (D’Arsonval) का धारामापी या चलित कुण्डली धारामापी था।

वोल्टमीटर Voltmeter: वोल्टमीटर एक मापन यंत्र है जो किसी परिपथ के किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच विभवान्तर को मापने के लिये प्रयोग किया जाता है। 1819 में हैंस ऑरेस्टड ने वोल्टमीटर का आविष्कार किया। उन्होंने चुम्बकीय दिशासूचक की सुई के पास रखे तार में विद्युत धारा का प्रवाह किया तो उन्होंने देखा कि इसकी दिशा में परिवर्तन हो रहा है। ध्यान देने पर ज्ञात हुआ कि तार में जितनी अधिक एंपियर की धारा प्रवाहित की जाती है, सुई की दिशा में उतनी ही तीव्रता से परिवर्तन होता है। इसी कारण से उनका मापन एकदम सही नहीं आ रहा था। 11वीं शताब्दी में आर्सीन डी आर्सोनवल ने ऐसा यंत्र बनाया जो पहले बने यंत्रों की तुलना में बेहतर मापन कर सके। इसके लिए उन्होंने कंपास की सुई को छोटा किया और उसे चारों तरफ से चुंबक से घेर दिया। यह डी आर्सोनवल मूवमेंट के नाम से जाना जाता है और इसका प्रयोग आज के एनालॉग मीटर में होता है। व्यावहारिक तौर पर वोल्टमीटर अमीटर की तरह ही काम करते हैं, जो वोल्टेज को मापने के साथ, विद्युत धारा और प्रतिरोध को भी मापते हैं।

स्थिर-विद्युत्की

भौतिक राशि मात्रक संकेत
विद्युत् आवेश (Electric Charge) कूलम्ब (Coulomb) q या C
विद्युत् विभव (Electric Potential) वोल्ट (Volt) V
विभवान्तर (Potential Difference) वोल्ट (Volt) V
विद्युत् धारिता (Electric Capacity F or, Capacitance) फैराड (Farad) F

विद्युत् धारा

भौतिक राशि मात्रक संकेत
विद्युत् धारा (Electric Current) एम्पियर (Ampere) A
प्रतिरोध (Resistance) ओम (Ohm) Ω
विशिष्ट प्रतिरोध (Specific Resistance or, Resistivity) ओम मीटर (Ohm Metre) Ωm
विद्युत् चालकता (Electric Conductivity) ओम-1 (ohm-1) या, म्हो (mho) Ω1
या सीमेन (simen) S
विशिष्ट चालकता (specific conductivity or, Conductance) ओम-1 मीटर-1 या म्हो मीटर-1 या, सीमेन मीटर-1 Ω-1m-1
विद्युत् शक्ति (Electric Power) वाट (Watt) W

विद्युत सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य Vital Facts About Electricity

  1. प्रतिरोध का SI मात्रक ओम है।
  2. वाट, विद्युत शक्ति का मात्रक है।
  3. स्वप्रेरण गुणांक का मात्रक हेनरी है।
  4. इलेक्ट्रॉन वोल्ट ऊर्जा का मात्रक है।
  5. आवेश की मात्रा का मात्रक कूलॉम है।
  6. 4k पर पारे का प्रतिरोध शून्य होता है।
  7. चांदी विद्युत का सबसे अच्छा चालक है।
  8. विद्युत-धारिता का मात्रक फैराडे होता है।
  9. केडमियम सेल, प्रमाणिक सेल कहलाता है।
  10. स्टोरेज बैटरी में सीसा का इस्तेमाल होता है।
  11. विद्युत धारा का SI मात्रक ऐम्पियर है।
  12. विद्युत हीटर का तार नाइक्रोम का होता है।
  13. विद्युत बल्ब का तंतु टंगस्टन का बना होता है।
  14. फ्यूज का तार, सीसा तथा टिन का बना होता है।
  15. किलोवाट घण्टा, विद्युत ऊर्जा का मात्रक है।
  16. कम शक्ति के बल्ब का प्रतिरोध अधिक होता है।
  17. डायेनमो, यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलता है।
  18. डायनेमोमीटर इंजन द्वारा उत्पन्न शक्ति मापने का यंत्र है।
  19. एक पूरे चक्र के लिये प्रत्यावर्ती धारा का मान शून्य होता है।
  20. किसी पदार्थ की सापेक्ष विद्युतशीलता सदैव 1 से अधिक होती है।
  21. विद्युत बल्ब में नाइट्रोजन अथवा कोई निष्क्रिय गैस भरी जाती है।
  22. वैस्टन अमीटर से केवल डी.सी. विद्युत धारा ही नापी जाती है।
  23. विद्युत धारा के चुम्बकीय प्रभाव की खोज ओरस्टेड ने की थी।
  24. अमीटर हमेशा विद्युत परिपथ के श्रेणी क्रम में लगाया जाता है।
  25. वोल्टामीटर हमेशा विद्युत परिपथ के समानान्तर क्रम में लगाया जाता है।
  26. इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए प्रत्यावर्ती धारा का उपयोग नहीं किया जा सकता।
  27. अमीटर का प्रतिरोध बहुत कम तथा वोल्टामीटर का प्रतिरोध बहुत अधिक होता है।
  28. विद्युत धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक उच्च C वोल्टेज पर ले जाया जाता है।
  29. विद्युत तार बनाने के लिये तांबा उत्तम माना जाता है क्योंकि इसमें स्वतंत्र इलेक्ट्रॉनों की अधिकता होती है।
  30. एक उच्चायी ट्रांसफार्मर कम विभव वाली प्रबल प्रत्यावर्ती को उच्च विभव वाली निर्बल प्रत्यावर्ती धारा में बदलता है।
  31. ट्रांसफार्मर विद्युत-चुम्बकीय-प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है। इसे C विद्युत धारा के विभव में परिवर्तन किया जाता है।
  32. प्रतिरोध एक ऐसा गुणधर्म है, जो किसी चालक में इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह का विरोध करता है। यह विद्युत धारा के परिमाण को नियंत्रित करता है।
  33. प्रतिरोध एक ऐसा गुणधर्म है, जो किसी चालक में इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह का विरोध करता है। यह विद्युत धारा के परिमाण को नियंत्रित करता है।
  34. किसी चालक का प्रतिरोध उसकी लंबाई पर सीधे अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल पर प्रतिलोमतः निर्भर करता है और उस पदार्थ की प्रकृति पर भी निर्भर करता है, जिससे वह बना है।
  35. ओम का नियम – किसी प्रतिरोधक के सिरों के बीच विभवांतर उसमें प्रवाहित विद्युत धारा के अनुक्रमानुपाती होती है परंतु एक शर्त यह है कि प्रतिरोधक का ताप समान रहना चाहिए।
  36. समान शक्ति होने पर भी प्रतिदीप्ति ट्यूब, साधारण फिलामेंट बल्ब की अपेक्षा अधिक प्रकाश देता है, क्योंकि ट्यूब में लगा प्रतिदीप्ति पदार्थ पराबैंगनी विकिरण को दृश्य प्रकाश में बदल देता है।

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भारत के संविधान में किए गए प्रमुख संशोधनों की सूची

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भारतीय संविधान संशोधन | भारत के संविधान में किए गए प्रमुख संशोधनों की सूची

भारतीय संविधान के संशोधन:  (Amendment of Indian Constitution in Hindi)

संविधान संशोधन किसे कहते है?

विधायिनी सभा में किसी विधेयक में परिवर्तन, सुधार अथवा उसे निर्दोष बनाने की प्रक्रिया को ‘संशोधन’ कहा जाता है। भारतीय संविधान का संशोधन भारत के संविधान में परिवर्तन करने की प्रक्रिया है। इस तरह के परिवर्तन भारत की संसद के द्वारा किये जाते हैं।

इन्हें संसद के प्रत्येक सदन से पर्याप्त बहुमत के द्वारा अनुमोदन प्राप्त होना चाहिए और विशिष्ट संशोधनों को राज्यों के द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया का विवरण संविधान के लेख 368, भाग XX में दिया गया है।

संविधान संशोधन की प्रक्रिया:

संविधान के भाग-20 के अंतर्गत अनुच्छेद-368 में संविधान संशोधन से संबंधित प्रक्रिया के बारे विस्तृत जानकरी उपलब्ध है। संविधान के संशोधन हेतु किसी विधेयक को संसद में पुनः स्थापित करने हेतु राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक नहीं है। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया की दृष्टि से भारतीय संविधान के अनुच्छेदों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. वे अनुच्छेद, जिन्हें संसद में साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है।
  2. वे अनुच्छेद, जिन्हें संसद में दो-तिहाई (⅔) बहुमत से संशोधित किया जा सकता है।
  3. वे अनुच्छेद, जिन्हें संसद में दो-तिहाई (⅔) बहुमत के साथ भारत के आधे राज्यों के विधान्मंदलों के संकल्पों की स्वीकृति द्वारा संशोधित किया जा सकता है।

अनुच्छेद-368 के अनुसार संसद संविधान में संशोधन तीन प्रकार से ला सकती है:

  1. साधारण बहुमत द्वारा
  2. दो-तिहाई बहुमत द्वारा
  3. दो-तिहाई बहुमत के साथ देश के आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति से।
  • संशोधन अधिनियम पर दोनों सदनों में गतिरोध उत्पन्न होने पर संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं है।
  • पारित संशोधन अधिनियम पर अपनी स्वीकृति प्रदान करने हेतु राष्ट्रपति बाध्य है।
  • मौलिक अधिकारों में संशोधन सम्भव है जबकि संविधान के आधारिक लक्षणों में संशोधन नहीं किया जा सकता।
  • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार आधारिक लक्षणों की संख्या 19 है।

संविधान में अब तक किए गए संशोधनो की सूची:

  • पहला संविधान (संशोधन) अधिनियम (1951): इसके माध्यम से स्वतंत्रता, समानता एवं संपत्ति से संबंधित मौलिक अधिकारों को लागू किए जाने संबंधी कुछ व्यवहारिक कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया गया। भाषण एवं अभिव्यक्ति के मूल अधिकारों पर इसमें उचित प्रतिबंध की व्यवस्था की गई। साथ ही, इस संशोधन द्वारा संविधान में नौंवी अनुसूची को जोड़ा गया, जिसमें उल्लिखित कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्तियों के अंतर्गत परीक्षा नहीं की जा सकती है।
  • दूसरा संविधान (संशोधन) अधिनियम (1952): इसके अंतर्गत 1951 की जनगणना के आधार पर लोक सभा में प्रतिनिधित्व को पुनर्व्यवस्थित किया गया।
  • तीसरा संविधान (संशोधन) अधिनियम (1954): अंतर्गत सातवीं अनुसूची को समवर्ती सूची की 33वीं प्रविष्टी के स्थान पर खाद्यान्न, पशुओं के लिए चारा, कच्चा कपास, जूट आदि को रखा गया, जिसके उत्पादन एवं आपूर्ति को लोकहित में समझने पर सरकार उस पर नियंत्रण लगा सकती है।
  • चौथा संविधान (संशोधन) अधिनियम (1955): इसके अंतर्गत व्यक्तिगत संपत्ति को लोकहित में राज्य द्वारा हस्तगत किए जाने की स्थिति में, न्यायालय इसकी क्षतिपूर्ति के संबंध में परीक्षा नहीं कर सकती।
  • पांचवा संविधान (संशोधन) अधिनियम (1955): इस संशोधन में अनुच्छेद 3 में संशोधन किया गया, जिसमें राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई कि वह राज्य विधान- मंडलों द्वारा अपने-अपने राज्यों के क्षेत्र, सीमाओं आदि पर प्रभाव डालने वाली प्रस्तावित केंद्रीय विधियों के बारे में अपने विचार भेजने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित कर सकते हैं।
  • छठा संविधान (संशोधन) अधिनियम (1956): इस संशोधन द्वारा सातवीं अनुसूची के संघ सूची में परिवर्तन कर अंतर्राज्यीय बिक्री कर के अंतर्गत कुछ वस्तुओं पर केंद्र को कर लगाने का अधिकार दिया गया है।
  • 07वा संविधान (संशोधन) अधिनियम (1956): इस संशोधन द्वारा भाषीय आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया, जिसमें अगली तीन श्रेणियों में राज्यों के वर्गीकरण को समाप्त करते हुए राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में उन्हें विभाजित किया गया। साथ ही, इनके अनुरूप केंद्र एवं राज्य की विधान पालिकाओं में सीटों को पुनर्व्यवस्थित किया गया।
  • 08वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1959): इसके अंतर्गत केंद्र एवं राज्यों के निम्न सदनों में अनुसूचित जाती, अनुसूचित जनजाति एवं आंग्ल भारतीय समुदायों के आरक्षण संबंधी प्रावधानों को दस वर्षों अर्थात 1970 तक बढ़ा दिया गया।
  • 09वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1960): इसके द्वारा संविधान की प्रथम अनुसूची में परिवर्तन करके भारत और पाकिस्तान के बीच 1958 की संधि की शर्तों के अनुसार बेरुबारी, खुलना आदि क्षेत्र पाकिस्तान को दे दिए गए।
  • 10वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1961): इसके अंतर्गत भूतपूर्व पुर्तगाली अंतः क्षेत्रों दादर एवं नगर हवेली को भारत में शामिल कर उन्हें केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया।
  • 11वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1962): इसके अंतर्गत उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के प्रावधानों में परिवर्तन कर, इस सन्दर्भ में दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को बुलाया गया। साथ ही यह भी निर्धारित की निर्वाचक मंडल में पद की रिक्तता के आधार पर राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन को चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • 12वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1962): इसके अंतर्गत संविधान की प्रथम अनुसूची में संशोधन कर गोवा, दमन एवं दीव को भारत में केंद्रशासित प्रदेश के रूप में शामिल कर लिया गया।
  • 13वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1962): इसके अंतर्गत नागालैंड के संबंध में विशेष प्रावधान अपनाकर उसे एक राज्य का दर्जा दे दिया गया।
  • 14वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1963): इसके द्वारा केंद्र शासित प्रदेश के रूप में पुदुचेरी को भारत में शामिल किया गया। साथ ही इसके द्वारा हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, गोवा, दमन और दीव तथा पुदुचेरी केंद्र शासित प्रदेशों में विधान पालिका एवं मंत्रिपरिषद की स्थापना की गई।
  • 15वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1963): इसके अंतर्गत उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवामुक्ति की आयु 60 से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी गई तथा अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों की उच्च न्यायालय में नियुक्ति से सबंधित प्रावधान बनाए गए।
  • 16वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1963): इसके द्वारा देश की संप्रभुता एवं अखंडता के हित में मूल अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाने के प्रावधान रखे गए साथ ही तीसरी अनुसूची में भी परिवर्तन कर शपथ ग्रहण के अंतर्गत ‘मैं भारत की स्वतंत्रता एवं अखंडता को बनाए रखूंगा’ जोड़ा गया।
  • 17वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1964): इसमें संपत्ति के अधिकारों में और भी संशोधन करते हुए कुछ अन्य भूमि सुधार प्रावधानों को नौवीं अनुसूची में रखा गया, जिनकी वैधता परीक्षा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नहीं की जा सकती थी।
  • 18वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1966): इसके अंतर्गत पंजाब का भाषीय आधार पर पुनर्गठन  करते हुए पंजाबी भाषी क्षेत्र को पंजाब एवं हिंदी भाषी क्षेत्र को हरियाणा के रूप में गठित किया गया। पर्वतीय क्षेत्र हिमाचल प्रदेश को दे दिए गए तथा चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया।
  • 19वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1966): इसके अंतर्गत चुनाव आयोग के अधिकारों में परिवर्तन किया गया एवं उच्च न्यायालयों को चुनाव याचिकाएं सुनने का अधिकार दिया गया।
  • 20वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1966): इसके अंतर्गत अनियमितता के आधार पर नियुक्त कुछ जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति को वैधता प्रदान की गई।
  • 21वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1967): इसके द्वारा सिंधी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची के अंतर्गत पंद्रहवीं भाषा के रूप में शामिल किया गया।
  • 22वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1969): इसके द्वारा असम से अलग करके एक नया राज्य मेघालय बनाया गया।
  • 23वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1969): इसके अंतर्गत विधान पालिकाओं में अनुसूचित जाती एवं अनुसूचित जनजाति के आरक्षण एवं आंग्ल भारतीय समुदाय के लोगों का मनोनयन और दस वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया।
  • 24वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1971): इस संशोधन के अंतर्गत संसद की इस शक्ति को स्पष्ट किया गया की वह संशोधन के किसी भी भाग को, जिसमें भाग तीन के अंतर्गत आने वाले मूल अधिकार भी हैं संशोधन कर सकती है ,साथ ही यह भी निर्धारित किया गया कि संशोधन संबंधी विधेयक जब दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति के समक्ष जाएगा तो इस पर राष्ट्रपति द्वारा संपत्ति दिया जाना बाध्यकारी होगा।
  • 26वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1971): इसके अंतर्गत भूतपूर्व देशी राज्यों के शासकों की विशेष उपाधियों एवं उनके प्रिवी पर्स को समाप्त कर दिया गया।
  • 27वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1971): इसके अंतर्गत मिजोरम एवं अरुणाचल प्रदेश को केंद्र शासित प्रदेशों के में स्थापित किया गया।
  • 29वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1972): इसके अंतर्गत केरल भू-सुधार (संशोधन) अधिनियम, 1969 तथा केरल भू-सुधार (संशोधन) अधिनियम, 1971 को संविधान की नौवीं अनुसूची में रख दिया गया, जिससे इसकी संवैधानिक वैधता को न्यायालय में चुनौती न दी जा सके।
  • 31वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1973): इसके द्वारा लोक सभा के सदस्यों की संख्या 525 से 545 कर दी गई तथा केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व 25 से घटकर 20 कर दिया गया।
  • 32वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1974): संसद एवं विधान पालिकाओं के सदस्य द्वारा दबाव में या जबरदस्ती किए जाने पर इस्तीफा देना अवैध घोषित किया गया एवं अध्यक्ष को यह अधिकार है कि वह सिर्फ स्वेच्छा से दिए गए एवं उचित त्यागपत्र को ही स्वीकार करे।
  • 34वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1974): इसके अंतर्गत विभिन्न राज्यों द्वारा पारित बीस भू सुधार अधिनियमों को नौवीं अनुसूची में प्रवेश देते हुए उन्हें न्यायालय द्वारा संवैधानिक वैधता के परीक्षण से मुक्त किया गया।
  • 35वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1974): इसके अंतर्गत सिक्किम का सरंक्षित राज्यों का दर्जा समाप्त कर उसे संबंद्ध राज्य के रूप में भारत में प्रवेश दिया गया।
  • 36वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1975): इसके अंतर्गत सिक्किम को भारत का बाइसवां राज्य बनाया गया।
  • 37वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1975): इसके तहत आपात स्थिति की घोषणा और राष्ट्रपति, राजयपाल एवं केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनिक प्रधानों द्वारा अध्यादेश जारी किए जाने को अविवादित बनाते हुए न्यायिक पुनर्विचार से उन्हें मुक्त रखा गया।
  • 39वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1975): इसके द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं लोक सभाध्यक्ष के निर्वाचन संबंधी विवादों को न्यायिक परीक्षण से मुक्त कर दिया गया।
  • 41वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1976): इसके द्वारा राज्य लोकसेवा आयोग के सदस्यों की सेवा मुक्ति की आयु सीमा 60 वर्ष कर दी गई, पर संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की सेवा निवृति की अधिकतम आयु 65 वर्ष रहने दी गई।
  • 42वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1976): इसके द्वारा संविधान में व्यापक परिवर्तन लाए गए, जिनमें से मुख्य निम्लिखित थे।
  • (क) संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ ‘धर्मनिरपेक्ष’ एवं ‘एकता और अखंडता’ आदि शब्द जोड़े गए।
  • (ख) सभी नीति निर्देशक सिद्धांतो को मूल अधिकारों पर सर्वोच्चता सुनिश्चित की गई।
  • (ग) इसके अंतर्गत संविधान में दस मौलिक कर्तव्यों को अनुच्छेद 51(क), (भाग-iv क) के अंतर्गत जोड़ा गया।
  • (घ) इसके द्वारा संविधान को न्यायिक परीक्षण से मुख्यत किया गया।
  • (ङ) सभी विधान सभाओं एवं लोक सभा की सीटों की संख्या को इस शताब्दी के अंत तक के स्थिर कर दिया गया।
  • (च) लोक सभा एवं विधान सभाओं की अवधि को पांच से छह वर्ष कर दिया गया,
  • (छ) इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया की किसी केंद्रीय कानून की वैधता पर सर्वोच्च न्यायालय एवं राज्य के कानून की वैधता का उच्च न्यायालय परिक्षण करेगा। साथ ही, यह भी निर्धारित किया गया कि किसी संवैधानिक वैधता के प्रश्न पर पांच से अधिक न्यायधीशों की बेंच द्वारा दी तिहाई बहुमत से निर्णय दिया जाना चाहिए और यदि न्यायाधीशों की संख्या पांच तक हो तो निर्णय सर्वसम्मति से होना चाहिए।
  • (ज) इसके द्वारा वन संपदा, शिक्षा, जनसंख्या- नियंत्रण आदि विषयों को राज्य सूचि से समवर्ती सूची के अंतर्गत कर दिया गया।
  • (झ) इसके अंतर्गत निर्धारित किया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद एवं उसके प्रमुख प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार कार्य करेगा।
  • (ट) इसने संसद को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए कानून बनाने के अधिकार दिए एवं सर्वोच्चता स्थापित की।
  • 44वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1978): इसके अंतर्गत राष्ट्रीय आपात स्थिति लागु करने के लिए आंतरिक अशांति के स्थान पर सैन्य विद्रोह का आधार रखा गया एवं आपात स्थिति संबंधी अन्य प्रावधानों में परिवर्तन लाया गया, जिससे उनका दुरुपयोग न हो। इसके द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के भाग से हटा कर विधेयक (क़ानूनी) अधिकारों की श्रेणी में रख दिया गया। लोक सभा तथा राज्य विधान सभाओं की अवधि 6 वर्ष से घटाकर पुनः 5 वर्ष कर दी गई। उच्चतम न्यायालय को राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन संबंधी विवाद को हल करने की अधिकारिता प्रदान की गई।
  • 50वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1984): इसके द्वारा अनुच्छेद 33 में संशोधन कर सैन्य सेवाओं की पूरक सेवाओं में कार्य करने वालों के लिए आवश्यक सूचनाएं एकत्रित करने, देश की संपत्ति की रक्षा करने और कानून तथा व्यवस्था से संबंधित दायित्व भी दिए गए। साथ ही, इस सेवाओं द्वारा उचित कर्तव्यपालन हेतु संसद को कानून बनाने के अधिकार भी दिए गए।
  • 52वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1985): इस संशोधन के द्वारा राजनितिक दल बदल पर अंकुश लगाने का लक्ष्य रखा गया। इसके अंतर्गत संसद या विधान मंडलों के उन सदस्यों को आयोग्य गोश्त कर दिया जाएगा, जो इस दल को छोड़ते हैं जिसके चुनाव चिन्ह पर उन्होंने चुनाव लड़ा था, पर यदि किसी दल की संसदीय पार्टी के एक तिहाई सदस्य अलग दल बनाना चाहते हैं तो उन पर अयोग्यता लागू नहीं होगी। दल बदल विरोधी इन प्रावधानों को संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत रखा गया।
  • 53वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1986): इसके अंतर्गत अनुच्छेद 371 में खंड ‘जी’ जोड़कर मिजोरम को राज्य का दर्जा दिया गया।
  • 54वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1986): इसके द्वारा संविधान की दूसरी अनुसूची के भाग ‘डी’ में संशोधन कर न्यायाधीशों के वेतन में वृद्धि का अधिकार संसद को दिया गया।
  • 55वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1986): इसके अंतर्गत अरुणाचल प्रदेश को राज्य बनाया गया।

  • 56वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1987): इसके अंतर्गत गोवा को एक राज्य का दर्जा दिया गया तथा दमन और दीव को केंद्रशासित प्रदेश के रूप में ही रहने दिया गया।
  • 57वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1987): इसके अंतर्गत अनुसचित जनजातियों के आरक्षण के संबंध में मेघालय, मिजोरम, नागालैंड एवं अरुणाचल प्रदेश की विधान सभा सीटों का परिसीमन इस शताब्दी के अंत तक के लिए किया गया।
  • 58वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1987): इसके द्वारा राष्ट्रपति को संविधान का प्रामाणिक हिंदी संस्करण प्रकाशित करने के लिए अधिकृत किया गया।
  • 60वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1988): इसके अंतर्गत व्यवसाय कर की सीमा 250 रुपये से बढ़ाकर 2500 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कर दी गई।
  • 61वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1989): इसके द्वारा मतदान के लिए आयु सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 लेन का प्रस्ताव था।
  • 65वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1990): इसके द्वारा अनुच्छेद 338 में संशोधन करके अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग के गठन की व्यवस्था की गई है।
  • 69वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1991): दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बनाया गया तथा दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र के लिए विधान सभा और मंत्रिपरिषद का उपबंध किया गया।
  • 70वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1992): दिल्ली और पुदुचेरी संघ राज्य क्षेत्रों की विधान सभाओं के सदस्यों को राष्ट्रपति के लिए निर्वाचक मंडल में सम्मिलित किया गया।
  • 71वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1992): आठवीं अनुसूची में कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली भाषा को सम्मिलित किया गया।
  • 73वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1992-93): इसके अंतर्गत संविधान में ग्याहरवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके पंचायती राज संबंधी प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है।
  • 74वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1993): इसके अंतर्गत संविधान में बारहवीं अनुसूची शामिल की गई, जिसमें नगरपालिका, नगर निगम और नगर परिषदों से संबंधित प्रावधान किए गए हैं।
  • 76वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1994): इस संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान की नवीं अनुसूची में संशोधन किया गया है और तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 69 प्रतिशत आरक्षण का उपबंध करने वाली अधिनियम को नवीं अनुसूची में शामिल कर दिया गया है।
  • 78वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1995): इसके द्वारा नवीं अनुसूची में विभिन्न राज्यों द्वारा पारित 27 भूमि सुधर विधियों को समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार नवीं अनुसूची में सम्मिलित अधिनियमों की कुल संख्या 284 हो गई है।
  • 79वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (1999): अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की अवधि 25 जनवरी 2010 तक के लिए बढ़ा दी गई है। इस संशोधन के माध्यम से व्यवस्था की गई कि अब राज्यों को प्रत्यक्ष केंद्रीय करों से प्राप्त कुल धनराशि का 29 % हिस्सा मिलेगा।
  • 82वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2000): इस संशोधन के द्वारा राज्यों को सरकारी नौकरियों से आरक्षित रिक्त स्थानों की भर्ती हेतु प्रोन्नति के मामलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अभ्यर्थियों के लिए न्यूनतम प्राप्ताकों में छूट प्रदान करने की अनुमति प्रदान की गई है।
  • 83वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2000): इस संशोधन द्वारा पंचायती राज सस्थाओं में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान न करने की छूट प्रदान की गई है। अरुणाचल प्रदेश में कोई भी अनुसूचित जाति न होने के कारन उसे यह छूट प्रदान की गई है।
  • 84वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2001): इस संशोधन अधिनियम द्वारा लोक सभा तथा विधान सभाओं की सीटों की संख्या में वर्ष 2016 तक कोई परिवर्तन न करने का प्रावधान किया गया है।
  • 85वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2001): सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था।
  • 86वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2002): इस संशोधन अधिनियम द्वारा देश के 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने संबंधी प्रावधान किया गया है, इसे अनुच्छेद 21 (क) के अंतर्गत संविधान जोड़ा गया है। इस अधिनियम द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में संशोधन किए जाने का प्रावधान है।
  • 87वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2003): परिसीमन में संख्या का आधार 1991 की जनगणना के स्थान पर 2001 कर दी गई है।
  • 88वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2003): सेवाओं पर कर का प्रावधान
  • 89वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2003): अनुसूचित जनजाति के लिए पृथक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की व्यवस्था।
  • 90वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2003): असम विधान सभा में अनुसूचित जनजातियों और गैर अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व बरक़रार रखते हुए बोडोलैंड, टेरिटोरियल कौंसिल क्षेत्र, गैर जनजाति के लोगों के अधिकारों की सुरक्षा।
  • 91वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2003): दल बदल व्यवस्था में संशोधन, केवल सम्पूर्ण दल के विलय को मान्यता, केंद्र तथा राज्य में मंत्रिपरिषद के सदस्य संख्या क्रमशः लोक सभा तथा विधान सभा की सदस्य संख्या का 15 प्रतिशत होगा (जहां सदन की सदस्य संख्या 40-50 है, वहां अधिकतम 12 होगी)।
  • 92वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2003): संविधान की आंठवीं अनुसूची में बोडो, डोगरी, मैथली और संथाली भाषाओँ का समावेश।
  • 93वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2005): शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के नागरिकों के दाखिले के लिए 25 प्रतिशत सीटों के आरक्षण की व्यवस्था, संविधान के अनुच्छेद 15 की धरा 4 के प्रावधानों के तहत की गई है।
  • 94वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2006): इस अधिनियम के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद-164(1) को संशोधित करके छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में जनजातीय मामलों की देख-रेख हेतु पृथक् मंत्री की नियुक्ति का अनिवार्य प्रावधान किया गया है, जबकि बिहार को इससे बाहर कर दिया गया है। अब इस संशोधित सूची में ओडीशा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश हैं, जहां जनजातीय मामलों की देखरेख हेतु पृथक मंत्री की नियुक्ति की जानी अनिवार्य है।
  • 95वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2009): इस संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया है। इसके अंतर्गत लोक सभा एवं राज्य विधानसभाओं में आरक्षण की व्यवस्था को 10 वर्ष के लिए और आगे बढ़ा दिया गया है। 1999 के 79वें संविधान संशोधन द्वारा बढ़ाई 10 वर्ष की अवधि 25 जनवरी, 2010 को समाप्त हो गई। इससे पूर्व इसकी अवधि 10-10 वर्ष के लिए 8वें, 23वें, 45वें, 62वें एवं 79वें संविधान संशोधन द्वारा बढ़ाई जाती रही है।
  • 96वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2011): इस संविधान संशोधन द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची [अनुच्छेद 344(1) और अनुच्छेद 351] में 15वें स्थान पर आने वाली भाषा उड़िया का नाम परिवर्तन कर ओडिया कर दिया गया है।
  • 97वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2011): इस अधिनियम को 12 जनवरी, 2012 को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। इसके द्वारा संविधान के भाग-III में अनुच्छेद 19 के खण्ड (1) के उपखण्ड (ग) में या संघ के बाद या सहकारी समितियां शब्द जोड़ा गया है। भाग-IV में अनुच्छेद 43ख जोड़ा गया है तथा भाग-9क के पश्चात् भाग-9ख जोड़ा गया है। इनमें सहकारी समितियों के गठन, विनियमन एवं विधि संबंधी प्रावधान किए गए हैं।
  • 98वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2012): 118वां संविधान संशोधन विधेयक, 2012 जनवरी 2013 में राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् 98वां संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2012 बन गया। इस अधिनियम द्वारा भारत के संविधान के भाग-21 में अनुच्छेद-371झ के बाद एक नया अनुच्छेद-371ञ जोड़ा गया है। भाग-21 में अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध हैं। अनुच्छेद-371ञ कर्नाटक के राज्यपाल को हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के विकास हेतु कदम उठाने के लिए सशक्त करता है। इस क्षेत्र में गुलबर्गा, बीदर, रायचूर, कोप्पल, यादगीर एवं बेल्लारी जिले शामिल हैं।
  • 99वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2014): राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना भारत के संविधान (निन्यानबेवें संशोधन) अधिनियम, 2014 या 99 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम -2014 के साथ निन्यानवेवें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत के संविधान में संशोधन करके की गई थी, जिसे लोकसभा ने 13 जनवरी 2014 को और 14 अगस्त 2014 को राज्य सभा द्वारा पारित किया था। संविधान संशोधन अधिनियम के साथ-साथ, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 को भी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के कार्यों को विनियमित करने के लिए भारत की संसद द्वारा पारित किया गया था।
  • 100वां संविधान (संशोधन) अधिनियम (2015): 1 अगस्त 2015 को भारत और बांग्लादेश के बीच हुई भू-सीमा संधि के लिए 100वां संशोधन किया गया। इसके तहत दोनों देशों ने आपसी सहमति से कुछ भू-भागों का आदान-प्रदान किया। समझौते के तहत बांग्लादेश से भारत में शामिल लोगों को भारतीय नागरिकता भी दी गई।

इन्हें भी पढे: भारतीय संविधान के भाग, अनुच्छेद एवं अनुसूचियों की सूची

The post भारत के संविधान में किए गए प्रमुख संशोधनों की सूची appeared first on सामान्य ज्ञान (Samanya Gyan 2020).


2020 में पारित बिलों की सूची- List of important bills passed in the year 2020

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2020 में पारित बिलों की सूची- List of important bills passed in the year 2020

विधेयक का अर्थ

‘विधेयक’ अंग्रेजी के बिल (Bill) का हिन्दी रूपान्तरण है। इस लेख में ‘बिल’ शब्द का प्रयोग ‘संसद द्वारा पारित विधि’ के संबंध में किया गया है। इंग्लैंड की संसद ही आधुनिक काल में संसदीय पद्धति  को जन्मदाता माना जाता है।

संसद में विधायी प्रक्रिया The Legislative Process In Parliament

भारतीय संविधान ने वैधानिक विधि के लिए कुछ व्यवस्थाएं निश्चित की हुई हैं। इन व्यवस्थाओं के अतिरिक्त वैधानिक प्रक्रिया के विषय में विस्तृत विवरण लोकसभा और राज्यसभा के विधि नियमों में अंकित हैं। संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुसार वितीय विधेयक को छोड़कर कोई भी विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। दोनों सदनों में से पारित होने के बाद ही कोई विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। दोनों सदनों में विधेयक के संबंध में मतभेदों को दूर करने के लिए राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जा सकता है। इन प्रावधानों को छोड़कर वैधानिक विधि संसद की ओर से निर्मित नियमों पर आधारित है। दोनों सदनों में एक जैसी वैधानिक विधि की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक विधेयक को संसद में पास होने के लिए तीन वाचनों से गुजरना आवश्यक है।

संसद में पेश किये जाने वाले विधेयक दो तरह के होते हैं-

  1. सरकारी विधेयक,
  2. गैर-सरकारी विधेयक
सरकारी विधेयक गैर-सरकारी विधेयक
इसे संसद में मंत्री द्वारा पेश किया जाता है| इसे संसद में मंत्री के अलावा किसी भी सदस्य द्वारा पेश किया जाता है|
यह सरकार (सत्तारूढ़ दल) की नीतियों को प्रदर्शित करता है| यह सार्वजनिक विषयों पर विपक्षी दलों के मंतव्य (विचार) को प्रदर्शित करता है|
3. संसद द्वारा इसके पारित होने की पूरी उम्मीद होती है| इसके संसद में पारित होने की कम उम्मीद होती है|
संसद द्वारा सरकारी विधेयक अस्वीकृत होने पर सरकार को इस्तीफा देना पड़ सकता है| इसके अस्वीकृत होने पर सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है|
सरकारी विधेयक को संसद में पेश होने के लिए सात दिनों का नोटिस होना चाहिए| गैर-सरकारी विधेयक को संसद में पेश करने के लिए एक महीने का नोटिस होना चाहिए|
इसे संबंधित विभाग द्वारा विधि विभाग के परामर्श से तैयार किया जाता है| इसका निर्माण संबंधित सदस्य की जिम्मेदारी होती है|

विधेयक प्रस्तुत करना

संविधान के अनुच्छेद 107(1) के अनुसार धन या वित्तीय विधेयक से भिन्न साधारण विधेयक किसी भी सदस्य द्वारा किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। जो सदस्य विधेयक प्रस्तुत करता है, उसको एक मास की अग्रिम सूचना सदन के अध्यक्ष या सभापति को देनी पड़ती है। ऐसी सूचना के साथ ही विधेयक को पेश करने के कारण तथा उद्देश्य और विधेयक पर आने वाले व्यय का विवरण आदि वर्णित करना आवश्यक है। इसके बाद अध्यक्ष विधेयक को पेश करने की तिथि निश्चित करता है। निश्चित तिथि के अनुसार विधेयक को पेश किया जाता है। यदि इस अवस्था पर विधेयक का विरोध हो तो सदन का अध्यक्ष विधेयक पेश करने वाले तथा विरोधी सदस्यों को अपने-अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहता है। इसके पश्चात् उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से विधेयक के संबंध में निर्णय किया जाता है। सदन से आज्ञा मिल जाने पर संबंधित सदस्य विधेयक का शीर्षक पढ़ता है तथा विधेयक के आम सिद्धांतों की जानकारी सदन को देता है। इस अवस्था में विधेयक पर विस्तृत वाद-विवाद नहीं होता है। इस प्रकार विधेयक पेश किए जाने के पश्चात् इसे सरकारी गजट में प्रकाशित कर दिया जाता है और छपी हुई प्रति प्रत्येक सदस्य को दी जाती है। अतः इस तरह विधेयक प्रथम पठन के बाद दूसरे पठन में प्रवेश करता है।

विधेयक को पेश करने की उपरोक्त विधि के अतिरिक्त अध्यक्ष किसी विधेयक की सरकारी गजट में प्रकाशित करने की आज्ञा दे सकता है और ऐसी स्थिति में विधेयक की सदन में पेश करने की आवश्यकता नहीं होती तथा विधेयक का दूसरा पठन आरम्भ कर दिया जाता है। प्रायः सरकारी विधायक को गजट में प्रकाशित कर दिया जाता है और इस विधेयक को प्रत्यक्ष रूप में दूसरे पठन से ही आरम्भ किया जाता है। इसका कारण यह है कि सरकारी विधेयकों को सदन द्वारा स्वीकृति प्राप्त होने के प्रति कोई संदेह नहीं होता है।

वार्ष 2020 में पारित मत्वपूर्ण विधेयकों की सूची List of important bills passed in the year 2020

जम्मू एवं कश्मीर आधिकारिक भाषा बिल, 2020 (The Jammu and Kashmir Official Languages Bill, 2020)

मंत्रालय गृह मंत्रालय
लोकसभा में प्रस्तावित 22 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 22 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 23 सितंबर 2020

विदेशी योगदान (रेगुलेशन) संशोधन बिल, 2020 The Foreign Contribution (Regulation) Amendment Bill, 2020

लोकसभा में 22 सितंबर, 2020 को जम्मू एवं कश्मीर आधिकारिक भाषा बिल, 2020 को पेश किया गया। बिल कश्मीरी, डोगरी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी को जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में आधिकारिक उद्देश्य से इस्तेमाल होने वाली आधिकारिक भाषाएं घोषित करता है। यह प्रावधान उस तारीख से लागू होगा, जिस तारीख को केंद्र शासित प्रदेश का एडमिनिस्ट्रेटर अधिसूचित करेगा। बिल कहता है कि केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा इन आधिकारिक भाषाओं में काम करेगी। बिल स्पष्ट करता है कि एक्ट के लागू होने से पहले जिन प्रशासनिक और विधायी उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल होता था, उनके लिए अब भी अंग्रेजी का इस्तेमाल होता रहेगा।

मंत्रालय गृह मंत्रालय
लोकसभा में प्रस्तावित 20 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 21 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 23 सितंबर 2020

लोकसभा में 20 सितंबर, 2020 को विदेशी योगदान (रेगुलेशन) संशोधन बिल, 2020 को प्रस्तावित किया गया। यह बिल विदेशी योगदान (रेगुलेशन) एक्ट, 2010 में संशोधन करता है। एक्ट व्यक्तियों, संगठनों और कंपनियों के विदेशी योगदान की मंजूरी और उपयोग को रेगुलेट करता है। विदेशी योगदान किसी विदेशी स्रोत से किसी करंसी, सिक्योरिटी या आर्टिकल (एक निर्दिष्ट मूल्य से अधिक) के दान या ट्रांसफर को कहा जाता है।

एक्ट के अंतर्गत चुनावी उम्मीदवार, अखबार के संपादक या पब्लिशर, जज, सरकारी कर्मचारी (गवर्नमेंट सर्वेंट), विधायिका का कोई सदस्य और राजनैतिक दल, इत्यादि लोगों के विदेशी योगदान देने पर पाबंदी है। बिल इस सूची में लोक सेवक (पब्लिक सर्वेंट्स) को शामिल करता है (जैसा भारतीय दंड संहिता में परिभाषित है)। पब्लिक सर्वेंट्स में ऐसा कोई भी व्यक्ति शामिल है जो सरकार की सेवा या वेतन पर है या उसे किसी लोक सेवा के लिए सरकार से मेहनताना मिलता है।

सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 The Occupational Safety, Health and Working Conditions Code, 2020

मंत्रालय श्रम एवं रोजगार
लोकसभा में प्रस्तावित 19 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 22 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 23 सितंबर 2020

श्रम और रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने 19 सितंबर, 2020 को लोकसभा में सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 को पेश किया। यह संहिता सामाजिक सुरक्षा से जुड़े नौ कानूनों, जिनमें कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड एक्ट, 1952, मातृत्व लाभ एक्ट, 1961 और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा एक्ट, 2008 का आदि जैसे जगाह लेती है। सामाजिक सुरक्षा उन उपायों को कहा जाता है जो श्रमिकों को स्वास्थ्य सेवा संबंधी सुविधा और आय सुरक्षा के प्रावधान को सुनिश्चित करते हैं।

सामाजिक सुरक्षा योजनाएं: संहिता के अंतर्गत केंद्र सरकार श्रमिकों के लाभ के लिए विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को अधिसूचित कर सकती है। इनमें कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड (ईपीएफ) योजना, कर्मचारी पेंशन योजना (ईपीएस) और कर्मचारी डिपॉजिट लिंक्ड इंश्योरेंस (ईडीएलआई) योजना शामिल हैं। ये क्रमशः प्रॉविडेंट फंड, पेंशन फंड और बीमा योजना प्रदान करती हैं। सरकार निम्नलिखित को भी अधिसूचित कर सकती है: (i) बीमारी, मातृत्व और अन्य लाभ प्रदान करने के लिए कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) योजना, (ii) रोजगार के पांच वर्ष पूर्ण होने (या कुछ मामलों में पांच वर्ष से कम होने पर, जैसे पत्रकार और निश्चित अवधि के श्रमिक) पर श्रमिकों को ग्रैच्युटी, (iii) महिला कर्मचारियों को मातृत्व लाभ, (iv) भवन निर्माण और निर्माण श्रमिकों के कल्याण के लिए सेस, और (v) व्यवसायगत चोट या बीमारी की स्थिति में कर्मचारियों और उनके आश्रितों को मुआवजा।

औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक, 2020 The Industrial Relations Code Bill, 2020

मंत्रालय श्रम एवं रोजगार
लोकसभा में प्रस्तावित 19 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 22 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 23 सितंबर 2020

लोकसभा में 19 सितंबर, 2020 को औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 को पेश किया गया। यह संहिता तीन श्रम कानूनों (i) औद्योगिक विवाद एक्ट, 1947, (ii) ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 और (iii) औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) एक्ट, 1946 का स्थान लेती है। संहिता के अंतर्गत, ट्रेड यूनियन के सात या उससे अधिक सदस्य उसे रजिस्टर करने का आवेदन कर सकते हैं। कम से कम 10% सदस्यों वाली या 100 श्रमिकों वाली (इनमें से जो भी कम हो) ट्रेड यूनियन्स रजिस्टर की जाएंगी। केंद्र और राज्य सरकार ट्रेड यूनियन या ट्रेड यूनियन्स के परिसंघ को क्रमशः केंद्रीय या राज्य ट्रेड यूनियन्स के रूप में मान्यता दे सकती है।

व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियां संहिता, 2020

मंत्रालय श्रम एवं रोजगार
लोकसभा में प्रस्तावित 19 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 22 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 23 सितंबर 2020

श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने 19 सितंबर, 2020 को लोकसभा में व्यवसागत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियां संहिता, 2020 को पेश किया। संहिता स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं कार्य स्थितियों को रेगुलेट करने वाले 13 मौजूदा एक्ट्स को एकीकृत करती है। इनमें कारखाना एक्ट, 1948, खदान एक्ट, 1952 और कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक (रेगुलेशन और उन्मूलन) एक्ट, 1970 शामिल हैं।

संहिता न्यूनतम 10 श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होगी। यह सभी खदानों एवं डॉक्स पर और उन इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होगी जहां जोखिमपरक या जानलेवा किस्म के कार्य किए जाते हैं (केंद्र सरकार इन्हें अधिसूचित कर सकती है)। संहिता के कुछ प्रावधान जैसे स्वास्थ्य और कार्य स्थितियां सभी कर्मचारियों पर लागू होंगे। कर्मचारियों में श्रमिक और प्रबंधकीय, प्रशासनिक या सुपरवाइजरी जैसे कार्यों से वेतन अर्जित करने वाले सभी लोग शामिल होंगे।

कराधान एवं अन्य कानून (कुछ प्रावधानों से छूट) अध्यादेश, 2020 The Taxation and Other Laws (Relaxation and Amendment of Certain Provisions) Bill, 2020

मंत्रालय वित्त
लोकसभा में प्रस्तावित 18 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 19 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 22 सितंबर 2020

इस विधेयक के जरिये पीएम केयर्स फंड में उसी तरह का कर लाभ देने का प्रावधान किया गया है जिस प्रकार की कर छूट प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष में उपलब्ध है. कराधान एवं अन्य कानून (कुछ प्रावधानों से छूट) अध्यादेश, 2020 को मार्च में लाया गया था. विधेयक पर हुई संक्षिप्त चर्चा का जवाब देते हुए, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि कोविड-19 के दौरान वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और आयकर अधिनियम के तहत विभिन्न अनुपालन समय सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए अध्यादेश लाना जरूरी हो गया था।

दि इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2020 The Insolvency and Bankruptcy Code (Second Amendment) Bill, 2020

मंत्रालय वित्त
राज्यसभा में प्रस्तावित 15 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 19 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 21 सितंबर 2020

संसद ने ‘इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2020’ को मंजूरी दे दी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) ने कहा कि इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC) के तहत कर्ज भुगतान में चूक करने वाली कंपनियों और व्यक्तिगत गारंटी देने वालों के खिलाफ साथ-साथ दिवाला कार्रवाई चल सकती है।

क्वालिफाइड फाइनांशियल कॉन्ट्रैक्ट्स की द्वपक्षीय नेटिंग बिल, 2020 The Bilateral Netting of Qualified Financial Contracts Bill, 2020

मंत्रालय वित्त
लोकसभा में प्रस्तावित 14 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 20 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 23 सितंबर 2020

लोकसभा में 14 सितंबर, 2020 को क्वालिफाइड फाइनांशियल कॉन्ट्रैक्ट्स की द्विपक्षीय नेटिंग बिल, 2020 पेश किया गया। यह बिल उन क्वालिफाइड फाइनांशियल कॉन्ट्रैक्ट्स की द्विपक्षीय नेटिंग के लिए कानूनी संरचना प्रदान करता है जो ओवर द काउंटर डेरेवेटिव्स कॉन्ट्रैक्ट्स हैं। दो पक्षों के बीच सौदे से उत्पन्न दावों की भरपाई को नेटिंग कहा जाता है जिसमें एक पक्ष से दूसरे पक्ष को देय या प्राप्य राशि का निर्धारण किया जाता है। बिल क्वालिफाइड फाइनांशियल कॉन्ट्रैक्ट्स की नेटिंग को लागू करता है।

क्यूएफसी ऐसा कोई भी द्विपक्षीय कॉन्ट्रैक्ट है जिसे संबंधित अथॉरिटी ने क्यूएफसी के तौर पर अधिसूचित किया है। यह अथॉरिटी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी), इंश्योरेंस रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (इरडा), पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (पीएफआरडीए) या इंटरनेशनल फाइनांशियल सर्विसेज़ अथॉरिटी (आईएफएससीए) हो सकती है। केंद्र सरकार अधिसूचना के जरिए कुछ पक्षों के बीच या कुछ शर्तों वाले कॉन्ट्रैक्ट्स को क्यूएफसी की सूची से हटा सकती है।

महामारी रोग (संशोधन) बिल, 2020 Epidemic Diseases Amendment Bill 2020

मंत्रालय स्वास्थ्य
राज्यसभा में प्रस्तावित 14 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 19 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 21 सितंबर 2020

महामारी रोग (संशोधन) बिल, 2020 को 14 सितंबर, 2020 को राज्यसभा में पेश किया गया। बिल महामारी रोग एक्ट, 1897 में संशोधन करता है। एक्ट में खतरनाक महामारियों की रोकथाम से संबंधित प्रावधान हैं। बिल इस एक्ट में संशोधन करता है जिससे महामारियों से जूझने वाले स्वास्थ्यकर्मियों को संरक्षण प्रदान किया जा सके, तथा ऐसी बीमारियों को फैलने से रोकने के लिए केंद्र सरकार की शक्तियों में विस्तार करता है। बिल महामारी रोग (संशोधन) अध्यादेश को रद्द करता है जिसे 22 अप्रैल, 2020 को जारी किया गया था।

बिल स्वास्थ्य सेवा कर्मियों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित करता है जिन पर अपने कर्तव्यों का पालन करने के दौरान महामारियों के संपर्क में आने का जोखिम है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं: (i) पब्लिक और क्लिनिकल स्वास्थ्यसेवा प्रदाता जैसे डॉक्टर और नर्स, (ii) ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसे एक्ट के अंतर्गत बीमारी के प्रकोप की रोकथाम के लिए सशक्त किया गया है, और (iii) अन्य कोई व्यक्ति जिसे राज्य सरकार ने ऐसा करने के लिए नामित किया है।

बैंकिंग विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2020 The Banking Regulation (Amendment) Bill, 2020

मंत्रालय वित्त
लोकसभा में प्रस्तावित 14 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 16 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 22 सितंबर 2020

राज्यसभा ने बैंकिंग विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2020 को ध्वनिमत से पारित कर दिया। इस बिल को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा करने और भारतीय रिज़र्व बैंक के नियामक ढांचे के तहत लाकर सहकारी बैंकों के कामकाज को विनियमित करने के उद्देश्य से पेश किया था। परंतु संसद जून में सत्र में नहीं थी, इसलिए उस महीने के 26 तारीख को राष्ट्रपति द्वारा इस आशय का एक अध्यादेश लागू किया गया था। विधेयक अध्यादेश को बदलने और बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 में संशोधन करना चाहता है। इसे 16 सितंबर को लोकसभा द्वारा पारित किया गया था। बिल ‘बैंकिंग गतिविधियों’ को नियंत्रित करता है और अन्य सहकारी समितियों पर लागू नहीं होता है। संविधान की सूची 1 की प्रविष्टि 45 केंद्र सरकार को “बैंकिंग” के लिए कानून बनाने का अधिकार देती है।

मंत्रियों के वेतन और भत्ते का संशोधन (संशोधन) अध्यादेश, 2020, The Salaries and Allowances of Ministers (Amendment) Ordinance, 2020

मंत्रालय संसदीय मामले
लोकसभा में प्रस्तावित 14 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 15 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 18 सितंबर 2020

सरकार ने एक वर्ष के लिए सांसदों के कुछ भत्तों में कटौती के लिए 1954 के एक्ट के कुछ अधिसूचित नियमों में भी संशोधन किए हैं। इनमें निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और कार्यालयी भत्ता शामिल हैं। वेतन तथा भत्तों में उपरिलिखित परिवर्तन एक वर्ष के लिए किए गए हैं जोकि 1 अप्रैल, 2020 से प्रभावी हैं। वेतन-भत्तों में कटौतियों का उद्देश्य यह है कि केंद्र को कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए वित्तीय संसाधन हासिल हों।

आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 The Essential Commodities (Amendment) Bill, 2020

मंत्रालय उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण
लोकसभा में प्रस्तावित 14 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 15 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 22 सितंबर 2020

संसद ने आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 को पारित कर दिया है. इसके तहत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है।

भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद (संशोधन) विधेयक, 2020 The Indian Medicine Central Council (Amendment) Bill, 2020

मंत्रालय आयुर्वेदा, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिध्द और गृहप्रवेश
लोकसभा में प्रस्तावित 14 सितंबर 2020
लोकसभा में पारित 21 सितंबर 2020
राज्यसभा में पारित 18 सितंबर 2020

राज्य सभा ने आज होम्योपैथी केंद्रीय परिषद संशोधन विधेयक, 2020 और भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद संशोधन विधेयक, 2020 को पारित कर दिया। होम्योपैथी केंद्रीय परिषद संशोधन विधेयक होम्योपैथी केंद्रीय परिषद अधिनियम, 1973 में संशोधन किया गया है। इस अधिनियम में केंद्रीय होम्योपैथी परिषद की व्यवस्था की गई है जो होम्योपैथिक शिक्षा और प्रेक्टिस को नियंत्रित करेगी। यह विधेयक अप्रैल में जारी होम्योपैथी केंद्रीय परिषद संशोधन अध्यादेश का स्थान लेगा। इसके तहत केंद्रीय परिषद की अवधि को दो साल से बढ़ाकर तीन साल करने के लिए 1973 के कानून में संशोधन किया गया है।

भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद संशोधन विधेयक, 2020 को 1970 के भारतीय चिकित्‍सा केन्‍द्रीय परिषद कानून में संशोधन के लिए लाया गया है। यह अधिनियिम आर्युवेद, योग और नेचुरोपैथिक सहित भारतीय चिकित्‍सा पद्धति की शिक्षा और अभ्‍यास को नियंत्रित करता है।

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अफ़्रीका महाद्वीप के सभी देशों के नाम, राजधानी और उनकी मुद्राओं की सूची

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अफ़्रीका के देश, राजधानी और उनकी मुद्राएं | African Countries, Capitals and Currencies

अफ़्रीका महाद्वीप के प्रमुख देश, राजधानी एवं उनकी मुद्राएं: (Name of African Countries, Capitals and Currencies List in Hindi)

अफ़्रीका महाद्वीप के बारे में सामान्य ज्ञान:

अफ़्रीका पृथ्वी पर स्थित विश्व के सात महाद्वीपों में से एक है। अफ़्रीका महाद्वीप क्षेत्रफल के आधार पर एशिया के बाद दुनिया का दूसरा बड़ा महाद्वीप है। अफ्रीका महाद्वीप में कुल 54 देश है। सुडान अफ्रीका महाद्वीप का सबसे बड़ा और सेशेल्स सबसे छोटा देश है। विकिपीडिया के अनुसार अफ़्रीका महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल लगभग 3,02,21,532 किमी2 (11,668,598.7 वर्ग मील) है। यह 37°14′ उत्तरी अक्षांश से 34°50′ दक्षिणी अक्षांश एवं 17°33′ पश्चिमी देशान्तर से 51°23′ पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है।

अफ्रीका महाद्वीप के उत्तरी भाग में भूमध्यसागर एवं यूरोप महाद्वीप, पश्चिमी भाग में अंध महासागर, दक्षिणी भाग में दक्षिण महासागर एवं भाग में अरब सागर एवं हिन्द महासागर स्थित हैं। विषुवत रेखा अफ्रीका महाद्वीप के बीच से होकर गुजरती है। अफ्रीका दक्षिण की अपेक्षा उत्तर में अधिक चौड़ा है। इस महाद्वीप में विशाल मरुस्थल, अत्यन्त घने वन, विस्तृत घास के मैदान, बड़ी-बड़ी नदियाँ व झीलें तथा विचित्र जंगली जानवर हैं।

कौन-सा सागर यूरोप को अफ्रीका से अलग करता है?

जिब्राल्टर जलडमरूमध्य सागर अफ्रीका महाद्वीप को उत्तरी भाग से यूरोप महाद्वीप से अलग करता है। पूर्व में स्वेज भूडमरूमध्य इसे एशिया से जोड़ता है तथा स्वेज नहर इसे एशिया से अलग करती है।

अफ्रीका महाद्वीप की प्रमुख नदियों की सूची:

अफ्रीका महाद्वीप की प्रमुख नदियाँ इस प्रकार है: अफ्रीका महाद्वीप में स्थित नील नदी दुनिया की सबसे लम्बी नदी है। नील नदी की लम्बाई लम्बाई 6,853 कि.मी. है। कांगो अफ़्रीका की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। नाइजर अफ़्रीका की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। जैम्बेजी अफ़्रीका की चौथी सबसे लम्बी नदी है। लिम्पोपो, ओरंज, नीली नील, असबास, सोबात कांगो, सेनेगल, किनाने, जूना, रुबमा, तथा शिबेली अफ्रीका महाद्वीप की अन्य प्रमुख नदियाँ है।

यहां पर अफ्रीका महाद्वीप के प्रमुख देशों के नाम, राजधानी एवं उनकी मुद्राओं की सूची की सूची दी गई हैं। सामान्यतः इस सूची से सम्बंधित कई प्रश्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते है। यदि आप विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे: आईएएस, शिक्षक, यूपीएससी, पीसीएस, एसएससी, बैंक, एमबीए एवं अन्य सरकारी नौकरियों के लिए तैयारी कर रहे हैं, तो आपको अफ्रीका के प्रमुख देश, उनकी राजधानी एवं उनकी मुद्राओं के बारे में अवश्य पता होना चाहिए।

अफ्रीका महाद्वीप के प्रमुख देश, राजधानी एवं मुद्राओं की सूची:

देश का नाम उनकी राजधानी मुद्रा का नाम
अंगोला लुआंडा अंगोलियन क्वांजा
अल्जीरिया अल्जियर्स अल्जीरियन दीनार
इथियोपिया अदिस अबाबा बिर्र (ETB)
एरिट्रिया अस्मारा नक्फा (ERN)
कांगो प्रजातान्त्रिक गणराज्य किंशासा कांगो फ्रेंक (CDF)
केन्या नैरोबी कीनियाई शिलिंग
केप वर्डे प्राया (Praia) केप वर्डी एस्कुडो (Escudo)
कैमरून युओंडे (Yaounde) पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक (West African CFA Franc)
कोट-डी-आइवर यामोसुकरू (Yamoussoukro) पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक (West African CFA Franc)
कोमोरोस मोरोनी कोमोरियन फ्रेंक  (KMF)
गिनी कोनाक्री गिनी फ्रेंक
गिनी-बिसाऊ बिसाऊ पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक (West African CFA Franc)
गैबोन लिब्रेविल्ले (Libreville) मध्य अफ्रीकी फ्रेंक (CFA Franc)
गैम्बिया बांजुल डलासी (GMD)
घाना अक्रा घाना सेडी (Cedi)
चाड एन’द्जमेना (N’Djamena) मध्य अफ्रीकी फ्रेंक (CFA Franc)
जाम्बिया लुसाका जाम्बियाई क्वाचा  (ZMK)
ज़िम्बाब्बे हरारे ज़िम्बाब्बे डॉलर (ZWD)
टोगो लोम मध्य अफ्रीकी फ्रेंक (CFA Franc)
ट्यूनीशिया ट्युनिस ट्यूनिशियाई दीनार
जिबूती जिबूती फ्रेंक (DJF)
तंजानिया डोडोमा तंजानियन शिलिंग (Schilling)
दक्षिण अफ्रीका प्रिटोरिया दक्षिण अफ्रीकी रेंड (ZAR)
दक्षिण सूडान दक्षिण सूडानी पाउंड (SSP)
नाइजर निआमी पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक (West African CFA Franc)
नाइजीरिया अबूजा नायरा
नामीबिया विंडहोक नामिबियन डॉलर
पश्चिमी सहारा लायोउने (Laayoune) मोरक्कन दिरहम (पश्चिमी सहारा का ज्यादातर भाग पर वर्तमान में मोरक्को राज्य द्वारा प्रशासित है)
बुरुंडी बुजुम्बुरा बुरुंडी फ्रेंक
बुर्किना फासो ओगाडेगू (Ouagadougou) पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक(West African CFA Franc)
बेनिन पोर्टो-नोवो पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक (West African CFA Franc)
बोत्सवाना गैबोरोन पूला (BWP)
भूमध्यसागरीय गिनी मलाबो मध्य अफ्रीकी फ्रेंक (CFA Franc)
मध्य अफ़्रीकी गणराज्य  बैंगुई (Bangui) मध्य अफ्रीकी फ्रेंक (CFA Franc)
मलावी लिलोंग्वे क्वाचा
माली बोमाको पश्चिमी अफ्रीकी फ्रेंक (West African CFA Franc)
मिस्र काहिरा मिस्र पाउंड  (EGP)
मेडागास्कर अंतानानारिवो मालागासी अरियरी (Malagasy ariary)
मॉरीशस मॉरिशस मॉरिशियाई रूपया
मोज़ाम्बिक मापुतो मोजम्बियन मेटिकल
मोरक्को रबात  मोरक्को दिरहम
मौरीटानिया नौकचोत (Nouakchott) औगुइया ( Ouguiya)
युगांडा कम्पाला यूगांडा शिलिंग
रवांडा किगली रवांडा फ्रेंक
लाइबेरिया मानरोविआ लाइबेरियन डॉलर
लीबिया त्रिपोली लीबियन दीनार
लेसोथो मसेरु लेसेथो लोटी
साओ तोमे और प्रिन्सिपी साओ टोम डोबरा
सिएरा लियोन फ्रीटाउन सिएरा लियोनियन लियोन (SLL)
सूडान खार्तूम सूडानी पाउंड (SDG)
सेनेगल डकार मध्य अफ्रीकी फ्रेंक (CFA Franc)
सेशेल्स विक्टोरिया सेशेल्स रूपया  (SCR)
सोमालिया मोगादिशु सोमाली शिलिंग
स्वाजीलैंड म्बाबने लिलान्गेनी

यह भी पढे: विश्व के प्रमुख देश, राजधानी एवं उनकी मुद्राओं की सूची

नोट: प्रिय पाठकगण यदि आपको इस पोस्ट में कंही भी कोई त्रुटि (गलती) दिखाई दे, तो कृपया कमेंट के माध्यम से उस गलती से हमे अवगत कराएं, हम उसको तुरंत सही कर देंगे।

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विश्व के प्रमुख मरुस्थल (रेगिस्तानी) के नाम और उनके स्थान की सूची

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विश्व के प्रमुख मरुस्थल (रेगिस्तानी) की सूची | Major Deserts of the World in Hindi

विश्व के प्रमुख मरुस्थलो के नाम और उनके स्थान की सूची: (List of World’s Desert Names and their places in Hindi)

मरुस्थल या रेगिस्तान किसे कहते है?

मरुस्थल या रेगिस्तान ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों को कहा जाता है जहां जलपात (वर्षा तथा हिमपात का योग) अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा काफी कम होती है। प्राय: (गलती से) रेतीले रेगिस्तानी मैदानों को मरुस्थल कहा जाता है जोकि गलत है। यह बात और है कि भारत में सबसे कम वर्षा वाला क्षेत्र (थार) एक रेतीला मैदान है। मरूस्थल (कम वर्षा वाला क्षेत्र) का रेतीला होना आवश्यक नहीं। मरुस्थल का गर्म होना भी आवश्यक नहीं है। अंटार्कटिक, जोकि बर्फ से ढका प्रदेश है, विश्व का सबसे बड़ा मरुस्थल है। विश्व के अन्य देशों में कई ऐसे मरुस्थल हैं जो रेतीले नहीं है।

मरुस्थल के प्रकार:
मरुस्थलों को वर्षा, औसत तापमान, साल में बिना वर्षा (या हिमपात) के दिनों की संख्या इत्यादि के आधार पर बांटा जा सकता है। भारत का थार मरुस्थल एक ऊष्ण कटिबंधीय मरुस्थल है जिसके कारण ही यह रेतीला भी है।

जलपात की दृष्टि से:
वर्षा तथा हिमपात के कुल को जलपात कहते हैं। यदि किसी क्षेत्र का जलपात 200 मिलिमीटर से भी कम हो तो वह एक प्रकार का प्रदेश है। इसी प्रकार 250-500 मिलिमीटर तक के क्षेत्र को अलग वर्ग में रखा जा सकता है। इसी प्रकार अन्य क्षेत्र भी वर्गीकृत किए जा सकते हैं।

तापमान की दृष्टि से:
इन क्षेत्रों को तापमान की दृष्टि से भी वर्गीकृत किया जा सकता है।

  • उष्ण कटिबंधीय मरुस्थल
  • उपोष्ण कटिबेधीय मरुस्थल
  • शीत कटिबंधीय मरुस्थल

विश्व के प्रमुख मरुस्थलो की सूची:

नाम देश क्षेत्रफल (किमी.)
सहारा मरुस्थल उत्तरी अफ्रीका 90,65,000
लिबयान मरुस्थल उत्तरी अफ्रीका 16,83,500
आस्ट्रेलियन मरुस्थल ऑस्ट्रेलिया 15,54,000
ग्रेट विक्टोरिया मरुस्थल ऑस्ट्रेलिया 3,38,000
अटाकामा मरुस्थल उत्तरी चिली 1,80,000
पेंटागोनियन मरुस्थल अर्जेंटीना 6,73,000
सीरियन मरुस्थल अरब 3,23,800
अरब रेगिस्तान मरुस्थल अरब 2,30,00,00
गोबी मरुस्थल मंगोलिया 10,36,000
रब आल खाली मरुस्थल अरब 6,47,500
कालाहारी मरुस्थल बोत्स्वाना 5,18,000
ग्रेट सेंडी मरुस्थल ऑस्ट्रेलिया 3,40,000
ताकला माकन मरुस्थल चीन 3,27,000
अरुनता मरुस्थल ऑस्ट्रेलिया 310800
कराकुम मरुस्थल दक्षिण-पश्चिमी तुर्किस्तान 2,97,900
नूबियन मरुस्थल उत्तरी अफ्रीका 2,59,000
थार मरुस्थल उत्तरी-पश्चिमी भारत 2,59,000
किजिलकुल मरुस्थल मध्य तुर्किस्तान 2,33,100
तनामी मरुस्थल ऑस्ट्रेलिया 37,500
नेगेव मरुस्थल इजराइल 12,170
मोजावे मरुस्थल अमेरिका  –
दि ग्रेट बेसिन मरुस्थल अमेरिका 4,09,000
नामीब मरुस्थल नामीबिया 1,35,000
डेथ वैली मरुस्थल पूर्वी कैलिफ़ोर्निया  –
चिहोहुआ मरुस्थल उत्तरी अमेरिका 5,18,000
सिम्पसन मरुस्थल ऑस्ट्रेलिया 170,000
गिब्सन मरुस्थल पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया 156,000
मंगोलिया मरुस्थल एशिया व रुस के बीच 10,00,000
नूबियन मरुभूमि सूडान  –
मोजेव मरुस्थल संयुक्त राज्य अमेरिका  –
कालाहारी रेगिस्तान दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका 90,00,000
अटाकामा मरुस्थल चिली 1,05,000
रूब-अल-खाली मरुस्थल सऊदी अरब  –
सोनोरान मरुस्थल मैक्सिको  –

इन्हें भी पढ़े: विश्व की प्रमुख अंतरराष्ट्रीय रेखाएँ और महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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राजकोषीय घाटा – Fiscal Deficit

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राजकोषीय घाटा - Fiscal Deficit

सरकारी बजट घाटा

बजट घाटे से अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें सरकार का बजट व्यय सरकार की बजट प्राप्तियों से अधिक होता है। दूसरे शब्दों में बजट घाटा सरकार के कुल व्यय की कुल प्राप्तियों पर आधारित है। भारत सरकार के बजट से संबंधित मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन प्रकार के बजट घाटे होते है-

  • राजकोषीय घाटा
  • राजस्व घाटा
  • प्राथमिक घाटा

राजकोषीय घाटा क्या है?

यह सरकार के कुल खर्च और उधारी को छोड़ कुल कमाई के बीच का अंतर होता है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो राजकोषीय घाटा बताता है कि सरकार को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए कितने पैसों की जरूरत है। ज्‍यादा राजकोषीय घाटे का मतलब यह हुआ कि सरकार को ज्‍यादा उधारी की जरूरत पड़ेगी। राजकोषीय घाटे का आसान शब्‍दों में मतलब यह है कि सरकार को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए कितना उधार लेने की जरूरत पड़ेगी। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए बहुत सारे उपाय किए जा सकते हैं। सब्सिडी के रूप में सार्वजनिक खर्च को घटाना, बोनस, एलटीसी, लीव एनकैशमेंट इत्‍याद‍ि को घटाना शामिल हैं।

अन्य शब्दो में,

  • सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिये कितनी उधारी की ज़रूरत होगी। कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता है। राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है।
  • पूंजीगत व्यय लंबे समय तक इस्तेमाल में आने वाली संपत्तियों जैसे-फैक्टरी, इमारतों के निर्माण और अन्य विकास कार्यों पर होता है। राजकोषीय घाटे की भरपाई आमतौर पर केंदीय बैंक (रिजर्व बैंक) से उधार लेकर की जाती है या इसके लिये छोटी और लंबी अवधि के बॉन्ड के जरिये पूंजी बाजार से फंड जुटाया जाता है।

राजकोषीय घाटे का इतिहास:

लाघभग तीन दशक पहले की बात करें तो देश में बहुत कम लोगों ने राजकोषीय घाटे का नाम सुना होगा। इस शब्द का आधिकारिक तौर पर प्रयोग पहली बार वर्ष 1989-90 की आर्थिक समीक्षा में किया गया था। वर्ष 1991 के आर्थिक संकट के बाद स्थिरीकरण की प्रक्रिया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के कार्यक्रमों के बीच इसकी चर्चा और भी अधिक होने लगी। निश्चित तौर पर हमारी सरकार ने उस वक्त इसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन आज वक्त बदला है और आज राजकोषीय घाटे में कमी लाना सरकार की आर्थिक नीतियों का एक प्रमुख लक्ष्य है। अतः बीते 35 वर्ष के दौरान देश में राजकोषीय घाटे के दायरे की समीक्षा करना काफी जानकारीपरक साबित हो सकता है।

राजकोषीय घाटा की परिभाषा:

राजकोषीय घाटे का संबंध सरकार के राजस्व तथा पूँजीगत दोनों प्रकार तथा व्ययों तथा राजस्व और उधार छोड़कर बाकी पूँजीगत प्राप्तियों से है अन्य शब्दों में राजकोषीय घाटा कुल व्यय (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) और उधार को छोड़कर कुल प्राप्तियों का अंतर है
सूत्र के रूप में,
राजकोषीय घाटा = कुल व्यय (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) – उधार छोड़कर कुल प्राप्तियाँ
अथवा
राजस्व घाटा + पूंजीगत व्यय – उधर छोड़कर पूंजीगत प्राप्तियाँ
अथवा उधार/ऋण
राजकोषीय घाटा सरकार द्वारा आवश्यक उधारों का अनुमान है राजकोषीय घाटे का अधिक होना इस बात का प्रतीक है की सरकार को ऋण लेना पड़ेगा।

राजकोषीय घाटे के अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

राजकोषीय घाटे का अर्थ है सरकार द्वारा लिए जाने वाले उधार/ऋण में वृद्धि। इस बढ़ते ऋण के निम्नलिखित प्रभाव को सकते है।

  • स्फीतिकारी जाल-सरकार द्वारा लिए जाने वाले ऋण के कारण मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होती है। मुद्रा पूर्ति में वृद्धि के कारण कीमत स्तर मे वृद्धि होती है। कीमत स्तर में वृद्धि उच्च लाभ की आशा में निवेश को प्रेरित करती है, परंतु जब कीमत स्तर भयप्रद सीमाओं तक बढ़ने लगता है तो निवेश में कमी आती है, जिससे एक स्फीतिकारी जाल बन जाता है। एसी स्थिति में सकाल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत के रूप में एक लंबी समय अवधि के लिए राजकोषीय घाटा बना रहता है तथा यहाँ दीर्घवधि आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है
  • भावी पीढ़ी पर बोझ-राजकोषीय घाटे के फलसावरूप भावी पीढ़ी को विरासत में एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था मिलती है, जिसमे सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर कम रहती है, क्योंकि सकल घरेलू उत्पादक का बड़ा हिस्सा ऋणों के भुगतान में खर्च को जाती है।
  • सरकारी विश्वसनीयता मे कमी-उच्च राजकोषीय घाटे के कारण घरेलू तथा अंतराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में सरकार की विश्वनीयता में कमी आ जाती है इससे अर्थव्यवस्था की क्रेडिट रेटिंग गिरने लगती है। विदेशी निवेशक अर्थव्यवस्था में निवेश करना बंद करते हैं और आयात महँगे हो जाते हैं। इससे भुगतान शेष का घाटा भी बढ़ता जाता है इसके कारण भी सरकार को और ऋण ले पद सकते हैं या विधेशी प्रत्यक्ष निववेश के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना पद सकता है। यह ऋण के दुष्चक्र को जन्म देता है।
  • ऋण जाल/ऋण फंदा-सकल घरेलू उत्पाद के बढ़ते प्रतिशत के रूप में निरंतर उच्च राजकोषीय घाटे के कारण एसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जहां-
  • उच्च राजकोषीय घाटे के कारण सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर कम होती है।
  • निम्न सकाल घरेलू उत्पाद समृद्धि के कारण राजकोषीय घाटा उच्च होता एसी स्थितियों में सरकारी व्यय का बढ़ा भाग निवेश व्यय पर नहीं, बल्कि ऋणों के भुगतान व ब्याजों के भुगतान पर खर्च हो जाता है।

राजस्‍व घाटा का क्या है?

राजस्व घाटा तब होता है जब सरकार के कुल खर्च उसकी अनुमानित आय से ज्‍यादा होते हैं। सरकार के राजस्व खर्च और राजस्व प्राप्तियों के बीच के अंतर को राजस्व घाटा कहा जाता है। यहां ध्‍यान रखने वाली बात यह है कि खर्च और आमदनी केवल राजस्‍व के संदर्भ में होती है। रेवेन्‍यू डेफिसिट या राजस्‍व घाटा दिखाता है कि सरकार के पास सरकारी विभागों को सामान्‍य तरीके से चलाने के लिए पर्याप्‍त राजस्‍व नहीं है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो जब सरकार कमाई से ज्‍यादा खर्च करना शुरू कर देती है तो नतीजा राजस्‍व घाटा होता है। राजस्‍व घाटे को अच्‍छा नहीं माना जाता है। खर्च और कमाई के इस अंतर को पूरा करने के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है या फिर वह विनिवेश का रास्‍ता अपनाती है। रेवेन्‍यू डेफिसिट के मामले में अक्‍सर सरकार अपने खर्चों को घटाने की कोशिश करती है या फिर वह टैक्‍स को बढ़ाती है। आमदनी बढ़ाने के लिए वह नए टैक्‍सों को ला भी सकती है या फिर ज्‍यादा कमाने वालों पर टैक्‍स का बोझ बढ़ा सकती है।

राजस्व घाटा और राजकोषीय घाटे में अंतर

  • जब राजस्व व्यय, राजस्व प्राप्तियों से अधिक होता है तो इसे राजस्व घाटा कहा जाता है सूत्र के रूप में, राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ
  • दूसरी ओर बजट के अंतर्गत जब कुल व्यय कुल प्राप्तियों से अधिक होता है तो इस अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है
    राजकोषीय घाटा = कुल व्यय – (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर ऋणसे सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ)
    = (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) – (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ)
    = (राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ) + (पूँजीगत व्यय – गैर ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ)

प्राथमिक घाटा क्या है?

चालू वित्‍त वर्ष के राजकोषीय घाटे से पिछली उधारी के ब्‍याज को घटाने पर प्राथमिक घाटा मिलता है. जहां राजकोषीय घाटे में ब्‍याज भुगतान सहित सरकार की कुल उधारी शामिल होती है. वहीं, प्राथमिक घाटे यानी प्राइमरी डेफिसिट में ब्‍याज के भुगतान को शामिल नहीं किया जाता है. प्राइमरी डेफिसिट का मतलब यह हुआ कि सरकार को ब्‍याज के भुगतान को हटाकर खर्चों को पूरा करने के लिए कितने उधार की जरूरत है. जीरो प्राइमरी डेफिसिट ब्‍याज के भुगतान के लिए उधारी की जरूरत को दिखाता है. ज्‍यादा प्राइमरी डेफिसिट चालू वित्‍त वर्ष में नई उधारी की जरूरत को दर्शाता है. चूंकि यह पहले से ही उधारी के ऊपर की रकम होती है. इसलिए इसे घटाने के लिए वही उपाय करने होंगे जो राजकोषीय घाटे के मामले में लागू होते हैं।

इन्हें भी पढ़ें-

2019-2020 के संशोधित अनुमानों की तुलना में 2020-21 के बजट अनुमान

  • कुल व्यय: सरकार द्वारा 2020-21 में 30,42,230 करोड़ रुपए के व्यय का अनुमान है। यह 2019-20 के संशोधित अनुमानों से 12.7% अधिक है। कुल व्यय में से राजस्व व्यय के 26,30,145 करोड़ रुपए (11.9% की वृद्धि) और पूंजीगत व्यय के 4,12,085 करोड़ रुपए (18.1% की वृद्धि) होने का अनुमान है।
  • कुल प्राप्तियां: सरकार की प्राप्तियां 22,45,893 करोड़ रुपए अनुमानित हैं (उधारियों के अतिरिक्त), जिसमें 2019-20 के संशोधित अनुमान से 16.3% की वृद्धि है। प्राप्तियों और व्यय में इस अंतराल को उधारियों के जरिए कम किया जाएगा जोकि 7,96,337 करोड़ रुपए अनुमानित हैं। 2019-20 के संशोधित अनुमानों की तुलना में इसमें 3.8% की वृद्धि है।
  • राज्यों को हस्तांतरण: केंद्र सरकार द्वारा 2020-21 में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 13,90,666 करोड़ रुपए हस्तांतरित किए जाएंगे। यह 2019-20 के संशोधित अनुमानों से 17.1% अधिक है और इसमें (i) राज्यों को केंद्रीय करों से 7,84,181 करोड़ रुपए का हस्तांतरण किया जाएगा, और (ii) 6,06,485 करोड़ रुपए अनुदानों और ऋणों के रूप में दिए जाएंगे।
  • घाटे: 2020-21 में राजस्व घाटा जीडीपी के 2.7% पर और राजकोषीय घाटा 3.5% पर लक्षित है। प्राथमिक घाटा (जोकि ब्याज भुगतानों के अतिरिक्त राजकोषीय घाटा होता है) जीडीपी के 0.4% पर लक्षित है।
  • जीडीपी की वृद्धि का अनुमान: 2020-21 में नॉमिनल जीडीपी के 10% की दर से बढ़ने का अनुमान है। 2019-20 में नॉमिनल जीडीपी की वृद्धि दर 12% थी।

नोट: प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में घोषित किए गए बजटीय आबंटनों को बजटीय अनुमान कहा जाता है। वित्तीय वर्ष के अंत में प्राप्तियों और व्यय की अनुमानित राशि को संशोधित अनुमान कहा जाता है।

राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर भारत का अब तक का प्रदर्शन

  • आँकड़ों के मुताबिक मिश्रित घाटा, वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में जीडीपी के 6 फीसदी से बढ़कर दशक के मध्य तक 8 फीसदी और सन 1990-91 तक 8-9 फीसदी के स्तर पर आ गया। राजकोषीय असंतुलन बढ़ा। केंद्र सरकार को अक्सर सन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट के लिये प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार माना जाता है। माना जाता है कि पिछले वर्षों की ढीली राजकोषीय नीति उक्त संकट के लिये उत्तरदायी थी।
  • विदित हो कि इस संकट ने केंद्र सरकार को राजकोषीय समावेशन की शुरुआत करने के लिये प्रेरित किया और मिश्रित घाटे को सन 1990-91 के 9 फीसदी से अधिक के स्तर से घटाकर वर्ष 1996-97 में 6 फीसदी तक करने में सफलता मिली। लेकिन यह स्थिति बहुत लंबे समय तक नहीं बनी रही। वर्ष 1996-97 के बाद के पाँच सालों में संयुक्त राजकोषीय घाटा दोबारा 9.6 फीसदी के स्तर तक पहुँच गया।
  • वर्ष 2002-03 से लेकर अगले पाँच साल में इसमें भरी कमी देखी गई और यह 9.3 फीसदी से घटकर 4.7 फीसदी पर आ गया। इस दौरान राज्य और केंद्र दोनों ही स्तरों पर सकारात्मक प्रयास किये जा रहे थे। संसद ने राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन कानून को 2003 में पारित कर दिया था और सन 2004 में इसकी अधिसूचना भी जारी कर दी गई थी।
  • वर्ष 2004 में 12वें वित्त आयोग की अनुशंसा के बाद ऋण राहत को राज्यों से जोड़ दिया गया, लगभग सभी राज्यों ने यही किया। राज्यों के बिक्री कर को राज्य मूल्यवर्द्धित कर में तब्दील कर दिया गया और केंद्र के सेवा कर दायरे का भी समुचित विस्तार हुआ। राजकोषीय घाटा कम होने से ब्याज दर कम होती गई। इससे निवेश और वृद्घि को बल मिला। इसका असर राजस्व पर पड़ा और घाटा आगे चलकर और कम हो गया।

इन्हें भी पढ़ें-

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राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और उनसे सम्बंधित खेलो की सूची

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राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां | National and Internationals Cup or Trophies in Hindi

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और उनसे सम्बंधित खेलो की सूची: (List of National and Internationals Cup or Trophies in Hindi)

यहाँ पर सम्पूर्ण विश्व में खेले जाने वाले प्रमुख खेलो से सम्बंधित महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवम अंतर्राष्ट्रीय कप और ट्रॉफियों की सूची दी गयी है। सामान्यतः राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और खेलो से सम्बंधित प्रश्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते है और आगे भी पूछे जायेंगे। यदि आप विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे: आईएएस, शिक्षक, यूपीएससी, पीसीएस, एसएससी, बैंक, एमबीए एवं अन्य सरकारी नौकरियों के लिए तैयारी कर रहे हैं, तो आपको इन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और उनसे सम्बंधित खेलो के बारे में अवश्य पता होना चाहिए।

अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और उनसे सम्बंधित प्रमुख खेल:

कप और ट्रॉफियों के नाम खेलो के नाम वर्ष में स्थापित
हॉपमैन कप टेनिस 1989
अजलान शाह कप हॉकी 1983
एशिया कप क्रिकेट, हॉकी 1984
द एशेज क्रिकेट  1882–83
ऑस्ट्रेलियन ओपन टेनिस टूर्नामेंट लॉन टेनिस 1905
आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी हॉकी/ क्रिकेट 1998
कोरबिल्यन कप टेबल टेनिस (महिला) 1933
डेविस कप लॉन टेनिस 1900
उबेर कप बैडमिंटन (महिला) 1956
थॉमस कप बैडमिंटन (पुरुष) 1949
शारजाह कप क्रिकेट 1984
डर्बी (घोड़दौड़) हॉर्स रेस 1780
फ्रेंच ओपन लॉन टेनिस 1891
फीफा विश्व कप फुटबॉल 1991
जौहर कप हॉकी 2011
मर्डेका कप फुटबॉल 1957
राइडर कप गोल्फ 1927
प्रेसिडेंटस कप गोल्फ़ 1994
सोलहेम कप गोल्फ़ 1990
अमेरिकन कप यॉट रेसिंग 1851
कोलंबो कप फ़ुटबॉल 1952
डेविस कप टेनिस (पुरुष) 1900
फेड कप टेनिस (महिला) 1963
जूल्स रिमेट ट्रॉफी विश्व फुटबॉल (सॉकर) 1930
राइडर कप गोल्फ (पुरुष) 1927

इन्हें भी पढ़े: भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्षों की सूची

राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और उनसे सम्बंधित प्रमुख खेल:

कप और ट्रॉफियों के नाम खेलो के नाम वर्ष में स्थापित
एजरा कप पोलो 1880
आगा खान कप हॉकी 1958 – 1981 (समाप्त)
सी.के. नायडू ट्रॉफी क्रिकेट
देवधर ट्रॉफी क्रिकेट 1973-74
दिलीप ट्रॉफी क्रिकेट 1961-62
डी.सी. एम कप फुटबॉल 1962
डूरंड कप फुटबॉल 1888
ध्यानचंद ट्रॉफी हॉकी 2002
गावस्कर सीमा ट्रॉफी क्रिकेट  1996–97
ईरानी कप क्रिकेट 1959-60
रंगस्वामी कप हॉकी 1928
लाल बहादुर शास्त्री कप हॉकी 1950
रोवर्स कप फुटबॉल 1891
संतोष ट्राफी फुटबॉल 1941
सिंगर कप क्रिकेट 1995–96
सहारा कप क्रिकेट 1998
सुब्रतो कप फुटबॉल 1960
विजय मर्चेंट ट्राफी क्रिकेट 2002-03
वेलिंगटन ट्रॉफी रोइंग 1874
विल्स ट्रॉफी क्रिकेट 1991
एमसीसी ट्रॉफी हॉकी
नेहरू ट्रॉफी हॉकी 1982
रणजी ट्रॉफी क्रिकेट 1934
रोहिंटन बारिया ट्रॉफी क्रिकेट 1935

विभिन्न खेल तथा उनसे सम्बद्ध प्रमुख कप एवं ट्रॉफियां:

हॉकी:- हॉकी खेल हॉकी से संबंधित कप व ट्राफी

  1. आगा खाँ कप
  2. बेगम रसूल ट्रॉफी (महिला)
  3. महाराजा रणजीत सिंह गोल्ड कप
  4. नेहरू ट्रॉफी
  5. सिंधिया गोल्ड कप
  6. मुरुगप्पा गोल्ड कप
  7. वेलिंग्टन कप
  8. इंदिरा गांधी गोल्ड कप
  9. बेटन कप
  10. लेडी रतन टाटा ट्रॉफी ( महिला)
  11. गुरुनानक चैम्पियनशिप (महिला)
  12. ध्यानचन्द ट्रॉफी
  13. रंगास्वामी कप
फुटबॉल:- फुटबॉल खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी
  1. डूरंड कप
  2. रोवर्स कप
  3. डी० सी० एम० ट्रॉफी
  4. वी० सी० रॉय ट्रॉफी (राष्ट्रीय चैम्पियनशिप)
  5. संतोष ट्रॉफी (राष्ट्रीय चैम्पियनशिप)
  6. आई० एफ० ए० शील्ड
  7. सुब्रतो मुखर्जी कप
  8. सर आशुतोष मुखर्जी ट्रॉफी
  9. मर्डेका कप
क्रिकेट:- क्रिकेट खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी 
  1. दिलीप ट्रॉफी सी० के० नायडू ट्रॉफी
  2. रानी झाँसी ट्रॉफी
  3. देवधर ट्रॉफी
  4. रणजी ट्रॉफी (राष्ट्रीय चैम्पियनशिप)
  5. ईरानी ट्रॉफी
  6. जी०डी० बिड़ला ट्रॉफी
  7. रोहिन्टन बारिया ट्रॉफी
टेबल टेनिस:- टेबल टेनिस खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी 
  1. बनविले कप (पुरुष)
  2. जय लक्ष्मी कप (महिला)
  3. राजकुमारी चेलैन्ज कप (जूनियर महिला)
  4. रामानुज ट्रॉफी (जूनियर पुरुष)
बैडमिंटन:- बैडमिंटन खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी 
  1. नारंग कप
  2. चड्ढा कप
  3. अमृत दीवान कप
बास्केटबॉल:- बास्केटबॉल खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी
  1. बंगलौर व्ल्यूज चेलैन्ज कप
  2. नेहरू कप
  3. फेडरेशन कप

ब्रिज:- ब्रिज खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी 

  1. रामनिवास रुइया
  2. चेलैन्ज गोल्ड ट्रॉफी
  3. होल्कर ट्रॉफी
पोलो:- पोलो खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी 
  1. ऐजार कप
  2. पृथ्वीपाल सिंह कप
  3. राधा मोहन कप
  4. क्लासिक कप
गोल्फ:- गोल्फ खेल से संबंधित कप व ट्रॉफी

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