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परमार राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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परमार राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य | Parmar Dynasty History in Hindi

परमार राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Parmar Dynasty History and Important Facts in Hindi)

परमार राजवंश:

परमार वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। इस राजवंश का अधिकार धार और उज्जयिनी राज्यों तक था। ये 9वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक शासन करते रहे। परमार वंश का आरम्भ नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ती) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज द्वारा हुआ था। इस वंश के शासकों ने 800 से 1327 ई. तक शासन किया। मालवा के परमार वंशी शासक सम्भवतः राष्ट्रकूटों या फिर प्रतिहारों के समान थे।

परमार का अर्थ:

परमार का शाब्दिक अर्थ शत्रु को मारने वाला होता है। प्रारम्भ में परमारों का शासन आबू के आस-पास के क्षेत्रों तक ही सीमित था। प्रतिहारों की शक्ति के ह्रास के उपरान्त परमारों की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि हुई।

परमार राजवंश का इतिहास:

परमार (पँवार) एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारंभिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख राजपूत जाति के एक गोत्र रूप में मिलता है। परमार सिंधुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी पुस्तक ‘नवसाहसांकचरित’ में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये भाबू पर्वत के अग्निकुंड से एक वीर पुरुष का निर्माण किया जिनके पूर्वज सुर्यवंशी क्षत्रिय थे। इस वीर पुरुष का नाम परमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा। परमार के अभिलेखों में बाद को भी इस कहानी का पुनरुल्लेख हुआ है। इससे कुछ लोग यों समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, जहाँ से वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। किंतु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।

परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया।

परमार राजवंश के शासकों की सूची:

  • उपेन्द्र (800 से 818 तक)
  • वैरीसिंह प्रथम (818 से 843 तक)
  • सियक प्रथम (843 से 893 तक)
  • वाकपति (893 से 918 तक)
  • वैरीसिंह द्वितीय (918 से 948 तक)
  • सियक द्वितीय (948 से 974 तक)
  • वाकपतिराज (974 से 995 तक)
  • सिंधुराज (995 से 1010 तक)
  • भोज प्रथम (1010 से 1055 तक), समरांगण सूत्रधार के रचयिता
  • जयसिंह प्रथम (1055 से 1060 तक)
  • उदयादित्य (1060 से 1087 तक)
  • लक्ष्मणदेव (1087 से 1097 तक)
  • नरवर्मन (1097 से 1134 तक)
  • यशोवर्मन (1134 से 1142 तक)
  • जयवर्मन प्रथम (1142 से 1160 तक)
  • विंध्यवर्मन (1160 से 1193 तक)
  • सुभातवर्मन (1193 से 1210 तक)
  • अर्जुनवर्मन I (1210 से 1218 तक)
  • देवपाल (1218 से 1239 तक)
  • जयतुगीदेव (1239 से 1256 तक)
  • जयवर्मन द्वितीय (1256 से 1269 तक)
  • जयसिंह द्वितीय (1269 से 1274 तक)
  • अर्जुनवर्मन द्वितीय (1274 से 1283 तक)
  • भोज द्वितीय (1283 से ? तक)
  • महालकदेव (? से 1305 तक)
  • संजीव सिंह परमार (1305 – 1327 तक)

परमार वंश के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य:

  • इस वंश के प्रारम्भिक शासक उपेन्द्र, वैरसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम एवं वैरसिंह द्वितीय थे।
  • परमारों की प्रारम्भिक राजधानी उज्जैन में थी पर कालान्तर में राजधानी ‘धार’, मध्य प्रदेश में स्थानान्तरित कर ली गई।
  • इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं प्रतापी राजा ‘सीयक अथवा श्रीहर्ष’ था। उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया।
  • परमार वंश में आठ राजा हुए, जिनमें सातवाँ वाक्पति मुंज (973 से 995 ई.) और आठवाँ मुंज का भतीजा भोज (1018 से 1060 ई.) सबसे प्रतापी थी।
  • मुंज अनेक वर्षों तक कल्याणी के चालुक्य राजाओं से युद्ध करता रहा और 995 ई. में युद्ध में ही मारा गया। उसका उत्तराधिकारी भोज (1018-1060 ई.) गुजरात तथा चेदि के राजाओं की संयुक्त सेनाओं के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश का प्रताप नष्ट हो गया। यद्यपि स्थानीय राजाओं के रूप में परमार राजा तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ तक राज्य करते रहे, अंत में तोमरों ने उनका उच्छेद कर दिया।
  • परमार राजा विशेष रूप से वाक्पति मुंज और भोज, बड़े विद्वान थे और विद्वानों एवं कवियों के आश्रयदाता थे।
  • कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था , तब उसका नाम भोजपाल नगर था , जो कि कालान्तर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था।
  • राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं।

इन्हें भी पढे: पल्लव राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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चोल राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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चोल राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य- Chola Dynasty History in Hindi

चोल राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Chola Dynasty History and Important Facts in Hindi)

चोल राजवंश:

चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। दक्षिण भारत में और पास के अन्य देशों में तमिल चोल शासकों ने 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया।

चोल साम्राज्य का अभ्युदय 9वीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात 12वीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का ‘स्वर्ण युग’ था।

चोल राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास:

चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की, जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि, उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई. में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा, लेकिन 965 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े हुए।

राजवंश के शासकों की सूची:

  • उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी
  • करिकाल
  • विजयालय (850 से 875 ई. तक)
  • आदित्य (चोल वंश) (875 से 907 ई. तक)
  • परान्तक प्रथम (908 से 949 ई. तक)
  • परान्तक द्वितीय (956 से 983 ई. तक)
  • राजराज प्रथम (985 से 1014 ई. तक)
  • राजेन्द्र प्रथम (1014 से 1044 ई. तक)
  • राजाधिराज (1044 से 1052 ई. तक)
  • राजेन्द्र द्वितीय (1052 से 1064 ई. तक)
  • वीर राजेन्द्र (1064 से 1070 ई. तक)
  • अधिराजेन्द्र (1070 ई. तक)
  • कुलोत्तुंग प्रथम (1070 से 1120 ई. तक)
  • विक्रम चोल (1120 से 1133 ई. तक)
  • कुलोत्तुंग द्वितीय (1133 से 1150 ई. तक)

उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी:

उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी चोल राजवंश का प्रथम शासक था। उसने अपनी राजधानी ‘उरैपुर’ में स्थापित की थी। वैलिर वंश से उसके वैवाहिक सम्बन्ध थे। वह युद्ध में प्रयुक्त होने वाले अपने सुन्दर रथों के लिए प्रसिद्ध था।

करिकाल:

करिकाल चोल शासकों में एक महत्त्वपूर्ण शासक था। इसे ‘जले हुए पैरों वाला’ कहा गया है। इस साम्राज्य विस्तारवादी शासक ने अपने शासन के शुरुआती वर्षों में ‘वण्णि’ नामक स्थान पर ‘बेलरि’ तथा अन्य ग्यारह शासकों की संयुक्त सेना को पराजित कर प्रसिद्धि प्राप्त की थी। उसकी दूसरी महत्त्वपूर्ण सफलता थी- ‘वहैप्परन्लई’ के 9 छोटे-छोटे शासकों की संयुक्त सेना को पराजित करना। इस प्रकार करिकाल ने पूरे तमिल प्रदेश को अपनी भुजाओं के पराक्रम के द्वारा अपने अधीन कर लिया था। उसके शासनकाल में पाण्ड्य साम्राज्य एवं चेर वंश के शासक महत्त्वहीन हो गये थे। संगम साहित्य के अनुसार- करिकाल ने कावेरी नदी के मुहाने पर ‘पुहार पत्तन’ (कावेरीपट्नम) की स्थापना की।

विजयालय:

विजयालय (850-875 ई.) ने 9वीं शताब्दी के मध्य लगभग 850ई. में चोल शक्ति का पुनरुत्थान किया। विजयालय को चोल राजवंश का द्वितीय संस्थापक भी माना जाता है। आरम्भ में चोल पल्लवों के सामन्त थे। विजयालय ने पल्लवों की अधीनता से चोल मण्डल को मुक्त किया और स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना शुरू किया। उसने पाण्ड्य साम्राज्य के शासकों से तंजौर (तंजावुर) को छीनकर ‘उरैयूर’ के स्थान पर इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया। तंजौर को जीतने के उपलक्ष्य में विजयालय ने ‘नरकेसरी’ की उपाधि धारण की थी।

आदित्य प्रथम (चोल वंश):

आदित्य प्रथम (875-907 ई.), चोडराज विजयालय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। विजयालय के बाद आदित्य प्रथम लगभग 875 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। 890 ई. के लगभग उसने पल्लवराज अपराजितवर्मन को परास्त कर तोंडमंडलम्‌ को अपने राज्य में मिला लिया। उसने पल्लव नरेश अपराजित को पाण्ड्य नरेश ‘वरगुण’ के ख़िलाफ़ संघर्ष में सैनिक सहायता दी थी। इस सैनिक सहायता के बल पर इस संघर्ष में नरेश अपराजित विजयी हुआ, किन्तु कालान्तर में आदित्य प्रथम ने अपनी साम्राज्य विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा के वशीभूत होकर अपराजित को एक युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी और इस तरह पल्लव राज्य पर चोलों का अधिकार हो गया। आदित्य प्रथम के मरने तक उत्तर में कलहस्ती और मद्रा तथा दक्षिण में कावेरी तक का सारा जनपद चोलों के शासन में आ चुका था।

परान्तक प्रथम:

परान्तक प्रथम (907-953 ई.), आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद चोल राजवंश की राजगद्दी पर बैठा। उसने पाण्ड्य नरेश राजसिंह द्वितीय पर आक्रमण कर पाण्ड्यों की राजधानी मदुरै पर अधिकार कर लिया। इसी हार का बदला लेने के लिए पाण्ड्य नरेश ने श्रीलंका के शासक से सैनिक सहायता प्राप्त कर परान्तक के ख़िलाफ़ युद्ध किया। जिस समय परान्तक सुदूर दक्षिण के युद्ध में व्याप्त था, कांची के पल्लव कुल ने अपने लुप्त गौरव की पुनः प्रतिष्ठा का प्रयत्न किया। पर चोलराज ने उसे बुरी तरह से कुचल डाला और भविष्य में पल्लवों ने फिर कभी अपने उत्कर्ष का प्रयत्न नहीं किया।
राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (940-968) ने दक्षिण के इस नए शत्रु का सामना करने के लिए विजय यात्रा प्रारम्भ की और कांची को एक बार फिर राष्ट्रकूट साम्राज्य के अंतर्गत ला किया। पर कृष्ण तृतीय केवल कांची की विजय से ही संतुष्ट नहीं हुआ, उसने दक्षिण दिशा में आगे बढ़कर तंजौर पर भी आक्रमण किया, जो इस समय चोल राज्य की राजधानी था। परान्तक प्रथम के बाद क्रमशः ‘गंडरादित्य’ (953 से 956 ई.) परान्तक द्वितीय (956 से 973 ई.) एवं ‘उत्तम’ चोल वंश के शासक हुए। इनमें सबसे योग्य परान्तक द्वितीय ही था।

परान्तक द्वितीय:

परान्तक द्वितीय (956-973 ई.) को चोल राजवंश के शासक ‘सुन्दरचोल’ के नाम से भी जाना जाता था। उसने तत्कालीन पाण्ड्य शासक ‘वीर पाण्ड्य’ को चेबूर के मैदान में पराजित किया था।

राजराज प्रथम:

राजराज प्रथम (985-1014 ई.) अथवा अरिमोलिवर्मन परान्तक द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, परान्तक द्वितीय के बाद चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन के 30 वर्ष चोल साम्राज्य के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे। उसने अपने पितामह परान्तक प्रथम की ‘लौह एवं रक्त की नीति’ का पालन करते हुए ‘राजराज’ की उपाधि ग्रहण की।

राजेन्द्र प्रथम:

राजेन्द्र प्रथम (1014-1044ई.) राजराज प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी 1014 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा। राजेन्द्र अपने पिता के समान ही साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का था। उसकी उपलब्धियों के बारे में सही जानकारी ‘तिरुवालंगाडु’ एवं ‘करंदाइ अभिलेखों’ से मिलती है। अपने विजय अभियान के प्रारम्भ में उसने पश्चिमी चालुक्यों, पाण्ड्यों एवं चेरों को पराजित किया। इसके बाद लगभग 1017 ई. में सिंहल (श्रीलंका) राज्य के विरुद्ध अभियान में उसने वहां के शासक महेन्द्र पंचम को परास्त कर सम्पूर्ण सिंहल राज्य को अपने अधिकार में कर लिया। सिंहली नरेश महेन्द्र पंचम को चोल राज्य में बंदी के रूप में रखा गया। यही पर 1029 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। सिंहल विजय के बाद राजेन्द्र चोल ने उत्तर पूर्वी भारतीय प्रदेशों को जीतने के लिए विशाल हस्ति सेना का इस्तेमाल किया।
राजेन्द्र प्रथम के सामरिक अभियानों का महत्त्वपूर्ण कारनामा था- उसकी सेनाओं का गंगा नदी पार कर कलिंग एवं बंगाल तक पहुंच जाना। कलिंग में चोल सेनाओं ने पूर्वी गंग शासक मधुकामानव को पराजित किया। सम्भवतः इस अभियान का नेतृत्व 1022 ई. में विक्रम चोल द्वारा किया गया। गंगा घाटी के अभियान की सफलता पर राजेन्द्र प्रथम ने ‘गंगैकोण्डचोल’ की उपाधि धारण की तथा इस विजय की स्मृति में कावेरी तट के निकट ‘गंगैकोण्डचोल’ नामक नई राजधानी का निर्माण करवाया।

राजाधिराज:

राजाधिराज प्रथम (1044-1052 ई.), राजेन्द्र प्रथम का पुत्र था और उसके बाद राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी था। उसकी शक्ति का उपयोग प्रधानतया उन विद्रोहों को शान्त करने में हुआ, जो उसके विशाल साम्राज्य में समय-समय पर होते रहते थे। विशेषतया, पाड्य, चेर वंश और सिंहल (श्रीलंका) के राज्यों ने राजाधिराज के शासन काल में स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर चोलराज ने उन्हें बुरी तरह से कुचल डाला। उसका सर्वप्रथम संघर्ष कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से हुआ। राजाधिराज ने तत्कालीन चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल को पराजित कर चालुक्य राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में राजाधिराज ने अपना ‘वीरभिषेक’ करवाकर ‘विजय राजेन्द्र’ की उपाधि ग्रहण की थी।

राजेन्द्र द्वितीय:

राजेन्द्र द्वितीय (1052-1064 ई.) चोल सम्राट राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई.) का द्वितीय पुत्र और राजाधिराज (1044-1052 ई.) का छोटा भाई था। कोप्पम के युद्ध में जब राजेन्द्र द्वितीय का बड़ा भाई राजाधिराज कल्याणी के शासक सोमेश्वर आहवमल्ल के द्वारा मारा गया, तब वहीं रणभूमि में ही राजेन्द्र द्वितीय ने अपने भाई का मुकुट सिर पर धारण कर लिया और युद्ध जारी रखा।
राजेन्द्र द्वितीय की उपाधि ‘प्रकेसरी’ थी। उसके समय में भी चोल-चालुक्य संघर्ष अपनी चरम सीमा पर था। राजेन्द्र द्वितीय ने ‘कुंडलसंगमम्’ में चालुक्य सेना को पराजित किया था। सोमेश्वर प्रथम ने कुंडलसंगमम् के युद्व में पराजित होने के पश्चात् नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। उसने अपनी लड़की का विवाह पूर्वी चालुक्य नरेश राजेन्द्र के साथ किया था।

वीर राजेन्द्र:

राजेन्द्र द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई वीर राजेन्द्र गद्दी पर बैठा। उसने लगभग 1060 ई. में अपने परम्परागत शत्रु पश्चिमी चालुक्यों को ‘कुडलसंगमम्’ के मैदान में पराजित किया। इस विजय के उपलक्ष्य में वीर राजेन्द्र ने तुंगभद्रा नदी के किनारे एक विजयस्तम्भ की स्थापना करवाई। पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के ख़िलाफ़ एक अन्य अभियान में कम्पिलनगर को जीतने के उपलक्ष्य में ‘करडिग ग्राम’ में एक और विजयस्तम्भ स्थापित करवाया था। वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर द्वितीय के छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ, जो कि सोमेश्वर द्वितीय के विरुद्ध था, के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर पश्चिमी चालुक्यों के साथ सम्बन्धों के नए अध्याय की शुरुआत की।

अधिराजेन्द्र:

वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद अधिराजेन्द्र (1070 ई.) चोल की गद्दी पर बैठा। अधिराजेन्द्र परान्तक का वंशधर था। वह चोल साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण रखने में असमर्थ रहा। अधिराजेन्द्र शैव धर्म का अनुयायी था और प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज से इतना द्वेष करता था कि, रामानुज को उसके राज्य काल में श्रीरंगम छोड़कर अन्यत्र चले जाना पड़ा। उसके शासन काल में सर्वत्र विद्रोह शुरू हो गए और इन्हीं के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अपने राज्य के पहले साल में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के साथ ही विजयालय द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया। इस अशांतिमय परिस्थिति का फ़ायदा उठाकर कुलोत्तुंग प्रथम चोल राजसिंहासन पर बैठा। इसके बाद का चोल इतिहास चोल-चालुक्य वंशीय इतिहास के नाम से जाना जाता है।

कुलोत्तुंग प्रथम:

कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.) चोल राजवंश के सबसे पराक्रमी शासकों में से एक था। उसने चोल साम्राज्य में व्यवस्था स्थापित करने के कार्य में अदभुत पराक्रम प्रदर्शित किया था। इसके पूर्व शासक अधिराजेन्द्र के कोई भी सन्तान नहीं थी, इसलिए चोल राज्य के राजसिंहासन पर वेंगि का चालुक्य राजा कुलोत्तुंग प्रथम को बैठाया गया था। यह चोल राजकुमारी का पुत्र था। किंतु कुलोत्तुंग के शासन काल में राज्य की शक्ति काफ़ी हद तक क़ायम रही। उसने दक्षिण के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ को पराजित किया। इसका उल्लेख विल्हण के ‘विक्रमांकदेवचरित’ में मिलता है। 1075-76 ई. में कुलोत्तंग ने कलचुरी शासक यशकर्णदेव को तथा 1100 ई. में कलिंग नरेश अनन्तवर्मा चोडगंग को पराजित किया।

विक्रम चोल:

विक्रम चोल (1120-1133 ई.) कुलोत्तुंग प्रथम का पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद वह चालुक्य साम्राज्य के राजसिंहासन पर आसीन हुआ था। विक्रमादित्य षष्ठ के मरने के बाद विक्रम चोल ने पुनः वेंगी पर अधिकार कर लिया। 1133 ई. के लगभग उसने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय को पराजित किया। विक्रम चोल अपने पिता की नतियों एवं आदर्शों के बिल्कुल प्रतिकूल प्रवृत्ति का था। वह धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु प्रवृत्ति का व्यक्ति था। विक्रम चोल ने चिदंबरम् के नटराज मंदिर को अपार दान दिया था। उसने ‘अकलक’ एवं ‘त्याग समुद्र’ की उपाधियाँ धारण की थीं।

कुलोत्तुंग द्वितीय:

कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150 ई.) विक्रम चोल का पुत्र था। वह अपने पिता के बाद चोल राजवंश का अगला राजा नियुक्त हुआ था।कुलोत्तुंग ने चिदम्बरम मंदिर के विस्तार एवं प्रदक्षिणापथ को स्वर्णमंडित कराने के कार्य को जारी रखा। चोल राजवंश के इस शासक ने चिदम्बरम मंदिर में स्थित गोविन्दराज की मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया। इस शासक की कोई भी राजनीतिक उपलब्धि नहीं थी। कुलोत्तंग द्वितीय और उसके सामन्तों ने ‘ओट्टाकुट्टन’, ‘शेक्किलर’ और ‘कंबल’ को संरक्षण दिया था। कुलोत्तंग ने कुंभकोणम के निकट ‘तिरुभुवन’ में ‘कम्पोरेश्वर मंदिर’ का निर्माण करवाया था।

चोल काल में लगाए जाने वाले प्रमुख कर:

आयम राजस्व कर
मरमज्जाडि वृक्ष कर
कडमै सुपारी पर कर
मनैइरै गृह कर
कढै़इरै व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर लगने वाला कर
पेविर तेलघानी कर
किडाक्काशु नर पशुधन कर
कडिमै लगान
पाडिकावल ग्राम सुरक्षा कर
वाशल्पिरमम द्वार कर
मगन्मै व्यवसाय कर
आजीवक्काशु आजीविका पर लगने वाला कर

चोल काल के मंदिरों की विशेषता:

चोलों के मंदिरों की विशेषता उनके विमानों और प्रांगणों में दिखलाई पड़ती है। इनके शिखरस्तंभ छोटे होते हैं, किंतु गोपुरम् पर अत्यधिक अलंकरण होता है। प्रारंभिक चोल मंदिर साधारण योजना की कृतियाँ हैं लेकिन साम्राज्य की शक्ति और साधनों की वृद्धि के साथ मंदिरों के आकार और प्रभाव में भी परिवर्तन हुआ। इन मंदिरों में सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रभावोत्पादक राजराज प्रथम द्वारा तंजोर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर, राजेंद्र प्रथम द्वारा गंगैकोंडचोलपुरम् में निर्मित गंगैकोंडचोलेश्वर मंदिर है। चोल युग अपनी कांस्य प्रतिमाओं की सुंदरता के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें नटराज की मूर्तियाँ सर्वात्कृष्ट हैं। इसके अतिरिक्त शिव के दूसरे कई रूप, ब्रह्मा, सप्तमातृका, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ विष्णु, अपने अनुचरों के साथ राम और सीता, शैव संत और कालियदमन करते हुए कृष्ण की मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं।

चोल राजवंश (9वीं से 12वीं शताब्दी तक) के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य:

  • चोलों के विषय में प्रथम जानकारी पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलती है।
  • चोल वंश के विषय में जानकारी के अन्य स्रोत हैं – कात्यायन कृत ‘वार्तिक’, ‘महाभारत‘, ‘संगम साहित्य’, ‘पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी’ एवं टॉलमी का उल्लेख आदि।
  • चोल राज्य आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल, त्रिचनापली एवं तंजौर तक विस्तृत था।
  • यह क्षेत्र उसके राजा की शक्ति के अनुसार घटता-बढ़ता रहता था।
  • इस राज्य की कोई एक स्थाई राजधानी नहीं थी।
  • साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि, इनकी पहली राजधानी ‘उत्तरी मनलूर’ थी।
  • कालान्तर में ‘उरैयुर’ तथा ‘तंजावुर’ चोलों की राजधानी बनी।
  • चोलों का शासकीय चिह्न बाघ था।
  • चोल राज्य ‘किल्लि’, ‘बलावन’, ‘सोग्बिदास’ तथा ‘नेनई’ जैसे नामों से भी प्रसिद्व है।
  • भिन्न-भिन्न समयों में ‘उरगपुर’ (वर्तमान ‘उरैयूर’, ‘त्रिचनापली’ के पास) ‘तंजोर’ और ‘गंगकौण्ड’, ‘चोलपुरम’ (पुहार) को राजधानी बनाकर इस पर विविध राजाओं ने शासन किया।
  • चोलमण्डल का प्राचीन इतिहास स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है।
  • पल्लव वंश के राजा उस पर बहुधा आक्रमण करते रहते थे, और उसे अपने राज्य विस्तार का उपयुक्त क्षेत्र मानते थे।
  • वातापी के चालुक्य राजा भी दक्षिण दिशा में विजय यात्रा करते हुए इसे आक्रान्त करते रहे।
  • यही कारण है कि, नवीं सदी के मध्य भाग तक चोलमण्डल के इतिहास का विशेष महत्त्व नहीं है, और वहाँ कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ, जो कि अपने राज्य के उत्कर्ष में विशेष रूप से समर्थ हुआ हो।
  • चोल शासन की प्रमुख विशेषता सुसंगठित नौकरशाही के साथ उच्च कोटि की कुशलतावली स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का सुंदर और सफल सामंजस्य है। स्थानीय जीवन के विभिन्न अंगों के लिए विविध सामूहिक संस्थाएँ थीं जो परस्पर सहयोग से कार्य करती थीं।
  • चोल सम्राट शिव के उपासक थे लेकिन उनकी नीति धार्मिक सहिष्णुता की थी। उन्होंने बौद्धों को भी दान दिया। जैन भी शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन और प्रचार करते थे। पूर्वयुग के तमिल धार्मिक पद वेदों जैसे पूजित होने लगे और उनके रचयिता देवता स्वरूप माने जाने लगे। नंबि आंडार नंबि ने सर्वप्रथम राजराज प्रथम के राज्यकाल में शैव धर्मग्रंथों को संकलित किया।
  • चोल नरेशों ने सिंचाई की सुविधा के लिए कुएँ और तालाब खुदवाए और नदियों के प्रवाह को रोककर पत्थर के बाँध से घिरे जलाशय (डैम) बनवाए। करिकाल चोल ने कावेरी नदी पर बाँध बनवाया था। राजेंद्र प्रथम ने गंगैकोंड-चोलपुरम् के समीप एक झील खुदवाई जिसका बाँध 16 मील लंबा था। इसको दो नदियों के जल से भरने की व्यवस्था की गई और सिंचाई के लिए इसका उपयोग करने के लिए पत्थर की प्रणालियाँ और नहरें बनाई गईं। आवागमन की सुविधा के लिए प्रशस्त राजपथ और नदियों पर घाट भी निर्मित हुए।
  • चोलवंश के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चोल नरेशों ने संस्कृत साहित्य और भाषा के अध्ययन के लिए विद्यालय (ब्रह्मपुरी, घटिका) स्थापित किए और उनकी व्यवस्था के लिए समुचित दान दिए। किंतु संस्कृत साहित्य में, सृजन की दृष्टि से, चोलों का शासनकाल अत्यल्प महत्व का है। उनके कुछ अभिलेख, जो संस्कृत में हैं, शैली में तमिल अभिलेखों से नीचे हैं। फिर भी वेंकट माधव का ऋग्वेद पर प्रसिद्ध भाष्य परांतक प्रथम के राज्यकाल की रचना है। केशवस्वामिन् ने नानार्थार्णवसंक्षेप नामक कोश को राजराज द्वितीय की आज्ञा पर ही बनाया था।

इन्हें भी पढे: प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंश और संस्थापक

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चौहान राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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चौहान वंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य- Chauhan Dynasty History in Hindi

चौहान राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Chauhan Dynasty History and Important Facts in Hindi)

चौहान वंश राजपूतों के प्रसिद्ध वशों में से एक है। चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव चौहान था। ‘चव्हाण’ या ‘चौहान’ उत्तर भारत की आर्य जाति का एक वंश है। चौहान गोत्र राजपूतों में आता है। कई विद्वानों का कहना है कि चौहान सांभर झील, पुष्कर, आमेर और वर्तमान जयपुर (राजस्थान) में होते थे, जो अब सारे उत्तर भारत में फैले चुके हैं। इसके अतिरिक्त मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) एवं अलवर ज़िले में भी इनकी अच्छी-ख़ासी संख्या है।

चौहान वंश के प्रसिद्ध शासक:

चौहान वंश की अनेक शाखाओं में ‘शाकंभरी चौहान’ (सांभर-अजमेर के आस-पास का क्षेत्र) की स्थापना लगभग 7वीं शताब्दी में वासुदेव ने की। वासुदेव के बाद पूर्णतल्ल, जयराज, विग्रहराज प्रथम, चन्द्रराज, गोपराज जैसे अनेक सामंतों ने शासन किया। शासक अजयदेव ने ‘अजमेर’ नगर की स्थापना की और साथ ही यहाँ पर सुन्दर महल एवं मन्दिर का निर्माण करवाया। ‘चौहान वंश’ के मुख्य शासक इस प्रकार थे-

चौहान राजवंश के शासकों की सूची:

  • वासुदेव चौहान  (551 ई. के लगभग)
  • विग्रहराज द्वितीय (956 ई. के लगभग)
  • अजयदेव चौहान (1113 ई. के लगभग)
  • अर्णोराज (लगभग 1133 से 1153 ई.)
  • विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव (लगभग 1153 से 1163 ई.)
  • पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.)

1. वासुदेव चौहान: चौहानों का मूल स्थान जांगल देश में सांभर के आसपास सपादलक्ष को माना जाता हैं इनकी प्रांरभिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार सपादलक्ष के चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव चौहान नामक व्यक्ति था, जिसने 551 ई के आसपास इस वंश का प्रारंभ किया। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार सांभर झील का निर्माण भी इसी ने करवाया था। इसी के वंशज अजपाल ने 7वीं सांभर कस्बा बसाया तथा अजयमेरू दुर्ग की स्थापना की थी।

2. विग्रहराज द्वितीय: चौहान वंश के प्रारंभिक शासकों में सबसे प्रतापी राजा सिंहराज का पुत्र विग्रहराज-द्वितीय हुआ, जो लगभग 956 ई के आसपास सपालक्ष का शासक बना। इन्होने अन्हिलपाटन के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराकर कर देने को विवश किया तथा भड़ौच में अपनी कुलदेवी आशापुरा माता का मंदिर बनवाया। विग्रहराज के काल का विस्तृत वर्णन 973 ई. के हर्षनाथ के अभिलेख से प्राप्त होता है।

3. अजयराज: चौहान वंश का दूसरा प्रसिद्ध शासक अजयराज हुआ, जिसने (पृथ्वीराज विजय के अनुसार) 1113 ई. के लगभग अजयमेरू (अजमेर) बसाकर उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया। उन्होंने अन्हिलापाटन के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराया। उन्होनें श्री अजयदेव नाम से चादी के सिक्के चलाये। उनकी रानी सोमलेखा ने भी उने नाम के सिक्के जारी किये।

4. अर्णोराज: अजयराज के बाद अर्णोंराज ने 1133 ई. के लगभग अजमेर का शासन संभाला। अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणकारियों को बुरी तरह हराकर अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया। चालुक्य शासक कुमारपाल ने आबू के निकट युद्ध में इसे हराया। इस युद्ध का वर्णन प्रबन्ध कोश में मिलता है। अर्णोराज स्वयं शैव होते हुए भी अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णु था। उनके पुष्कर में वराह-मंदिर का निर्माण करवाया।

5. विग्रहराज चतुर्थ: विग्रहराज-चतुर्थ (बीसलदेव) 1153 ई. में लगभग अजमेर की गद्दी पर आसीन हुए। इन्होंने अपने राज्य की सीमा का अत्यधिक विस्थार किया। उन्होंने गजनी के शासक अमीर खुशरूशाह (हम्मीर) को हराया तथा दिल्ली के तोमर शासक को पराजित किया एवं दिल्ली को अपने राज्य में मिलाया। एक अच्छा योद्धा एवं सेनानायक शासक होते हुए व विद्वानों के आश्रयदाता भी थे। उनके दरबार मे सोमदेव जैसे प्रकाण्ड विद्वान कवि थे। जिसने ‘ललित विग्रहराज‘ नाटक को रचना की। विग्रहराज विद्वानों के आश्रयदाता होने के कारण ‘कवि बान्धव‘ के नाम से जाने जाते थे। स्वयं विग्रहराज ने ‘हरिकेलि‘ नाटक लिखा। इनके काल को चोहन शासन का ‘स्वर्णयुग‘ भी कहा जाता है।

6. पृथ्वीराज-तृतीय: चौहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म 1166 ई. (वि.सं. 1223) में अजमेर के चौहान शासन सोमेश्वर की रानी कर्पूरीदेवी (दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर की पुत्री ) को कोख से अन्हिलपाटन (गुजरात) में हुआ। अपने पिता का असमय देहावसान हो जाने के कारण मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने। परन्तु बहुत कम समय में ही पृथ्वीराज-तुतीय ने अपनी योग्यता एवं वीरता से समस्त शासन प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया। उसके बाद उसने अपने चारों ओर के शत्रुओं का एक-एक कर शनै-शनै खात्मा किया एव दलपंगुल (विश्व विजेता) की उपाधि धारण की। वीर सेनानायक सम्राट पृथ्वीराज किन्ही कारणों से मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद गौरी से तराइन के द्वितीय युद्ध में हार गया और देश में मुस्लिम शासन की नींव पड़ गई।

पृथ्वीराज-तृतीय के प्रमुख सैनिक अभियान व विजयें:

  1. नागार्जुन एवं भण्डानकों का दमन: पृथ्वीराज के राजकाल संभालने के कुछ समय बाद उसके चचेरे भाई नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया। वह अजमेर का शासन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था अतः पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम अपने मंत्री कैमास की सहायता से सैन्य बल के साथ उसे पराजित कर गडापुरा (गुड़गाॅव) एवं आसपास का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिये। इसके बाद 1182 ई. में पृथ्वीराज ने भरतपुर-मथुरा क्षेत्र में भण्डानकों के विद्रोहों का अंत किया।
  2. महोबा के चंदेलों पर विजय: पृथ्वीराज ने 1182 ई. मे ही महोबा के चंदेल शासक परमाल (परमार्दी) देव को हराकर उसे संधि के लिए विवश किया एवं उसके कई गांव अपने अधिकार में ले लिए।
  3. चालुक्यों पर विजय: सन् 1184 के लगभग गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव-द्वितीय के प्रधानमंत्री जगदेश प्रतिहार एवं पृथ्वीराज की सेना के मध्य नागौर का युद्ध हआ जिसके बाद दोनों में संधि हो गई एवं चौहानों की चालुक्यों से लम्बी शत्रुता का अंत हुआ।
  4. कन्नौज से संबंध: पृथ्वीराज के समय कत्रौज पर गहड़वाल शासक जयचन्द का शासन था। जयचंद एवं पृथ्वीराज दोनों की राज्य विस्तार की महात्वाकांक्षाओं ने उनमें आपसी वैमनस्य उत्पत्र कर दिया था। उसके बाद उसकी पुत्री संयोंगिता को पृथ्वीराज द्वारा स्वयंवर से उठा ले जाने के कारण दोनों की शत्रुता और बढ़ गई थी इसी वजह से तराइन युद्ध में जयचंद ने पृथ्वीराज की सहायता न कर मुहम्मद गौरी की सहायता की।

चौहान वंश की प्रमुख शाखाएँ:

वंश का नाम शाखा की संख्या
चौहान राजपूत 14 शाखा
राठौर राजपूत 12 शाखा
परमार या पंवार राजपूत 16 शाखा
सोलंकी राजपूत 6 शाखा
परिहार राजपूत 6 शाखा
गहलोत राजपूत 12 शाखा
चन्द्रवंशी राजपूत 4 शाखा
सेनवंशी या पाल राजपूत 1 शाखा
मकवान या झाला राजपूत 3 शाखा
भाटी या यदुवंशी राजपूत 5 शाखा
कछवाहा या कुशवाहा राजपूत 1 शाखा
तंवर या तोमर राजपूत 1 शाखा
र्भूंयार या कौशिक राजपूत 1 शाखा

राजस्थान के चौहान वंश:

राजस्थान में चौहानों के कई वंश हुए, जिन्होंने समय-समय पर यहाँ शासन किया और यहाँ की मिट्टी को गौरवांवित किया। ‘चौहान’ व ‘गुहिल’ शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना किसी अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़, बाड़ौली तथा आबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं। चौहान वंश की शाखाओं में निम्न शाखाएँ मुख्य थीं-

  • सांभर के चौहान
  • रणथम्भौर के चौहान
  • जालौर के चौहान
  • चौहान वंशीय हाड़ा राजपूत

रणथम्भौर के चौहान: तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के बाद उसके पुत्र गोविंदराज ने कुछ समय बाद रणथम्भौर में चौहान वंश का शासन किया। उनके उत्तराधिकारी वल्हण को दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। इसी वंश के शासक वाग्भट्ट ने पुनः दुर्ग पर अधिकार कर चौहान वंश का शासन पुनः स्थापित किया। रणथम्भौर के सर्वाधिक प्रतापी एवं अंतिम शासक हम्मीर देव विद्रोही सेनिक नेता मुहम्मदशाह को शरण दे दी अतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 1301 ई. में हुए अंतिम युद्ध में हम्मीर चौहान की पराजय हुई और दुर्ग में रानियों ने जौहर किया तथा सभी राजपूत योद्धा मारे गये। 11 जुलाई, 1301 को दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया। इस युद्ध में अमीर खुसरो अलाउद्दीन की सेना के साथ ही था।

जालौर के चौहान: जालोर दिल्ली से गुजरात व मालवा, जाने के मार्ग पर पड़ता था। वहाॅ 13 वी सदी मे सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा की गई थी। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर था तथा यहाॅ के किले को ‘सुवर्णगिरी‘ कहते है। सन् 1305 में यहाॅ के शासक कान्हड़दे चौहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई। जालौर के मार्ग में सिवाना का दूर्ग पड़ता हैं अतः पहले अलाउद्दीन खिलजी ने 1308 ई. मे सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद‘ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहा का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। वीर सातल और सोम वीर गति को प्राप्त हुए सन् 1311ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया ओर कई दिनों के घेर के बाद अंतिम युद्ध मे अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपुत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ कान्हड़दे तथा वीरमदेव सोनगरा की बात में मिलती है।

नाडोल के चौहान: चौहानो की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाकपति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के अधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177ई. के लगभग मेवाड़ शासक सामन्तंसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. के लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।

सिरोही के चौहान: सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रवती थी। बाद में बार-बार मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहासमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया। इसी के काल में महारणा कुंभा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया। 1823 ई. में यहा के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा सोपा। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।

हाड़ौती के चौहान: हाड़ौती में वर्तमान बूंदी, कोटा, झालावाड एवं बांरा के क्षेत्र आते है। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहा मीणा जाति का ही राज्य स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बूंदी में ही आता था। 1342 ई. में यहा हाड़ा चौहान देवा ने मीणों को पराजित कर यहा चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों को ही वंशज था। बूंदी का यह नाम वहा के शासक बूंदा मीणा के पर पड़ा मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने आक्रमण कर बूंदी को अपने अधीन कर लिया। तब से बूंदी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहा के शासक सुरजन सिंह ने अकबर से संधि कर मुगल आधीनता स्वीकार कर ली और तब से बूंदी मेवाड़ से मुक्त हो गया। मुगल बादशाह फर्रूखशियार के समय बूंदी नरेश् बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के करण बूंदी राज्य का नाम फर्रूखाबाद रख उसे कोटा नेरश को दे दिया परंतु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बूंदी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बूंदी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रहे, जिनमें में मराठै, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठो का सर्वप्रथम प्रवेश बूंदी में हुआ, जब 1734ई. में यहा बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द (अमर) कुवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया।

1818ई. में बूंदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बूंदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देश की स्वाधीनता के बाद बूंदी का राजस्थान संघ मे विलय हो गया।

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सोलंकी राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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सोलंकी वंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य | Solanki Dynasty History in Hindi

सोलंकी राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Solanki Dynasty History and Important Facts in Hindi)

सोलंकी वंश:

सोलंकी वंश मध्यकालीन भारत का एक राजपूत राजवंश था।  गुजरात के सोलंकी वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। उसने अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया था। सोलंकी गोत्र राजपूतों में आता है। सोलंकी राजपूतों का अधिकार गुर्जर देश और कठियावाड राज्यों तक था। ये 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक शासन करते रहे। इन्हे गुर्जर देश का चालुक्य भी कहा जाता था। यह लोग मूलत: सूर्यवंशी व्रात्य क्षत्रिय हैं और दक्षिणापथ के हैं परंतु जैन मुनियों के प्रभाव से यह लोग जैन संप्रदाय में जुड गए। उसके पश्चात भारत सम्राट अशोकवर्धन मौर्य के समय में कान्य कुब्ज के ब्राह्मणो ने ईन्हे पून: वैदिकों में सम्मिलित किया।

मूलराज ने 942 से 995 ई. तक शासन किया। 995 से 1008 ई. तक मूलराज का पुत्र चामुण्डाराय अन्हिलवाड़ का शासक रहा। उसके पुत्र दुर्लभराज ने 1008 से 1022 ई. तक शासन किया। दुर्लभराज का भतीजा भीम प्रथम अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था।

सोलंकी वंश वीर योद्धाओ का इतिहास:

  • दद्दा चालुक्य: दद्दा चालुक्य पहले राजपूत योद्धा थे जिन्होंने गजनवी को सोमनाथ मंदिर लूटने से रोका था।
  • भीमदेव द्वित्य: भीमदेव द्वित्य ने मोहम्मद गोरी की सेना को 2 बार बुरी तरह से हराया और मोहम्मद गोरी को दो साल तक गुजरात के कैद खाने में रखा और बाद में छोड़ दिया जिसकी वजह से मोहम्मद गोरी ने तीसरी बार गुजरात की तरफ आँख उठाना तो दूर जुबान पर नाम तक नहीं लिया।
  • सोलंकी सिद्धराज जयसिंह: जयसिंह के बारे में तो जितना कहे कम है। जयसिंह ने 56 वर्ष तक गुजरात पर राज किया सिंधदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान का कुछ भाग, सोराष्ट्र, तक इनका राज्य था। सबसे बड़ी बात तो यह है की यह किसी अफगान, और मुग़ल से युद्ध भूमि में हारे नहीं। बल्कि उनको धुल चटा देते थे। सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल ने व्यापार के नए-नए तरीके खोजे जिससे गुजरात और राजस्थान की आर्थिक स्थितिया सुधर गयी गरीबो को काम मिलने लगा और सब को काम की वजह से उनके घर की स्थितियां सुधर गयी।
  • पुलकेशी: पुलकेशी महाराष्ट्र, कर्नाटक, आँध्रप्रदेश तक इनका राज्य था। इनके समय भारत में ना तो मुग़ल आये थे और ना अफगान थे उस समय राजपूत राजा आपस में लड़ाई करते थे अपना राज्य बढ़ाने के लिए।
  • किल्हनदेव सोलंकी (टोडा-टोंक): किल्हनदेव सोलंकी ने दिल्ली पर हमला कर बादशाह की सारी बेगमो को उठाकर टोंक के नीच जाति के लोगो में बाट दिया। क्यूंकि दिल्ली का सुलतान बेगुनाह हिन्दुओ को मारकर उनकी बीवी, बेटियों, बहुओ को उठाकर ले जाता था। इनका राज्य टोंक, धर्मराज, दही, इंदौर, मालवा तक फैला हुआ था।
  • बल्लू दादा: मांडलगढ़ के बल्लू दादा ने अकेले ही अकबर के दो खास ख्वाजा अब्दुलमाजिद और असरफ खान की सेना का डट कर मुकाबला किया और मौत के घाट उतार दिया। हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के साथ युद्ध में काम आये। बल्लू दादा के बाद उनके पुत्र नंदराय ने मांडलगढ़–मेवाड की कमान अपने हाथों में ली इन्होने मांडलगढ़ की बहुत अच्छी तरह देखभाल की लेकिन इनके समय महाराणा प्रताप जंगलो में भटकने लगे थे और अकबर ने मान सिंह के साथ मिलकर मांडलगढ़ पर हमला कर दिया और सभी सोलंकियों ने उनका मुकाबला किया और लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।
  • वच्छराज सोलंकी: वच्छराज सोलंकी ने गौ हथ्यारो को अकेले ही बिना सैन्य बल के लड़ते हुए धड काटने के बाद भी 32 किलोमीटर तक लड़ते हुए गए अपने घोड़े पर और गाय चोरो को एक भी गाय नहीं ले जने दी और सब को मौत के घात उतार कर अंत में वीरगति को प्राप्त हो गए जिसकी वजह से आज भी गुजरात की जनता इनकी पूजती है और राधनपुर-पालनपुर में इनका एक मंदिर भी बनाया हुआ है।
  • भीमदेव प्रथम: भीमदेव प्रथम जब 10-11 वर्ष के थे तब इन्होने अपने तीरे अंदाज का नमूना महमूद गजनवी को कम उमर में ही दिखा दिया था महमूद गजनवी को कोई घायल नहीं कर पाया लेकिन इन्होने दद्दा चालुक्य की भतीजी शोभना चालुक्य (शोभा) के साथ मिलकर महमूद गजनवी को घायल कर दिया और वापस गजनी-अफगानिस्तान जाने पर विवश कर दिया जिसके कारण गजनवी को सोमनाथ मंदिर लूटने का विचार बदलकर वापस अफगानिस्तान जाना पड़ा।

  • कुमारपाल: कुमारपाल ने जैन धर्म की स्थापना की और जैनों का साथ दिया। गुजरात और राजस्थान के व्यापारियों को इन्होने व्यापार करने के नए–नए तरीके बताये और वो तरीके राजस्थान के राजाओ को भी बेहद पसंद आये और इससे दोनों राज्यों की शक्ति और मनोबल और बढ़ गया। गुजरात, राजस्थान की जनता को काम मिलने लगे जिससे उनके घरो का गुजारा होने लगा।
  • राव सुरतान: राव सुरतान के समय मांडू सुल्तान ने टोडा पर अधिकार कर लिया तब बदनोर–मेवाड की जागीर मिली राणा रायमल उस समय मेवाड के उतराधिकारी थे। राव सुरतान की बेटी ने शर्त रखी ‘ मैं उसी राजपूत से शादी करुँगी जो मुझे मेरी जनम भूमि टोडा दिलाएगा। तब राणा रायमल के बेटे राणा पृथ्वीराज ने उनका साथ दिया पृथ्वीराज बहुत बहादूर था और जोशीला बहुत ज्यादा था। चित्तोड़ के राणा पृथ्वीराज, राव सुरतान सिंह और राजकुमारी तारा बाई ने टोडा-टोंक पर हमला किया और मांडू सुलतान को तारा बाई ने मौत के घाट उतार दिया और टोडा पर फिर से सोलंकियों का राज्य कायम किया। तारा बाई बहुत बहादूर थी। उसने अपने वचन के मुताबिक राणा पृथ्वीराज से विवाह किया। ऐसी सोलंकिनी राजकुमारी को सत सत नमन। यहाँ पर मान सिंह और अकबर खुद आया था। युद्ध करने और पुरे टोडा को 1 लाख मुगलों ने चारो और से गैर लिया। सोलंकी सैनिको ने भी अकबर की सेना का सामना किया और अकबर के बहुत से सैनिको को मार गिराया और अंत में सबने लड़ते हुए वीरगति पाई।

सोलंकी वंश की कला साहित्य:

मरु-गुर्जर वास्तुकला, या “सोलाकि शैली”, उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला की एक शैली है जो गुजरात और राजस्थान में 11 वीं से 13 वीं शताब्दी में, चौलुक्य वंश (या सोलाची वंश) के तहत उत्पन्न हुई थी। यद्यपि हिंदू मंदिर वास्तुकला में एक क्षेत्रीय शैली के रूप में उत्पन्न हुआ, यह जैन मंदिरों में विशेष रूप से लोकप्रिय हो गया और मुख्य रूप से जैन संरक्षण के तहत, बाद में पूरे भारत में और दुनिया भर के समुदायों में फैल गया।

अधिकांश राजवंश शासक शैव थे, हालाँकि उन्होंने जैन धर्म का संरक्षण भी किया था। कहा जाता है कि राजवंश के संस्थापक मूलराज ने दिगम्बर जैनियों के लिए मूलवत्सिका मंदिर और श्वेताम्बर जैनियों के लिए मूलनाथ-जिनदेव मंदिर का निर्माण किया था। दिलवाड़ा मंदिरों और मोढ़ेरा सूर्य मंदिर का सबसे पहले निर्माण भीम प्रथम के शासनकाल के दौरान किया गया था। लोकप्रिय परंपरा के अनुसार, उनकी रानी उदयमती ने भी रानी के चरण-कमल की स्थापना की थी। कुमारपाल ने अपने जीवन में किसी समय जैन धर्म का संरक्षण करना शुरू किया, और उसके बाद के जैन खातों ने उन्हें जैन धर्म के अंतिम महान शाही संरक्षक के रूप में चित्रित किया। चालुक्य शासकों ने मुस्लिम व्यापारियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए मस्जिदों का भी समर्थन किया।

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कलचुरी राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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कलचुरी वंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य | Kalchuri Dynasty History in Hindi

कलचुरी राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Kalchuri Dynasty History and Important Facts in Hindi)

कलचुरि प्राचीन भारत का विख्यात राजवंश था। कलचुरी वंश की स्थापना कोकल्ल प्रथम ने लगभग 845 ई. में की थी। उसने त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया था। कलचुरी सम्भवतः चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे। कोकल्ल ने प्रतिहार शासक भोज एवं उसके सामन्तों को युद्ध में हराया था। उसने तुरुष्क, वंग एवं कोंकण पर भी अधिकार कर लिया था। कोकल्ल के 18 पुत्रों में से उसका बड़ा पुत्र शंकरगण अगला कलचुरी शासक बना था। कर्णदेव ने 1060 ई. के लगभग मालवा के राजा भोज को पराजित कर दिया, परंतु बाद में कीर्तिवर्मा चंदेल ने उसे हरा दिया। इससे कलचुरियों की शक्ति क्षीण हो गई और 1181 तक अज्ञात कारणों से इस वंश का पतन हो गया। कलचुरी शासक ‘त्रैकूटक संवत’ का प्रयोग करते थे, जो 248-249 ई. में प्रचलित हुआ था।

कलचुरि राजवंश के शासक:

कोक्कल-प्रथम (875-925): कोक्कल-प्रथम कलचुरि वंश का संस्थापक तथा प्रथम ऐतिहासिक शासक था जिसने राष्ट्रकूटों और चन्देलों के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित किये। प्रतिहारों के साथ कोक्कल-प्रथम का मैत्री-सम्बन्ध था। इस प्रकार उसने अपने समय के शक्तिशाली राज्यों के साथ मित्रता और विवाह द्वारा अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। कोक्कल-प्रथम अपने समय के प्रसिद्ध योद्धाओं और विजेताओं में से एक था।

गांगेयदेव: गांगेयदेव लगभग 1019 ई. में त्रिपुरी के राजसिंहासन पर बैठा। गांगेयदेव को अपने सैन्य-प्रयत्नों में विफलता भी प्राप्त हुई किन्तु उसने कई विजयें प्राप्त की और अपने राज्य का विस्तार करने में काफी अंश तक सफलता प्राप्त की। उसके अभिलेखों के अतिरंजनापूर्ण विवरणों को न स्वीकार करने पर भी, यह माना गया है कि गांगेयदेव ने कीर देश अथवा कांगड़ा घाटी तक उत्तर भारत में आक्रमण किये और पूर्व में बनारस तथा प्रयाग तक अपने राज्य की सीमा को बढ़ाया। प्रयाग और वाराणसी से और आगे वह पूर्व में बढ़ा। अपनी सेना लेकर वह सफलतापूर्वक पूर्वी समुद्र तट तक पहुँच गया और उड़ीसा को विजित किया। अपनी इन विजयों के कारण उसने विक्रमादित्य का विरुद धारण किया। उसने पालों के बल की अवहेलना करते हुए अंग पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में उसे सफलता प्राप्त हुई। यह सम्भव है कि गांगेयदेव ने कुछ समय तक मिथिला या उत्तरी बिहार पर भी अपना अधिकार जमाये रखा था।

लक्ष्मीकर्ण: गांगेयदेव के उपरान्त उसका प्रतापी पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्णराज सिंहासन पर बैठा। वह अपने पिता की भांति एक वीर सैनिक और सहस्रों युद्धों का विजेता था। उसने काफी विस्तृत और महत्त्वपूर्ण विजयों द्वारा कलचुरि शक्ति का विकास किया। कल्याणी और अन्हिलवाड के शासकों से सहायता प्राप्त कर कर्ण ने परमार राजा भोज को परास्त कर दिया। उसने चन्देलों और पालों पर विजय प्राप्त की। उसके अभिलेख बंगाल और उत्तर प्रदेश में पाये गये हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इन भागों पर उसका अधिकार था। कर्ण का राज्य गुजरात से लेकर बंगाल और गंगा से महानदी तक फैला हुआ था। उसने कलिंगापति की उपाधि ली।

यशकर्ण: यश कर्ण सन सन 1703 के लगभग त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठा। उसने वेंगी राज्य और उत्तरी बिहार तक धावे बोले। उसके पिता के अंतिम दिनों में उसके राज्य की स्थिति काफी डावांडोल हो गयी थी और इसी डावांडोल स्थिति में उसने राज्सिनासन पर पैर धारा था। परन्तु अपने राज्य की इस गड़बड़ स्थिति का विचार न करते हुए यशकर्ण ने अपने पिता और पितामह की भांति सैन्य-विजय क्रम जारी रखा। पहले तो उसे कुछ सफलता मिली, लेकिन शीघ्र ही उसका राज्य स्वयं अनेक आक्रमणों का केंद्र बिंदु बन गया। उसके पिता और पितामह की आक्रमणात्मक साम्राज्यवादी नीति से जिन राज्यों को क्षति पहुंची थी, वे सब प्रतिकार लेने का विचार करने लगे। दक्कन के चालुक्यों ने उसके राज्य पर हमला बोल दिया और अपने हमले में वे सफल भी रहे। गहड़वालों के उदय ने गंगा के मैदान में उसकी स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला। चंदेलों ने भी उसकी शक्ति को सफलतापूर्वक खुली चुनौती डी। परमारों ने यश कर्ण की राजधानी को खूब लूटा-खसोटा। इन सब पराजयों ने उसकी शक्ति को झकझोर दिया। उसके हाथों से प्रयाग और वाराणसी के नगर निकल गए और उसके वंश का गौरव श्रीहत हो गया।

यशःकर्ण के उत्तराधिकारी और कलचुरी वंश का पतन: यशः कर्ण के उपरांत उसका पुत्र गया कर्ण सिंहासनारूढ़ हुआ किन्तु वह अपने पिता के शासन काल में प्रारंभ होने वाली अपने वंश की राजनैतिक अवनति को वह रोक न सका। उसके शासन-काल में रत्नपुरी की कलचुरि शाखा दक्षिण कौशल में स्वतन्त्र हो गई। गयाकर्ण ने मालवा-नरेश उदयादित्य की पौत्री से विवाह किया था। इसका नाम अल्हनादेवी था। गयाकर्ण की मृत्यु के बाद, अल्हनादेवी ने भेरघाट में वैद्यनाथ के मन्दिर और मठ का पुनर्निर्माण कराया। गयाकर्ण का अद्वितीय पुत्र जयसिंह कुछ प्रतापी था। उसने कुछ अंश तक अपने वंश के गौरव को पुनः प्रतिष्ठापित करने में सफलता प्राप्त की। उसने सोलंकी नरेश कुमारपाल को पराजित किया। जयसिंह की मृत्यु 1175 और 1180 के मध्य किसी समय हुई। उसका पुत्र विजयसिंह कोक्कल-प्रथम के वंश का अन्तिम नरेश था जिसने त्रिपुरी पर राज्य किया। विजयसिंह को 1196 और 1200 के बीच में जैतुगि-प्रथम ने, जो देवगिरि के यादववंश का नरेश था, मार डाला और त्रिपुरी के कलचुरि वंश का उन्मूलन कर दिया।

कलचुरि राजवंश के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य:

  • कलचुरियों की वंशावली किस नरेश से आरम्भ होती है, उसके बारे में अनुमान किया जाता है कि कोकल्लदेव से आरम्भ होती। कोकल्लदेव के वंशज कलचुरी कहलाये।
  • कलचुरि हैदयों की एक शाखा है। हैदयवंश ने रतनपुर और रायपुर में दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक शासन किया।
  • कोकल्ल महाप्रतापी राजा थे, पर उनके वंशजों में जाजल्लदेव (प्रथम), रत्नदेव (द्वितीय) और पृथ्वीदेव (द्वितीय) के बारे में कहा जाता है कि वे न सिर्फ महापराक्रमी राजा थे, बल्कि छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक उन्नति के लिए भी चेष्टा की थीं।
  • जाजल्लदेव (प्रथम) ने अपना प्रभुत्व आज के विदर्भ, बंगाल, ओडिशा आन्ध्र प्रदेश तक स्थापित कर लिया था। युद्धभूमि में यद्यपि उनका बहुत समय व्यतीत हुआ, परन्तु निर्माण कार्य भी करवाये थे । तालाब खुदवाया, मन्दिरों का निर्माण करवाया। उसके शासनकाल में सोने के सिक्के चलते थे – उसके नाम के सिक्के। ऐसा माना जाता है कि जाजल्लदेव विद्या और कला के प्रेमी थे, वे आध्यात्मिक थे। जाजल्लदेव के गुरु थे गोरखनाथ। गोरखनाथ के शिष्य परम्परा में भर्तृहरि और गोपीचन्द थे – जिनकी कथा आज भी छत्तीसगढ़ में गाई जाती है।
  • रतनदेव के बारे में ये कहा जाता है कि वे एक नवीन राजधानी की स्थापना की जिसका नाम रतनपुर रखा गया और जो बाद में के नाम से जाना गया। रतनदेव भी बहुत ही हिंसात्मक युद्धों में समय नष्ट की, पर विद्या और कला के प्रेमी थे। इसलिए विद्वानों की कदर थी। रतनदेव ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया और तालाब खुदवाया।
  • पृथ्वीदेव द्वितीय भी बड़े योद्धा थे। कला प्रेमी थे। उसके समय सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये गये थे।
  • कलचुरियों विद्वानों को प्रोत्साहन देकर उनका उत्साह बढ़ाया करते थे। राजशेखर जैसे विख्यात कवि उस समय थे। राजशेखर जी कि काव्य मीमांसा और कर्पूरमंजरी नाटक बहुत प्रसिद्ध हैं। कलचुरियों के समय में विद्वान कवियों को राजाश्रय प्राप्त था। इसीलिये शायद वे दिल खोलकर कुछ नहीं लिख सकते थे। राजा जो चाहते थे, वही लिखा जाता था।
  • कलचुरि शासको शैव धर्म को मानते थे। उनका कुल शिव-उपासक होने के कारण उनका ताम्रपत्र हमेशा “ओम नम: शिवाय” से आरम्भ होता है। ऐसा कहा जाता है कलचुरियों ने दूसरों के धर्म में कभी बाधा नहीं डाली, कभी हस्तक्षेप नहीं किया। बौद्ध धर्म का प्रसार उनके शासनकाल में हुआ था।
  • कलचुरियों ने अनेक मंदिरों धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।
  • वैष्णव धर्म का प्रचार, रामानन्द ने भारतवर्ष में किया जिसका प्रसार छत्तीसगढ़ में हुआ। बैरागी दल का गठन रामानन्द ने किया जिसका नारा था:-  “जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई”।
  • हैदय-वंश के अन्तिम काल के शासक में योग्यता और इच्छा-शक्ति न होने का कारण हैदय-शासन की दशा धीरे-धीरे बिगड़ती चली गयी और अन्त में सन् 1741 ई. में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छत्तीसगढ़ पर आक्रमण कर हैदय शासक की शक्ति प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।

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चन्देल राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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चन्देल वंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य- Chandela Dynasty History in Hindi

चन्देल राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Chandela Dynasty History and Important Facts in Hindi)

चन्देल वंश:

चन्देल वंश गोंड जनजातीय मूल का प्रसिद्ध राजपूत वंश था, जिसने 8वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से राज किया। प्रतिहारों के पतन के साथ ही चंदेल 9वीं शताब्दी में सत्ता में आए। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। उन्‍होंने लगभग चार शताब्दियों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। उनका साम्राज्य उत्तर में यमुना नदी से लेकर सागर (मध्य प्रदेश, मध्य भारत) तक और धसान नदी से विंध्य पहाड़ियों तक फैला हुआ था। सुप्रसिद्ध कालिंजर का क़िला, खजुराहो, महोबा और अजयगढ़ उनके प्रमुख गढ़ थे। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। खजुराहो के मंदिर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं।

चन्देल वंश (साम्राज्य) का इतिहास:

चन्देल वंश गोंड जनजातीय मूल का राजपूत वंश था, जिसने उत्तर-मध्य भारत के बुंदेलखंड पर कुछ शताब्दियों तक शासन किया। गोंड (जनजाति), भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं।

गोंड भारत के कटि प्रदेश – विंध्यपर्वत, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम में गोदावरी नदी तक फैले हुए पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाली आस्ट्रोलायड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों और जंगलों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड जैसे समूह हैं जो जंगलों में प्राय: नंगे घूमते और अपनी जीविका के लिये शिकार तथा वन्य फल मूल पर निर्भर हैं। गोंडों की जातीय भाषा गोंडी है जो द्रविड़ परिवार की है और तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित है।

चन्देल वंश की स्थापना तथा शासक:

जेजाकभुक्ति के प्रारम्भिक शासक गुर्जर प्रतिहार शासकों के सामंत थे। इन्होनें खजुराहो को अपनी राजधानी बनाया। ‘नन्नुक’ चन्देल वंश का पहला राजा था। उसके अतिरिक्त अन्य सामंत थे- वाक्पति, जयशक्ति (सम्भवतः इसके नाम पर ही बुन्देलखण्ड का नाम जेजाक भुक्ति पड़ा) विजय शक्ति, राहिल एवं हर्ष।

चन्देल राजवंश के शासकों की सूची:

  • नन्नुक (831 – 845 ई.) (संस्थापक)
  • वाक्पति (845 – 870 ई.)
  • जयशक्ति चन्देल और विजयशक्ति चन्देल (870 – 900 ई.)
  • राहिल (900 – ?)
  • हर्ष चन्देल (900 – 925 ई.)
  • यशोवर्मन (925 – 950 ई.)
  • धंगदेव (950 – 1003 ई.)
  • गंडदेव (1003 – 1017 ई.)
  • विद्याधर (1017 – 1029 ई.)
  • विजयपाल (1030 – 1045 ई.)
  • देववर्मन (1050-1060 ई.)
  • कीरतवर्मन या कीर्तिवर्मन (1060-1100 ई.)
  • सल्लक्षणवर्मन (1100 – 1115 ई.)
  • जयवर्मन (1115 – ?)
  • पृथ्वीवर्मन (1120 – 1129 ई.)
  • मदनवर्मन (1129 – 1162 ई.)
  • यशोवर्मन द्वितीय (1165 – 1166 ई.)
  • परमार्दिदेव अथवा परमल (1166 – 1203 ई.)

खजुराहो के नागर-शैली के मंदिर एवं कला:

चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। चंदेलों को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की। उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण खजुराहो में हिंदू और जैन मंदिर हैं। तीन अन्य महत्वपूर्ण चंदेला गढ़ जयपुरा-दुर्गा (आधुनिक अजैगढ़), कलंजरा (आधुनिक कालिंजर) और महोत्सव-नगर (आधुनिक महोबा) थे। हम्मीरवर्मन को वीरवर्मन द्वितीय द्वारा सफल किया गया था, जिनके शीर्षक उच्च राजनीतिक स्थिति का संकेत नहीं देते हैं। परिवार की एक छोटी शाखा ने कलंजारा पर शासन जारी रखा: इसके शासक को 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी की सेना ने मार डाला। महोबा में एक और छोटी शाखा ने शासन किया: दुर्गावती, इसकी एक राजकुमारी ने मंडला के गोंड शाही परिवार में शादी की। कुछ अन्य शासक परिवारों ने भी चंदेला वंश का दावा किया।

नीचे खजुराहो के नागर-शैली के मंदिर एवं कला की सूची दी गई है-

  1. कंदरीया महादेव मंदिर
  2. लक्ष्मण मंदिर
  3. विश्वनाथ मंदिर
  4. कंदरीय महादेव मंदिर
  5. पार्श्वनाथ मंदिर, खजुराहो
  6. खजुराहो का दुलहदेव मंदिर
  7. अजयगढ़ महल
  8. खजुराहो का प्रतापेश्वर मंदिर
  9. अजयगढ़ मंदिर
  10. कुलपहाड़ का यज्ञ मण्डप आदि

चन्देल वंश (साम्राज्य) का अंत:

चंदेल राजा नंद या गंड ने लाहौर में तुर्कों के ख़िलाफ़ अभियान में एक अन्य राजपूत सरदार जयपाल की मदद की, लेकिन ‘ग़ज़ना’ (ग़ज़नी) के महमूद ने उन्हें पराजित कर दिया था। 1023 ई. में चंदेलों का स्थान बुंदेलों ने ले लिया। 1203 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने परार्माददेव को पराजित कर कालिंजर पर अधिकार कर लिया और अंततः 1305 ई. में चन्देल राज्य दिल्ली में मिल गया।

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मूर्तिदेवी पुरस्कार विजेताओं के नाम, वर्ष तथा भाषा की सूची (1983 से 2020 तक)

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मूर्तिदेवी पुरस्कार के विजेताओं की सूची | Moortidevi Award Winners in Hindi

मूर्तिदेवी पुरस्कार विजेता (1983 से 2020 तक): (List of Moortidevi Awards Winners in Hindi)

मूर्तिदेवी पुरस्कार किसे कहते है?

मूर्तिदेवी पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ समिति के द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित साहित्य सम्मान है।  इस  सम्मान  शुरुआत 1961  में की थी और सी. के नागराज राव प्राप्त करने वाले पहले  कन्नड़ लेखक थे। इन्हें यह पुरस्कार उनके काव्य संग्रह ‘ कन्नड़’ के लिए यह पुरस्कार दिया गया था।

Quick Info About Moortidevi Award in Hindi

पुरस्कार का वर्ग साहित्य
स्थापना वर्ष 1961
पुरस्कार राशि 04 लाख रुपये
प्रथम विजेता सी. के नागराज राव
वर्ष 2019 के विजेता डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (एस्टी और भवति)
विवरण भारतीय ज्ञानपीठ समिति द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित साहित्य सम्मान

मूर्तिदेवी पुरस्कार में दी जाने वाली राशि:

भारतीय ज्ञानपीठ समिति के द्वारा इस पुरस्कार के तहत 04 लाख रुपये की पुरस्कार राशि, सरस्वती देवी की प्रतिमा व प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।

भारतीय ज्ञानपीठ न्यास भारतीय साहित्य के विकास के लिए स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ भारतीय साहित्य के विकास के लिए श्री साहू शांति प्रसाद जैन तथा श्रीमती रमा जैन द्वारा स्थापित न्यास है। यह न्यास साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित करता है तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा मूर्ति देवी पुरस्कार नामक दो पुरस्कार प्रदान करता है, जो साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कारों में से हैं।

मूर्तिदेवी पुरस्कार विजेता 2019:

6 दिसंबर, 2019 को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा वर्ष 2019 के प्रतिष्ठित 33वें मूर्तिदेवी पुरस्कार की घोषणा की गई। इस वर्ष यह पुरस्कार साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष एवं हिंदी के प्रसिद्ध कवि-आलोचक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को प्रदान किया जाएगा। उन्हें यह पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘अस्ति और भवति’ के लिए दिया जाएगा। प्रो. सत्यव्रत शास्त्री की अध्यक्षता में गठित मूर्तिदेवी पुरस्कार चयन बोर्ड द्वारा इन्हें इस पुरस्कार को दिए जाने की घोषणा की गई।

ज्ञातव्य है कि वर्ष 1982 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मूर्ति देवी (जो भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक साहू शांति प्रसाद जैन की मां है।) की स्मृति में इस पुरस्कार को प्रतिवर्ष दिए जाने का निर्णय लिया। यह पुरस्कार भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं में से किसी भी लेखक के उन पुस्तकों का चयन किया जाता है जिनसे भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के मानवीय मूल्य प्रदर्शित होते हैं। इस पुरस्कार के तहत चार लाख रुपये की पुरस्कार राशि, सरस्वती देवी की प्रतिमा व प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया जाता है।वर्ष 2017 का 31वां मूर्तिदेवी पुरस्कार प्रसिद्ध बंगाली कवि जॉय गोस्वामी को उनके काव्य-संग्रह ‘दू दोंदो फोवारा मात्रो’ के लिए दिया गया था।

यह भी पढे: नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय व्यक्तियों की सूची

वर्ष 1983 से 2020 तक मूर्तिदेवी पुरस्कार विजेताओं की सूची:

वर्ष विजेताओं के नाम भाषा
2019 डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हिन्दी (एस्टी और भवति)
डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार हैं और 2013 से 2017 तक की अवधि के लिए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। वे गोरखपुर से प्रकाशित होने वाली ‘दस्तावेज’ नामक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका के संस्थापक-संपादक हैं। यह पत्रिका रचना और आलोचना की विशिष्ट पत्रिका है, जो 1978 से नियमित प्रकाशित हो रही है। सन् 2011 में उन्हें व्यास सम्मान प्रदान किया गया। डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार हैं और 2013 से 2017 तक की अवधि के लिए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। वे गोरखपुर से प्रकाशित होने वाली ‘दस्तावेज’ नामक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका के संस्थापक-संपादक हैं। यह पत्रिका रचना और आलोचना की विशिष्ट पत्रिका है, जो 1978 से नियमित प्रकाशित हो रही है। सन् 2011 में उन्हें व्यास सम्मान प्रदान किया गया।
2017 जॉय गोस्वामी बांग्ला (दू दोंदो फवारा मत्रो)
जॉय गोस्वामी एक भारतीय कवि हैं। गोस्वामी बंगाली में लिखते हैं और व्यापक रूप से उनकी पीढ़ी के सबसे महत्वपूर्ण बंगाली कवियों में से एक माने जाते हैं।
2016 एम.पी. वीरेंद्र कुमार मलयालम (हयमथभूविल)
एम. पी. वीरेंद्र कुमार एक भारतीय राजनीतिज्ञ, लेखक और पत्रकार थे, जो 14 वीं लोकसभा के सदस्य थे। वे लोकतांत्रिक जनता दल राजनीतिक दल के सदस्य थे और पार्टी की केरल राज्य इकाई के अध्यक्ष थे। वह मलयालम दैनिक समाचार पत्र मातृभूमि के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक भी थे। 28 मई 2020 को केरल के कोझीकोड में कार्डियक अरेस्ट के कारण उनका निधन हो गया।
2015 प्रो. कोलकलुरी इनोच तेलगू (अनंत जीवनम्)
प्रो. कोलकलुरी इनोच एक भारतीय लेखक, शिक्षक और श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, तिरुपति के पूर्व कुलपति हैं। 2014 में, उन्हें साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए, चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, पद्म श्री से सम्मानित करके, भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया गया था।
2014 विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी (व्योमकेश दरवेश)
विश्वनाथ त्रिपाठी एक हिंदी लेखक हैं। उनके श्रेय में लगभग 20 प्रकाशन हैं जिनमें साहित्यिक आलोचना, संस्मरण और कविता संग्रह शामिल हैं।
2013 सी. राधाकृष्णन मलयालम (थेकाडल कतनहु थिरुमधुराम)
सी. राधाकृष्णन केरल, भारत के मलयालम भाषा के लेखक और फिल्म निर्देशक हैं। राधाकृष्णन स्कूल ऑफ भगवद गीता से प्रकाशित मलयालम पत्रिका पीरवी के संपादक थे। वे 16 अगस्त 1999 से 1 सितंबर 2001 तक दैनिक मध्यमा के पूर्व मुख्य संपादक थे
2012 हरप्रसाद दास ओडिया (वमशा)
हरप्रसाद दास ओडिया भाषा के कवि, निबंधकार और स्तंभकार हैं। दास के पास कविता के बारह काम, गद्य के चार, तीन अनुवाद और उनके श्रेय का एक टुकड़ा है। हरप्रसाद, सेवानिवृत्त सिविल सेवक हैं। उन्होंने एक विशेषज्ञ के रूप में संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न निकायों की सेवा ली है।
2011 गुलाब कोठारी हिंदी (मैं ही राधा, मैं ही कृष्णा)
गुलाब कोठारी एक भारतीय लेखक, और राजस्थान पत्रिका के प्रधान संपादक हैं। कोठारी को वैदिक अध्ययन में उनके योगदान के लिए जाना जाता है और उन्हें 2011 में मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, उनकी पुस्तक मैं ही राधा, मैं ही कृष्णा के लिए।
2010 गोपी चंद नारंग उर्दू (उर्दू ग़ज़ल और हिंदुस्तानी ज़ेहन-ओ तहज़ीब)
गोपी चंद नारंग एक भारतीय सिद्धांतकार, साहित्यिक आलोचक और विद्वान हैं, जो उर्दू और अंग्रेजी में लिखते हैं। उनकी उर्दू साहित्यिक आलोचना में स्टाइलिस्टिक्स, संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद और पूर्वी काव्य सहित आधुनिक सैद्धांतिक ढांचे की एक श्रृंखला शामिल है।
2009 अक्कीथम अछूठन नंबूथिरी मलयालम (विभिन्न कविताएँ)
अक्कीथम अछूठन नंबूथिरी, जो अक्किथम के नाम से लोकप्रिय है, एक भारतीय कवि और मलयालम भाषा का निबंधकार है। लेखन की एक सरल और आकर्षक शैली के लिए जाना जाता है, अक्किथम भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार, और पद्म श्री, एझुथचन पुरस्कार, केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार, कविता के लिए केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार, ओडाकुझल पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कारों के 2019 प्राप्तकर्ता हैं।
2008 रघुवंश रघुवंश हिन्दी (पसचिम भुतिक संस्कृ त कै उत्थान और पाटन)
2007 वीरप्पा मोइली कन्नड़ (श्री रामायण महानेश्वरम)
मारपाड़ी वीरप्पा मोइली एक भारतीय राजनेता हैं जो कर्नाटक राज्य से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबंधित हैं। मोइली भारतीय राज्य कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री (और पहले जातीय तुलुवा सीएम) थे। वह उडुपी जिले के करकला निर्वाचन क्षेत्र से कर्नाटक राज्य विधान सभा के लिए चुने गए। 2009 से 2019 तक, उन्होंने लोकसभा में चिकबल्लापुर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया।
2006 कृष्णबिहारी मिश्र हिन्दी (कल्पतरु की उत्सव लीला)
कृष्ण बिहारी मिश्र का जन्म 1 जुलाई 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया गाँव में हुआ था वे प्रसिद्ध लेखक थे उनकी हिन्दी विधाएँ निबंध, पत्रकारिता, जीवनी, संस्मरण, संपादन, अनुवाद मुख्य कृतियाँ पत्रकारिता : हिंदी पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमि, गणेशशंकर विद्यार्थी, पत्रकारिता : इतिहास और प्रश्न, ललित निबंध संग्रह : बेहया का जंगल, मकान उठ रहे हैं, आँगन की तलाश आदि हैं।
2005 डॉ. राममूर्ति शर्मा हिन्दी (भारतीय दर्शन की चिंताधारा)
2004 नारायन देसाई गुजराती (मरून जीवन आज मारी वाणी)
नारायण देसाई एक भारतीय गांधीवादी और लेखक थे। स्वतंत्रता सेनानी माता-पिता, नाबकृष्णा चौधरी और मालतीदेवी चौधरी की बेटी, उत्तरा चौधरी से शादी के बाद, युवा दंपति गुजरात के सूरत से 60 किलोमीटर दूर एक आदिवासी गाँव वेदछी चले गए, जहां एक नई तालीम स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया। विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए भूदान आंदोलन के बाद, नारायण ने गुजरात की लंबाई और चौड़ाई के आधार पर पैदल यात्रा की, अमीर लोगों से भूमि एकत्र की और गरीब भूमिहीन ग्रामीणों के बीच वितरण किया। उन्होंने भूदान आंदोलन का मुखपत्र शुरू किया, जिसका शीर्षक भूमिपुत्र (मृदा का पुत्र) था और 1959 तक इसके संपादक बने रहे
2003 कल्याण मल लोढ़ा हिन्दी
कल्याण मल लोढ़ा एक शिक्षाविद्, हिंदी लेखक, साहित्यिक आलोचक और समाज सुधारक हैं, जिन्होंने जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में कार्य किया। लोढ़ा का जन्म जोधपुर, राजस्थान में हुआ था और अब वह कोलकाता में रहती हैं। उन्होंने जैन धर्म और जैन समुदाय के कारण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रमुख थे।
2002 यशदेव शल्य हिन्दी
2001 राममूर्ति त्रिपाठी हिन्दी (श्रीगुरु महिमा)
राम मूर्ति तिर्पाठी का जन्म 4 फरवरी 1929 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी जिले के छोटे से गवँ मेँ हुआ था उन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए. एवं पी-एच.डी की डिग्री हासिल की। उन्होने हिंदी विभाग के विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद के रूप मेँ भी कार्य किया था, इसकी प्रकाशित कृतियाँ: व्यंजना और नवीन कविता, भारतीय साहित्य दर्शन, औचित्य विमर्श, रस विमर्श, साहित्यशास्त्र के प्रमुख पक्ष, लक्षणा और उसका हिन्दी काव्य में प्रसार, रहस्यवाद आदि हैं।
2000 गोविन्दचन्द्र पांडेय हिन्दी (साहित्य सौन्दर्य और संस्कृत)
गोविंद चंद्र पांडे वैदिक और बौद्ध काल के प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार थे। उन्होंने जयपुर और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में प्राचीन इतिहास के कुलपति और कुलपति की सेवा की। वह कई वर्षों तक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी, शिमला के अध्यक्ष और इलाहाबाद म्यूजियम सोसाइटी के अध्यक्ष और केंद्रीय तिब्बती समाज के अध्यक्ष, सारनाथ वाराणसी के अध्यक्ष भी रहे।
1995 निर्मल वर्मा हिन्दी (भरत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र)
निर्मल वर्मा एक हिंदी लेखक, उपन्यासकार, कार्यकर्ता और अनुवादक थे। उन्हें हिंदी साहित्य के नई कहानी (नई कहानी) के साहित्यिक आंदोलन के अग्रदूतों में से एक के रूप में श्रेय दिया जाता है, जिसमें उनके पहले कहानी संग्रह, परिंदे (पक्षी) को इसका पहला हस्ताक्षर माना जाता है। अपने करियर में पांच दशक और साहित्य के विभिन्न रूपों, जैसे कहानी, यात्रा वृत्तांत और निबंधों में, उन्होंने पांच उपन्यास, आठ लघु-कहानी संग्रह और गैर-कथा साहित्य की नौ पुस्तकें लिखीं, जिनमें निबंध और यात्रा-वृतांत शामिल हैं।
1994 शिवाजी सावन्त मराठी (मृत्युंजय)
शिवाजी सावंत (31 अगस्त 1940 – 18 सितंबर 2002) मराठी भाषा में एक भारतीय उपन्यासकार थे। प्रसिद्ध मराठी उपन्यास मृत्युंजय लिखने के लिए उन्हें मृत्युंजयकार (मृत्युंजय का अर्थ निर्माता) के रूप में जाना जाता है। वह पहले मराठी लेखक थे, जिन्हें 1994 में मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 1995 से महाराष्ट्र साहित्य परिषद के उपाध्यक्ष का पद संभाला था। वह 1983 में बड़ौदा साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष थे।
1993 श्यामाचरण दुबे हिन्दी
श्यामाचरण दुबे भारतीय समाजशास्त्री एवं साहित्यकार हैं। उन्हें एक कुशल प्रशासक और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सलाहकार के रूप में भी याद किया जाता है। वे साहसिक और मानवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति थे। इनका जन्म मध्य प्रदेश में हुआ था परंपरा इतिहासबोध और संस्कृति के लिए उन्हें भारतीय ञानपीठ ने मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया।
1992 कुबेरनाथ राय हिन्दी (मराल)
कुबेर नाथ राय हिंदी साहित्य और संस्कृत के लेखक और विद्वान थे। 1958 से 1986 तक वह नलबाड़ी कॉलेज, असम में अंग्रेजी विभाग में व्याख्याता के रूप में रहे। 1986 से 1995 तक वह स्वामी सहजानंद सरस्वती पीजी कॉलेज, गाजीपुर, यूपी में एक प्राचार्य के रूप में थे। उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ से मोर्तिदेवी पुरस्कार और यूपी, और असम सरकार से कई पुरस्कार मिले।
1991 डॉ. प्रतिभा राय ओडिया (यागनसेनी)
डॉ. प्रतिभा राय एक भारतीय अकादमिक और लेखिका हैं। उनका जन्म 21 जनवरी 1943 को, ओडिशा राज्य के कटक जिले के पूर्व में जगतसिंहपुर जिले के बालिकुडा क्षेत्र के एक दूरस्थ गाँव अल्बोल में हुआ था। वह 1991 में मॉर्तिदेवी पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला थीं।
1990 मुनि श्री नागराज हिन्दी
मुनिश्री नागराज एक भारतीय लेखक, हिंदी भाषा के कवि हैं। उन्होंने 1990 में मॉर्तिदेवी पुरस्कार जीता था।
1989 विद्या निवास मिश्र हिन्दी
विद्या निवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी 1926 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के पकरडीहा में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में की थी। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. करने के बाद, उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान राहुल सांकृत्यायन के निर्देशन में हिंदी शब्दकोश के संकलन के काम में खुद को शामिल किया। विद्या निवास मिश्र एक विद्वान, हिंदी-संस्कृत के साहित्यकार और पत्रकार थे। उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
1988 विष्णु प्रभाकर हिन्दी
विष्णु प्रभाकर एक हिंदी लेखक थे। उनके पास क्रेडिट के लिए कई लघु कथाएँ, उपन्यास, नाटक और यात्रा वृत्तांत थे। प्रभाकर की रचनाओं में देशभक्ति, राष्ट्रवाद और सामाजिक उत्थान के संदेश हैं। उन्हें 1993 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1995 में महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार और 2004 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण (भारत का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान) से सम्मानित किया गया था।
1987 मनुभाई पाँचोली गुजराती (ज़ीर ते पिढा छे जानी जानी)
मनुभाई पंचोली को उनके कलम नाम से भी जाना जाता है, गुजरात, भारत के एक गुजराती भाषा के उपन्यासकार, लेखक, शिक्षाविद और राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और स्वतंत्रता के बाद कई कार्यालयों का संचालन किया। पंचोली को गुजराती साहित्य में सबसे महान उपन्यासकारों में से एक माना जाता है। उन्होंने महात्मा गांधी से प्रभावित किया, और गांधीवादी सोच और उनके लेखन और जीवन में तरीकों का पालन किया।
1986 कन्हैया लाल सेथिआ राजस्थानी
कन्हैयालाल सेठिया एक प्रसिद्ध राजस्थानी और हिंदी कवि थे। उनका जन्म भारतीय राज्य राजस्थान में चुरू जिले के सुजानगढ़ में हुआ था। वे संघ स्तर पर राजस्थान के लोगों की मातृभाषा, राजस्थानी बनाने के एक उत्साही समर्थक थे, वह एक सरकारी मान्यता प्राप्त स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, सुधारक, परोपकारी और पर्यावरणविद थे।
1984 वीरेंद्र कुमार सखलेचा हिन्दी
वीरेंद्र कुमार सखलेचा एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने 18 जनवरी 1978 से 19 जनवरी 1980 तक मध्य प्रदेश के 10 वें मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। वे भारतीय जनता पार्टी के नेता थे। वह मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले से हैं। इन्हे वर्ष 1984 में मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1983 सी. के नागराज राव कन्नड़ (व)
सी.के. नागराजा राव एक कन्नड़ लेखक, नाटककार, मंच कलाकार, निर्देशक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें 1983 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनकी प्रसिद्ध रचना “पट्टमहादेवी शांतालदेवी” के लिए मूर्तिदेवी पुरस्कार दिया गया था। वे इस पुरस्कार के पहले प्राप्तकर्ता थे वर्ष 1978 में कर्नाटक साहित्य अकादमी द्वारा उनकी उसी रचना को “सर्वश्रेष्ठ रचनात्मक साहित्यिक कार्य” पुरस्कार मिला।

यह भी पढ़े: केदार सम्मान से सम्मानित व्यक्तियों की सूची

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मौर्य राजवंश का इतिहास, पतन के कारण एवं उनके शासकों के नाम

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मौर्य राजवंश का इतिहास एवं शासकों के नाम: (History of Murya Empire and Name of Rulers in Hindi)

मौर्य राजवंश:

मौर्य राजवंश (322 से 185 ईसा पूर्व) प्राचीन भारत का एक महान राजवंश था। इसने 137 वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) को दिया जाता है, जिन्होंने नंदवंश के सम्राट घनानन्द को पराजित किया। मौर्य साम्राज्य के विस्तार एवं उसे शक्तिशाली बनाने का श्रेय सम्राट अशोक जाता है। विनयपिटक के अनुसार बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया, लेकिन जैन और ब्राह्मण धर्म के प्रति उसकी सहिष्णुता थी।

मौर्य राजवंश का इतिहास:

मौर्य साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने 322 ईसा पूर्व में इस साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपना साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फायदा उठाया जो सिकन्दर के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। ३१६ ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्य वंश का बेहद विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही मौर्य साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ।

मौर्य साम्राज्य का पतन:

मौर्य सम्राट की मृत्यु के उपरान्त लगभग दो सदियों (322 से 184ई.पू.) से चले आ रहे शक्‍तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन होने लगा। अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी। इससे मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया।

मौर्यवंश के पतन के मुख्य कारण:

  • अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी,
  • प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीयकरण,
  • राष्ट्रीय चेतना का अभाव,
  • आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ,
  • प्रान्तीय शासकों के अत्याचार,
  • करों की अधिकता।

मौर्य राजवंश के शासक एवं शासन अवधि:

क्र.सं. मौर्य राजवंश के शासकों का नाम शासन काल अवधि
1. चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ईसा पूर्व से 298 ईसा पूर्व तक
2. बिन्दुसार मौर्य 298 ईसा पूर्व से 272 ईसा पूर्व तक
3. अशोक मौर्य 273 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व तक
3. कुणाल मौर्य  232 ईसा पूर्व से 228 ईसा तक
4. दशरथ मौर्य 232 ईसा पूर्व से 224 ईसा पूर्व तक
5. सम्प्रति मौर्य 224 ईसा पूर्व से 215 ईसा पूर्व तक
6. शालिसुक मौर्य 215 ईसा पूर्व से 202 ईसा पूर्व तक
7. देववर्मन मौर्य 202 ईसा पूर्व से 195 ईसा पूर्व तक
8. शतधन्वन मौर्य 195 ईसा पूर्व से 187 ईसा पूर्व तक
9. बृहद्रथ मौर्य 187 ईसा पूर्व से 185 ईसा पूर्व तक

चंद्रगुप्त मौर्य: 

चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजा हैं। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफल रहे। चन्द्रगुप्त के सिहासन संभालने से पहले, सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था, और 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना में विद्रोह की वजह से आगे का प्रचार छोड़ दिया, जिससे भारत-ग्रीक और स्थानीय शासकों द्वारा शासित भारतीय उपमहाद्वीप वाले क्षेत्रों की विरासत सीधे तौर पर चन्द्रगुप्त ने संभाली। चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (जिसे कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है,जो चन्द्र गुप्त के प्रधानमंत्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया, राज्यचक्र के सिद्धांतों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा।

चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात था तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर-पश्‍चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था। अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चले गए थे। 298ई. पू. में सलेखना उपवास द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना शरीर त्याग दिया।

बिन्दुसार मौर्य:

बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे जिसे वायु पुराण में मद्रसार और जैन साहित्य में सिंहसेन कहा गया है। यूनानी लेखक ने इन्हें अभिलोचेट्‍स कहा है। यह 298 ई. पू. मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता दुर्धरा थी। थेरवाद परम्परा के अनुसार वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी थे । बिन्दुसार के समय में भारत का पश्‍चिम एशिया से व्यापारिक सम्बन्ध अच्छा था। बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने डायमाइकस नामक राजदूत भेजा था। मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।

दिव्यावदान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार सुसीम दूसरी बार अशोक को भेजा प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। प्रति में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्‍त किए। दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था। बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद्‍थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने २५ वर्षों तक राज्य किया अन्ततः 272 ई. पू. उसकी मृत्यु हो गयी।

अशोक मौर्य:

अशोक राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे। इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद 269 ई. पू. में हुआ था। वह 273ई. पू. में सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 99 भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है। दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी।

बौध्य धर्म की शिंघली अनुश्रुतियों के अनुसार बिंदुसार की 16 पत्नियाँ और 101 संताने थी। जिसमे से सबसे बड़े बेटे का नाम सुशीम और सबसे छोटे बेटे का नाम तिष्य था। इस प्रकार बिन्दुसार के बाद मौर्यवंश का वारिश सुशीम था किन्तु ऐसा नहीं हुवा क्यूंकि अशोक ने राज गद्दी के लिए उसे मार दिया।

कुणाल मौर्य:

क़ुणालजब राजकुमार 7 वर्ष के हुए तो सम्राट नें कुणाल के शिक्षकों को कुणाल की शिक्षा शुरु करने के लिये प्राकृत भाषा में एक पत्र लिखा. अशोक की एक पत्नी जो चाहती थी कि राजगद्दी उसके पुत्र को मिले, वहाँ उपस्थित थी। उसने वह पत्र पढ़ लिया। उसने पत्र में चुपके से ‘अ’ अक्षर के ऊपर एक बिंदु लगा दिया जिससे ‘अधीयु’ शब्द ‘अंधीयु’ में परिवर्तित हो गया जिसका अर्थ था राजकुमार को अंधा कर दिया जाये. पत्र को बिना दुबारा पढ़े सम्राट ने उस पर मुहर लगा कर भेज दिया. उज्जैन के पेशकार को उस पत्र को पढ़ कर इतना धक्का लगा कि वह उसे पढ़ कर राजकुमार को नहीं सुना पाया। अंतत: उस पत्र को राजकुमार नें स्वयं ही पढ़ा तथा यह जानते हुए कि मौर्य साम्राज्य में अभी तक किसी ने घर के मुखिया की बात का उल्लंघन नहीं किया, एक बुरा उदाहरण ना बनने के लिये उन्होंने गर्म सलाखों से स्वयं को अंधा कर लिया यह भी कहा जाता है कि कुणाल को एक विद्रोही के दमन के लिये तक्षशिला भेजा गया था जिसमें वह सफल भी हो गये। किंतु बाद में तिष्यरक्षा ने छ्ल से उन्हें अंधा कर दिया सम्राट अशोक तथा रानी पद्मावती के सुपुत्र थे।

इन्हें भी पढे: प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंश और संस्थापक

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मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह: बहादुर शाह जफर का जीवन परिचय

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बहादुर शाह जफर का जीवन परिचय | Biography of Bahadur Shah Zafar in Hindi

बहादुर शाह जफर का जीवन परिचय: (Biography of Bahadur Shah Zafar in Hindi)

बहादुर शाह जफर मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-57 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे।

Quick Info About Bahadur Shah Zafar in Hindi

नाम बहादुर शाह जफर
जन्म तिथि 24 अक्टूबर 1775
पिता का नाम अकबर शाह द्वितीय
माता का नाम लालबाई
जन्म स्थान दिल्ली (भारत)
निधन तिथि 07 नवम्बर 1862
उपलब्धि मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह
उपलब्धि वर्ष 1837

बहादुर शाह ज़फ़र का प्रारम्भिक जीवन:

ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर, 1775 में हुआ था। उनके पिता अकबर शाह द्वितीय और मां लालबाई थीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद जफर को 18 सितंबर, 1837 में मुगल बादशाह बनाया गया। यह दीगर बात थी कि उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र का सम्राट रह गया था।

बहादुर शाह ज़फ़र से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य: (Important Facts Related to Bahadur Shah Zafar)

  • बहादुर शाह ज़फर भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, और उर्दू के जानेे-माने शायर थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया।
  • इन्होने 1857 की पहली भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया था।
  • 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के समय बहादुर शाह 82 वर्ष के बूढे थे।
  • सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने दुबारा दिल्ली पर क़ब्ज़ा जमा लिया और बहादुर शाह द्वितीय को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया था।
  • बहादुर शाह ज़फ़र को मेजर हडसन द्वारा बंधी बनाया गया था। जिसके बाद उन्हें रंगून ले जाया गया था।
  • बहादुर शाह ज़फ़र मुल्क से अंग्रेजों को भगाने का सपना लिए 07 नवंबर 1862 को उनका निधन हो गया था।
  • बहादुर शाह ज़फ़र की मृत्यु 86 वर्ष की अवस्था में रंगून (वर्तमान यांगून), बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में हुई थी।
  • उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है।
  • उनकी याद में बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया है।
  • बादशाह बनने के बाद बहादुर शाह जफर ने गोहत्या पर पाबंदी का जो आदेश दिया था वह कोई नया आदेश नहीं था।

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चिकित्सा विज्ञान सम्बन्धी प्रमुख अविष्कार और वैज्ञानिको की सूची

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चिकित्सा विज्ञान सम्बन्धी प्रमुख अविष्कार और वैज्ञानिको की सूची

चिकित्सा विज्ञान सम्बन्धी प्रमुख अविष्कार और वैज्ञानिको की सूची (List of major inventions and scientists related to medical science): 

समकालीन समय  में कई कई विभिन्न खोजे और अविष्कार हुए जैसे  सेल बायोलॉजी , तंत्रिका विज्ञान और विकासवादी जीवविज्ञान जिससे  न केवल जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ बल्कि जीवन प्रत्याशा भी बढ़ गई।  यहाँ पर हम आपको आविष्कारॉ और जैविक विज्ञान की खोजों की सूची बता रहे है जो न केवल आपको प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे राजग , एसएससी, राज्य सेवाओं, बैंकिंग , आदि की तैयारी में मदद करेगी बल्कि आपके अकादमिक अध्ययन में छात्रों को मदद करेगी।

खोज का नाम वैज्ञानिक का नाम
विटामिन हॉपकिंस हॉपकिंस
एंटीजन लैंडस्टीनर
डीएनए वाटसन और क्रिक
डीडीटी पॉल मुलर
होम्योपैथी सैमुअल हैनिमैन
इंसुलिन बैटिंग और पश्चिम
पोलियो वैक्सीन जे ई सॉल्क
टीबी बैक्टीरिया रॉबर्ट कॉख
बीसीजी कॉलमेट और गुएरिन
जीवाणु लीउवेंहोेक
ओपन हार्ट सर्जरी वाल्टन लिलेहेई
स्ट्रेप्टोमाइसिन वक्स्मन
स्टेथोस्कोप रेने लए नक
पेनिसिलिन ए फ्लेमिंग
आरएनए वाटसन और आर्थर
मलेरिया के रोगाणुओं चार्ल्स लवरन
किडनी मशीन डॉ विलेम कोल्फ
हृदय प्रत्यारोपण क्रिस्टियान बर्नार्ड
विरोधी गर्भावस्था गोलियों पिंकस
आनुवंशिक कोड  हरगोविन्द खुराना
पहला टेस्ट ट्यूब बेबी एडवर्ड्स और स्टेप टोे
रक्त परिसंचरण विलियम हार्वे
कुष्ठ रोग के जीवाणु हेंसन
टीकाकरण एडवर्ड जेनर
पोलियो ड्रॉप अल्बर्ट साबिन
कर्क  के जीन रॉबर्ट वेनबर्ग
क्लोरोफॉर्म  हैरिसन और सिम्पसन
आरएच फैक्टर, रक्त प्रतिस्थापन  चार्ल्स लैंडस्टीनर
सेक्स हार्मोन  यूजेन स्टैनक
शुक्राणु हम्म  और लीउ वेन होेक
प्लीहा-कार्य बारकोफ्त
स्ट्रेप्टोमाइसिन – एंटीबायोटिक सेलमन वकसमं
सल्फा दवाओं डोमगक  जी
तीन किंगडम वर्गीकरण अर्नेस्ट हैककल
थयरोक्सीन एडवर्ड केल्विन
टर्नर सिंड्रोम टर्नर
कर्क रॉबर्ट वेलबर्ग
एक्स-किरणों एक्स रोेनगतन
जीमसे एंजाइम एडवर्ड बचनर
ए.बी.ए. (अब्सिसिक  एसिड) अदिकत्त
अमीबा रोसेल वॉन रोसेंहोफ
पशु क्लोनिंग-प्रथम (मेढक कोशिकाओं से मेंढ़कों) रॉबर्ट ब्रिग्स और थॉमस राजा
रेबीज  के खिलाफ एंटीबॉडी लुई पाश्चर
डिप्थीरिया  के खिलाफ अतिविष वोन बेर्रिंग
आर्टिफिशियल हार्ट माइकल डीबके
एस्पिरिन ड्रेसर
एटीपी लोहमन के
जीवाणुभोजी टवर्त और डी हेरेल्ले
बायो कैटेलिस्ट बुशनर
बायोकेमिकल विकास वाल्ड
रक्त केशिकाओं मार्सेलो मलपोघी
रक्त परिसंचरण विलियम हार्वे
रक्त जमावट समझाया मोरविट्स
रक्त समूह (एबी) डे कॉस्टेलो और स्टर्ली
रक्त समूह (ओ) डे कॉस्टेलो और स्टर्ली
रक्त समूह  (ए, बी और ओ) कार्ल लैंड स्टेनर
रक्त दबाव मापा स्टीफन हेल्स
कार्बन डेटिंग लिब्बी व.फ़
सेल रॉबर्ट हुक
कोशिका विभाजन हॉफ मिस्टर
कोशिका सिद्धान्त सचलैंडें  और श्वान
कीमोथेरेपी पॉल एर्लिच
क्लोरोफॉर्म जेम्स सिम्पसन
च्लोरो मई टीन  (एंटीबायोटिक) बुरक धारक
चलोरोप्लास्ट स्चिम्पेर
हैजा जीवाणु रॉबर्ट कॉख
क्रोमेटिन फ्लेमिंग डब्ल्यू
क्रोमैटोग्राफी माइकल टस्वेत्त
गुणसूत्रों (परमाणु फिलामेंट्स) – एंटोन श्नाइडर
कलर ब्लाइंडनेस (एक प्रकार का नेत्र रोग जिस में लल और हरे रंग में भेद नही जान पड़ता) होर्नर्ड
यौगिक सूक्ष्मदर्शी जकारिया जानसेन
गर्भनिरोधक गोलियों पिंकस
कर्टिसों एडवर्ड केल्विन
सीटी स्कैन (कंप्यूटर असिस्टेड टोमोग्राफी (कैट) एलन मैकलॉयड कर्मक  और भगवान फ्रे नवबोल्ड हॉस्फील्ड
कीक्लोसिस अमिकि जी। बी
ईसीजी (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम) तंत्र ईंथोवेन
इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप नॉल  एम और रुसका  ई
जालिका पोर्टर के.र. , क्लाउड औरफुलमं
आदमी का विकास लेाकेय
पांच किंगडम वर्गीकरण व्हिटेकर र.एच
फूल-अपने प्रजनन भागों बढ़ी ग्रेव्
पैर और मुंह रोग सबसे पहले जानवरों के वायरल रोग लोेफ्फ्लर एफ और फ्रोस्च  ए
चार किंगडम वर्गीकरण कोपलैंड
ग्लाइकोलाइसिस (ईएमपी मार्ग) एमबदेन , मेयरहॉफ और परनस
ग्लाइओक्सिज़ोम ब्रैंडेंबच
गलगी बॉडीज कमलिओ गोलगी
हरित क्रांति नॉर्मन ई बोरलॉग
हीमोफीलिया जॉन सी ओटो
हृदय प्रत्यारोपण सर्जरी ईसाई बर्नार्ड
एचआईवी ल्यूक मॉन्टैग्नियर
हार्मोन बेलिस और मैना
मानव जीन थेरेपी मार्टिन क्लाइव
इंसुलिन सर फ्रेडरिक अनुदान ब्रांडिंग;ज.ज.र.मक्लेओद

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खगोल विज्ञान क्या है ? – What is Astronomy ?

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खगोल विज्ञान क्या है ? - What is Astronomy ?

खगोल विज्ञान क्या है ? – What is Astronomy ?

खगोलिकी ब्रह्मांड में अवस्थित आकाशीय पिंडों का प्रकाश, उद्भव, संरचना और उनके व्यवहार का अध्ययन खगोलिकी का विषय है। अब तक ब्रह्मांड के जितने भाग का पता चला है उसमें लगभग 19 अरब आकाश गंगाओं के होने का अनुमान है और प्रत्येक आकाश गंगा में लगभग 10 अरब तारे हैं। आकाश गंगा का व्यास लगभग एक लाख प्रकाशवर्ष है। हमारी पृथ्वी पर आदिम जीव 2 अरब साल पहले पैदा हुआ और आदमी का धरती पर अवतण 10-20 लाख साल पहले हुआ।

वैज्ञानिकों के अनुसार इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक महापिंड के विस्फोट से हुई है। सूर्य एक औसत तारा है जिसके आठ मुख्य ग्रह हैं, उनमें से पृथ्वी भी एक है। इस ब्रह्मांड में हर एक तारा सूर्य सदृश है। बहुत-से तारे तो ऐसे हैं जिनके सामने अपना सूर्य अणु (कण) के बराबर भी नहीं ठहरता है। जैसे सूर्य के ग्रह हैं और उन सबको मिलाकर हम सौर परिवार के नाम से पुकारते हैं, उसी प्रकार हरेक तारे का अपना अपना परिवार है। बहुत से लोग समझते हैं कि सूर्य स्थिर है, लेकिन संपूर्ण सौर परिवार भी स्थानीय नक्षत्र प्रणाली के अंतर्गत प्रति सेकेंड 13 मील की गति से घूम रहा है। स्थानीय नक्षत्र प्रणाली आकाश गंगा के अंतर्गत प्रति सेकेंड 200 मील की गति से चल रही है और संपूर्ण आकाश गंगा दूरस्थ बाह्य ज्योर्तिमालाओं के अंतर्गत प्रति सेकेंड 100 मील की गति से विभिन्न दिशाओं में घूम रही है।

अंतरिक्ष क्या है ?- What is space ?

आसान भाषा में कहा जाए तो अंतरिक्ष एक वायु रहित खाली विस्तृत क्षेत्र है, जिसकी सीमाएं सभी दिशाओं में अनन्त तक फैली हुई है। सौर मंडल, असंख्या तारे, तारकीय धूल और मंदाकिनियां सभी अंतरिक्ष के अवयव हैं। इसमें किसी प्रकार की हवा नहीं है, और न ही बादल है। दिन हो या रात, अंतरिक्ष सदा काला ही रहता है। अंतरिक्ष में कोई प्राणी नहीं रहता। निर्वात होने के कारण वहां कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता है।

अंतरिक्ष कहां से शुरू होता है, इस तथ्य की कोई जानकारी नहीं है। अंतरिक्ष हमें चारों ओर से घेरे हुए है। समझाने के लिए हम इतना ही कह सकते हैं कि अंतरिक्ष वहां से शुरू होता है जहां पृथ्वी का वायुमंडल समाप्त होता है।

ब्रह्माण्ड क्या है ? – What is universe ?

ब्रह्माण्ड सम्पूर्ण समय और अंतरिक्ष और उसकी अंतर्वस्तु को कहते हैं। ब्रह्माण्ड में सभी ग्रह, तारे, गैलेक्सियाँ, खगोलीय पिण्ड, गैलेक्सियों के बीच के अंतरिक्ष की अंतर्वस्तु, अपरमाणविक कण, और सारा पदार्थ और सारी ऊर्जा शामिल है। अवलोकन योग्य ब्रह्माण्ड का व्यास वर्तमान में लगभग 28 अरब पारसैक (91.1 अरब प्रकाश-वर्ष) है। पूरे ब्रह्माण्ड का व्यास अज्ञात है, और हो सकता है कि यह अनन्त हो।

  • ब्रह्माण्ड के अंतर्गत उन सभी आकाशीय पिण्डों एवं उल्काओं तथा समस्त और परिवार, जिसमें सूर्य, चन्द्र पृथ्वी आदि भी शामिल हैं, का अध्ययन किया जाता है।
  • ब्रह्माण्ड को नियमित अध्ययन का प्रारम्भ क्लाडियस टालेमी द्वारा (140 ई. में) हुआ।
  • टालेमी के अनुसार पृथ्वी, ब्रह्मण्ड के केन्द्र में है तथा सूर्य और अन्य गृह इसकी परिक्रमा करते हैं।
  • 1573 ई. में कॉपरनिकस ने पृथ्वी के बदले सूर्य को केन्द्र में स्वीकार किया।
  • पृथ्वी व चन्द्रमा के बीच का अन्तरिक्ष भाग सिसलूनर कहलाता है।

ब्रह्मांड की उत्पत्ति की वैज्ञानिक परिकल्पना:

  • बिग बैंग सिद्वान्त– जार्ज लेमेण्टर
  • निरंतर उत्पत्ति का सिद्धान्त– थामॅस गोल्ड और हमैन बॉण्डी
  • संकुचन विमोचन का सिद्धान्त– डा. एलेन सैण्डिज
  • ब्रह्माण्ड की जानकारी की सबसे आधुनिक स्रोत प्रो. ज्योकरांय बुरबिज द्वारा, जिन्होंने प्रतिपादित किया कि प्रत्येक गैलेक्सी ताप नाभिकीय अभिक्रिया के फलस्वरूप काफी मात्रा में हिलियम उत्सर्जित करते हैं।
  • प्रकाश वर्ष वह दूरी है, जिसे प्रकाश शून्य में 29,7925 किमी. प्रति से. या लगभग 186282 मील प्रति से. की गति से तय करता है।
  • ब्रह्माण्ड ईकाई से तात्पर्य सूर्य और पृथ्वी के बीच की औसत दूरी जो 149597870 किमी. (लगभग 149600,000 किमी.) या 15 किमी. है।
  • सूर्य और उसके पड़ोसी तारे सामान्य तौर से एक गोलाकार कक्षा में 150 किमी. प्रति सें. की औसत गति से मंदाकिनी के केन्द्र के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। इस गति से केन्द्र के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में सूर्य को 25 करोड; वर्ष लगते हैं। यह अवधि ब्रह्माण्ड वर्ष कहलाती है।

आकाशगंगा क्या है ? – What is the Milky Way ?

आकाश गंगा या क्षीरमार्ग उस आकाशगंगा (गैलेक्सी) का नाम है, जिसमें हमारा सौर मण्डल स्थित है। आकाशगंगा आकृति में एक सर्पिल (स्पाइरल) गैलेक्सी है, जिसका एक बड़ा केंद्र है और उस से निकलती हुई कई वक्र भुजाएँ। हमारा सौर मण्डल इसकी शिकारी-हन्स भुजा (ओरायन-सिग्नस भुजा) पर स्थित है। क्षीरमार्ग में 100 अरब से 400 अरब के बीच तारे हैं और अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 50 अरब ग्रह के होने की संभावना है, जिनमें से ५० करोड़ अपने तारों से ‘जीवन-योग्य तापमान’ की दूरी पर हैं। सन् 2011 में होने वाले एक सर्वेक्षण में यह संभावना पायी गई कि इस अनुमान से अधिक ग्रह हों – इस अध्ययन के अनुसार, क्षीरमार्ग में तारों की संख्या से दुगने ग्रह हो सकते हैं। हमारा सौर मण्डल आकाशगंगा के बाहरी इलाक़े में स्थित है और उसके केंद्र की परिक्रमा कर रहा है। इसे एक पूरी परिक्रमा करने में लगभग 22.5 से 25 करोड़ वर्ष लग जाते हैं।

तारे क्या हैं ? what is Stars ?

तारे (Stars) स्वयंप्रकाशित (self-luminous) उष्ण वाति की द्रव्यमात्रा से भरपूर विशाल, खगोलीय पिंड हैं। इनका निजी गुरुत्वाकर्षण (gravitation) इनके द्रव्य को संघटित रखता है। मेघरहित आकाश में रात्रि के समय प्रकाश के बिंदुओं की तरह बिखरे हुए, टिमटिमाते प्रकाशवाले बहुत से तारे दिखलाई देते हैं। सूर्य बड़ा तारा है।

तारों से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य:

  • तारों का निर्माण आकाश गंगा में गैस के बादलों से होता है। तारों से निरन्तर ऊर्जा का उत्सर्जन होता है।
  • गैलेक्सी का 98 प्रतिशत भाग तारों से निर्मित है। ये गैसीय द्रव्य के उष्णा एवं दीप्तिमान ब्रह्माण्ड में स्थित खलोलीय पिण्ड हैं।
  • सूर्य भी तारा है जो पृथ्वी के सबसे निकटतम है।
  • साइरस पृथ्वी से देखा जाने वाला सर्वाधिक चमकीला तारा है।
  • वामन तारा वे तारे हैं, जिनकी ज्योत्सना सूर्य से कम है।
  • विशाल तारों की ज्योत्सना सूर्य से अधिक है जैसे-बेटेलगीज, सिरियस, अंतारिस।
  • नोवा वह तारा जिनकी चमक गैसों के निष्कासित होने से 10 से 20 तक बढ़ जाती है।
  • यदि तारे का भार सूर्य के लगभग बराबर होता है तो यह धीरे-धीरे ठण्डा होकर पहले गोले में बदलता है फिर और ठण्डा होकर अंत में एक श्वेत छोटे पिण्ड में परिवर्तित हो। जाता है। कुछ समय पश्चात् यह छोटा पिण्ड अपने ऊपर गिरने वाले प्रकाश को अवशोषित करने लगता है। तब यह आंखों से न दिखने वाले ब्लैक होल में बदल जाता है।
  • तारों या गैलेक्सी की गति से उसके प्रकाश में परिवर्तन दिखाई देता है। यदि तारा प्रेक्षक की तरफ रहा है तो उसका प्रकाश स्पेक्ट्रम के नीले किनारे की ओर चलेगा। किंतु यदि तारा प्रेक्षक से दूर जा रहा है तो उसका प्रकाश स्पेक्ट्रम के बाल किनारे की तरफ खिसक जायेगा। इसे डाप्लर प्रभाव कहते हैं।
  • सुपरनोवा तारा 20 से अधिक चमकने वाला तारा है। पृथ्वी से देखा जाने वाला सबसे अधिक चमकीला तारा क्रेस डांग तारा है।
  • ब्लैक होल बनने का कारण है- तारों की ऊर्जा समाप्त हो जाना। प्रत्येक तारा लगातार ऊर्जा की बड़ी मात्रा में उत्सर्जन करता रहता है और निरंतर सुकड़ता जाता है जिसके कारण गुरुत्वाकर्षण बढ़ता जाता है। इस ऊर्जा उत्सर्जन के कारण अंत एक समय आता है, जब ऊर्जा समाप्त हो जाती है और तारों का बहना रुक जाता है।
  • तारे सफेद दिखाई देते हैं, लेकिन सभी तारे सफेद नहीं होते, कुछ नारंगी, लाल या नीले रंग के भी होते हैं। अत्यधिक तप्त तारों का रंग नीला होता है और ठंडे तारों का लाल। सूर्य पीला तारा है। नीले तारों का तापमान 27,750°C तथा सूर्य का 6000°C से होता है। इसलिए कोई भी अंतरिक्ष यात्री कभी भी किसी भी तारे पर नहीं उतर सकता।
  • अंतरिक्ष यान को चंद्रमा तक पहुंचने में तीन दिन का समय लगता है। सूर्य तक जाने में कई महीने चाहिए। अंतरिक्ष यान को सबसे नजदीकी तारे तक पहुंचने में हजारों वर्ष लग सकते है। इतनी लंबी दूरी को कि.मी. में मापना एक कठिन समस्या है। इसलिए वैज्ञानिक तारों की दूरी मापने के लिए प्रकाश वर्ष और पारसेक इकाइयों का इस्तेमाल करते हैं। प्रकाश वर्ष वह दूरी है, जिसे प्रकाश तीन लाख कि.मी. प्रति सेकण्ड की रफ्तार से चलकर एक वर्ष में तय करता है- यानी 30.857×1012 किमी.।
  • खगोलशास्त्र में तारामंडल आकाश में दिखने वाले तारों के किसी समूह को कहते हैं। इतिहास में विभिन्न सभ्यताओं नें आकाश में तारों के बीच में कल्पित रेखाएँ खींचकर कुछ आकृतियाँ प्रतीत की हैं जिन्हें उन्होंने नाम दे दिए। मसलन प्राचीन भारत में एक मृगशीर्ष नाम का तारामंडल बताया गया है, जिसे यूनानी सभ्यता में ओरायन कहते हैं, जिसका अर्थ “शिकारी” है। प्राचीन भारत में तारामंडलों को नक्षत्र कहा जाता था। आधुनिक काल के खगोलशास्त्र में तारामंडल उन्ही तारों के समूहों को कहा जाता है जिन समूहों पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ में सहमति हो!

क्वेसार और ब्लैक होल:

क्वेसार:  क्वेसार (quasar), जो “क्वासी स्टेलर रेडियो स्रोत” (quasi-stellar radio source) का संक्षिप्त रूप है, किसी अत्यंत तेजस्वी सक्रीय गैलेक्सीय नाभिक को कहते हैं। अधिकांश बड़ी गैलेक्सियों के केन्द्र में एक विशालकाय कालाछिद्र होता है, जिसका द्रव्यमान लाखों या करोड़ों सौर द्रव्यमानों के बराबर होता है। क्वेसार और अन्य सक्रीय गैलेक्सीय नाभिकों में इस कालेछिद्र के इर्द-गिर्द एक गैसीय अभिवृद्धि चक्र होता है। जब इस अभिवृद्धि चक्र की गैस कालेछिद्र में गिरती है तो उस से विद्युतचुंबकीय विकिरण के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम में रेडियो, अवरक्त, प्रकाश, पराबैंगनी, ऍक्स-किरण और गामा किरण के तरंगदैर्घ्य में होती है। क्वेसारों से उत्पन्न ऊर्जा भयंकर होती है और सबसे शक्तिशाली क्वेसार की तेजस्विता 1041 वॉट से अधिक होती है, जो हमारे क्षीरमार्ग जैसी बड़ी गैलेक्सियों से हज़ारों गुना अधिक है।

ब्लैक होल: कृष्ण विवर (Black Hole) या ब्लैक होल इतने शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र वाली कोई ऐसी खगोलीय वस्तु है, जिसके खिंचाव से प्रकाश-सहित कुछ भी नहीं बच सकता। कालेछिद्र के चारों ओर घटना क्षितिज नामक एक सीमा होती है जिसमें वस्तुएँ गिर तो सकती हैं परन्तु बाहर नहीं आ सकती। इसे “काला” (कृष्ण) इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह अपने ऊपर पड़ने वाले सारे प्रकाश को भी अवशोषित कर लेता है और कुछ भी परावर्तित नहीं करता। यह ऊष्मागतिकी में ठीक एक आदर्श कृष्णिका की तरह है। कालेछिद्र का क्वांटम विश्लेषण यह दर्शाता है कि उनमें तापमान और हॉकिंग विकिरण होता है।

सूर्य क्या है ? what is Sun ?

सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग 13 लाख 10 हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग 109 गुना अधिक है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से 15 प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, 30 प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है।y

सूर्य से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य:

  • पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किमी. है। इसका व्यास लगभग 1,400,000 किमी. है, यानी पृथ्वी के व्यास का 109 गुना। इसका गुरूत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण की तुलना में 28 गुना अधिक है।
  • आकाशगंगा के केन्द्र से सूर्य की दूरी आधुनिक अनुमान के आधार पर 32,000 प्रकाश वर्ष है। 250 किमी. प्रति सेकंड की औसत गति से केंद्र के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में सूर्य को 22.5 करोड़ वर्ष लगते हैं। यह अवधि ब्रह्मांड वर्ष कहलाती है। सूर्य पृथ्वी की तरह अपने अक्ष पर भी घूमता है। सूर्य गैसों का बना है इसलिए विभिन्न अक्षांशों पर विभिन्न गति से घूम सकता है। ध्रुवों पर उसके घूमने की अवधि लगभग 24-26 दिन है और भूमध्य रेखा पर 34-37 दिन है। यह पृथ्वी से 300,000 गुना अधिक भारी है।
  • सूर्य चमकती हुई गैसों का एक महापिंड है। इसको एक विशाल हाइड्रोजन बम कह सकते हैं, क्योंकि इसमें नाभिकीय संलयन द्वारा अत्यधिक ऊष्मा और प्रकाश पैदा होते हैं। इससे आने वाले प्रकाश और गर्मी से ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। इसके प्रकाश को धरती तक पहुंचने में 8 मिनट 20 सेकंड का समय लगता है।
  • सूर्य की दिखाई देने वाली बाहरी सतह को फोटोस्फियर कहते हैं, जिसका तापमान लगभग 6000°C सेल्सियस है, लेकिन केन्द्र का तापमान 15,000,000°C सेल्सियस है।
  • सूर्य की सतह या फोटोस्फियर से चमकती हुई लपटें उठती रहती हैं, जिन्हें सौर ज्वालाएं कहते हैं। ये लगभग 1000,000 किमी. ऊँचाई तक पहुंचती हैं।

सूर्य की संरचना

  • प्रकाश मण्डल सूर्य की दिखाई देने वाली दिप्तिमान सतह है।
  • प्रकाश मण्डल के किनारे वाला थाम जो दिप्तिमान नहीं होता है इसका रंग लाल होता है, वर्णमण्डल कहलाता है।
  • प्रभामण्डल सूर्य का बाह्तम भाग (जो केवल ग्रहण के समय दिखता है)।
  • Corona से x-किरणे उत्सर्जित करती हैं और पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय पृथ्वी इसी कोरोना से प्रकाशित होता है।
  • जब सूर्य के किसी भाग का ताप अन्य भागों की तुलना में कम हो जाता है तो धब्बे के रूप में दिखता है, जिसे सौर कलंक कहते हैं। इस धब्बे का जीवनकाल कुछ घण्टों से लेकर कुछ सप्ताह तक होता है। कई दिनों तक सौर कलंक बने रहने के पश्चात् रेडियो संचार में बाधा आती है।

सूर्य की सतह पर काले धब्बे भी दिखाई देते हैं। ये सूर्य की सतह के तापमान (6000°C सेल्सियस) से अपेक्षाकृत लगभग 1500°C सेल्सियस ठंडे होते हैं। इन धब्बों का जीवन काल कुछ घंटों से लेकर कई सप्ताह तक होता है। एक बड़े धब्बे का तापमान 4000-5000° सेल्सियस तक हो सकता है। धब्बे तो हमारी पृथ्वी से भी कई गुना बड़े होते हैं।

सौर मंडल क्या है ? What is Solar System ?

सौर मंडल में सूर्य और वह खगोलीय पिंड सम्मलित हैं, जो इस मंडल में एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा बंधे हैं। किसी तारे के इर्द गिर्द परिक्रमा करते हुई उन खगोलीय वस्तुओं के समूह को ग्रहीय मण्डल कहा जाता है जो अन्य तारे न हों, जैसे की ग्रह, बौने ग्रह, प्राकृतिक उपग्रह, क्षुद्रग्रह, उल्का, धूमकेतु और खगोलीय धूल। हमारे सूरज और उसके ग्रहीय मण्डल को मिलाकर हमारा सौर मण्डल बनता है। इन पिंडों में आठ ग्रह, उनके 172 ज्ञात उपग्रह, पाँच बौने ग्रह और अरबों छोटे पिंड शामिल हैं। इन छोटे पिंडों में क्षुद्रग्रह, बर्फ़ीला काइपर घेरा के पिंड, धूमकेतु, उल्कायें और ग्रहों के बीच की धूल शामिल हैं।

सौरमंडल के चार छोटे आंतरिक ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल ग्रह जिन्हें स्थलीय ग्रह कहा जाता है, जो मुख्यतया पत्थर और धातु से बने हैं। और इसमें क्षुद्रग्रह घेरा, चार विशाल गैस से बने बाहरी गैस दानव ग्रह, काइपर घेरा और बिखरा चक्र शामिल हैं। काल्पनिक और्ट बादल भी सनदी क्षेत्रों से लगभग एक हजार गुना दूरी से परे मौजूद हो सकता है।

सूर्य से होने वाला प्लाज़्मा का प्रवाह (सौर हवा) सौर मंडल को भेदता है। यह तारे के बीच के माध्यम में एक बुलबुला बनाता है जिसे हेलिओमंडल कहते हैं, जो इससे बाहर फैल कर बिखरी हुई तश्तरी के बीच तक जाता है।

भारत का खगोल विज्ञान के क्षेत्र में योगदान:

प्राचीन भारत में कई महान खगोल शास्त्री हुए हैं जिन्होंने कई खगोल विज्ञान के सिद्धांतों और यंत्रों का आविष्कार किया, इससे खगोल विज्ञान का काफी विकास हुआ, मध्यकाल में राजाओं ने अंतरिक्ष वेधशाला का निर्माण किया तथा खगोल शास्त्रियों की बहुत आर्थिक मदद की।

भारत के कुछ प्राचीन खगोल वैज्ञानिक और उनके योगदान का वर्णन हम संक्षिप्त रूप से यहां कर रहे हैं.

लागध (Lagadha) :- ईसा से हजार वर्ष पूर्व लागध ने वेदांग ज्योदिश नाम के ग्रन्थ की रचना की, इस ग्रन्थ में आकाशीय घटनाओं के समय का वर्णन किया गया हे जिनका उपयोग सामाजिक और धार्मिक कार्यों के समय का निर्धारण करने में किया जाता था। इस ग्रन्थ में समय, मौसम चन्द्र महीनों सूर्य महीनो आदि का वर्णन है। इस ग्रन्थ में 27 नक्षत्र समूहों, ग्रहणों, साथ ग्रहों, और ज्योतिष की 12 राशियों का ज़िक्र हे।

आर्यभट :- आर्यभट का समय कल 476 – 550 ईसा पूर्व है, आर्यभट ने खगोल शाश्त्र के दो ग्रंथो की रचना की, आर्यभट्टिया और आर्यभट्ट सिद्धांत, इन ग्रंथों में आर्यभट ने पहली बार बताया की प्रथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है, तथा यही कारण हे की सभी तारे पश्चिम की और जाते हुए दिखाई देतें है, आर्यभट ने लिखा की पृथ्वी एक गोला हे जिसका व्यास 39967 Km. है, आर्यभट ने ही चंद्रमा के चमकने का कारण बताया और कहा के या सूर्य के प्रकाश की वजह से चमकता है।

ब्रह्मगुप्त :- ब्रह्मगुप्त का समयकाल 598-668 ईसा पूर्व है, इन्होने ब्रह्मगुप्त सिद्धांत नमक ग्रन्थ की रचना की, इस ग्रन्थ का बगदाद में अरबी भाषा में अनुवाद किया गया और इसने इस्लामिक गणित और खगोल विज्ञान पर बहुत प्रभाव डाला, इस ग्रन्थ में दिन के समय की शुरुआत रात्रि 12 बजे बताई गयी, ब्रह्मगुप्त ने यह सिद्धांत लिखा की सभी द्रव्यमान वाली चीजें पृथ्वी की और आकर्षित होती है,

वरहामिहिर: वरहामिहिर का समय कल 505 ईसा पूर्व माना जाता हे, वरहामिहिर ने भारतीय,ग्रीक,मिश्र और रोमन खगोल शास्त्र का अध्यन किया, उन्हें इस समस्त ज्ञान को अपने ग्रन्थ पंकसिद्धान्तिका में एक जगह एकत्रित किया।

भास्कर 1 :- इनका समयकाल 629 ईसा पूर्व इन्होने तीन ग्रंथो महाभास्कर्य, लघु भास्कर्य, और आर्य भट्टिया भाष्य नमक ग्रंथो की रचना की. इन ग्रंथो में खगोल विज्ञान के कई सिद्धांतों का वर्णन है।

भास्कर द्वितीय :-इनका समय काल 1114 इसवी का हे, यह उज्जैन की वेधशाला के प्रमुख थे, इन्होने सिद्धांत शिरोमणि और करानाकुतुहलाह नमक ग्रंथो की रचना की।

इनके आलावा भारत में कई और खगोल शाश्त्री हुए जिन्होंने कई नए ग्रंथो की रचना कर खगोल विज्ञान के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया, इनमे श्रीपति, महेंद्र सूरी, नीलकंठ सोमाया, अच्युता पिसरति प्रमुख हैं।

इसे भी पढ़ें:

पृथ्वी का इतिहास, संरचना, गतियाँ एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

सौरमंडल के ग्रहो से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

 

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मानव शरीर के प्रमुख रोग एवं उससे प्रभावित अंगो पर आधारित सामान्य ज्ञान

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मानव शरीर के प्रमुख रोग एवं प्रभावित अंग | Human Diseases and Affected Parts in Hindi

मानव शरीर के प्रमुख रोग एवं प्रभावित अंग: (List of Major Human Diseases and Affected Body Parts in Hindi)

शरीर के किसी अंग/उपांग की संरचना का बदल जाना या उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आना ‘रोग’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो शरीर के अलग–अलग हिस्सों का सही से काम नहीं करना। अनुवांशिक विकार, हार्मोन का असंतुलन, शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली का सही तरीके से काम नहीं करना, कुछ ऐसे कारक हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। एसएससी , यूपीएससी एवं अन्य सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में अक्सर ही मानव रोगों से सवाल पूछे जाते है, यदि आप देखें तो शायद ही ऐसा कोई प्रश्नपत्र पायें जिसमें मानव रोगों से सवाल ना आया हो, एसएससी में तो हमेशा ही 1 से 2 सवाल मानव रोगों के बारे मे आता ही है, इसी को ध्यान में रखकर यहाँ मानव शरीर के प्रमुख रोग एवं उससे प्रभावित अंगो पर आधारित सामान्य ज्ञान जानकारी प्राप्त करा रहे हैं। आइये जानते है मानव शरीर के प्रमुख रोग एवं उससे प्रभावित अंगो के बारे में:

मानव शरीर के प्रमुख रोग एवं उससे प्रभावित अंगो की सूची:

रोग का नाम प्रभावित अंग का नाम
गठिया या रयुमैटिज्म जोड़ों
गठिया रोग एक दीर्घकालिक अवस्था है जिसके होने से जोड़ों में दर्द, सूजन और अकड़न आने लगती है। लक्षण आम तौर पर हाथ, पैर और कलाई को प्रभावित करते हैं। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है जहाँ लक्षण बद से बदतर हो जाएँ, जिसे फ्लयेर-अप्स या फ्लेयर्स के नाम से जाना जाता है। यूँ तो फ्लेयर्स का अनुमान लगाना मुश्किल होता है, लेकिन उपचार की सहायता से इन फ्लेयर्स की संख्या और फ्लेयर्स से हो रहे जोड़ों के नुकसान को लम्बे समय तक के लिये कम किया जा सकता है।
अस्थमा ब्रोन्कियल स्नायु
किसी व्यक्ति के Lung तक हवा तक न पहुंच पाने के कारण उसे सांस लेने में होने वाली तकलीफ को अस्थमा कहा जाता है। अस्थमा की वजह से उसे कई समस्याएं जैसे सांस लेने, जोर-जोर से सांस लेना, खांसी होना, सांस का फूलना इत्यादि होती हैं। आमतौर पर,अस्थमा के लक्षणों में सांस का फूलना, सीने में दर्द होना, खांसी होना इत्यादि शामिल हैं। इन सभी लक्षणों में उतार-चढ़ाव हो सकते हैं और कुछ मामलों में अस्थमा से पीड़ित लोगों को यह पता ही नहीं चलता है कि उन्हें अस्थमा की बीमारी है क्योंकि उनमें ये लक्षण नज़र नहीं आते हैं।
मोतियाबिंद आंखें
मोतियाबिंद जिसे हम सफेद मोतिया भी कहते हैं, जिसमे आंख के प्राकृतिक पारदर्शी लेंस का धुंधलापन हो जाता है। यह 40 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में दृष्टि हानि का सबसे आम कारण है और दुनिया में आँख की दृष्टि खो देना अथवा दृष्टिविहीनता का प्रमुख कारण भी है। प्रारंभ में, मोतियाबिंद का आपकी दृष्टि पर बहुत कम प्रभाव डालता है । आपको महसूस होते रहता हैं कि आपकी दृष्टि थोड़ी-थोड़ी करके धुंधली होती जा रही है, जैसे धुंधले  कांच के  टुकड़े या एक इंप्रेशनिस्ट पेंटिंग को देखने से होता है।
मधुमेह अग्नाशय,गुर्दे, आँखें
डायबिटीज मेलेटस (डीएम), जिसे सामान्यतः मधुमेह कहा जाता है, चयापचय संबंधी बीमारियों का एक समूह है जिसमें लंबे समय तक रक्त में शर्करा का स्तर उच्च होता है। उच्च रक्त शर्करा के लक्षणों में अक्सर पेशाब आना होता है, प्यास की बढ़ोतरी होती है, और भूख में वृद्धि होती है।  यदि अनुपचारित छोड़ दिया जाता है, मधुमेह कई जटिलताओं का कारण बन सकता है।  तीव्र जटिलताओं में मधुमेह केटोएसिडोसिस, नॉनकेटोटिक हाइपरोस्मोलर कोमा, या मौत शामिल हो सकती है। गंभीर दीर्घकालिक जटिलताओं में हृदय रोग, स्ट्रोक, क्रोनिक किडनी की विफलता, पैर अल्सर और आंखों को नुकसान शामिल है।
डिप्थेरिया गला
रोहिणी या डिप्थीरिया (Diphtheria) उग्र संक्रामक रोग है, जो 2 से लेकर 10 वर्ष तक की आयु के बालकों को अधिक होता है, यद्यपि सभी आयुवालों को यह रोग हो सकता है। इसका उद्भव काल (incubation period) दो से लेकर चार दिन तक का है। रोग प्राय: गले में होता है और टॉन्सिल भी आक्रांत होते हैं। स्वरयंत्र, नासिका, नेत्र तथा बाह्य जननेंद्रिय भी आक्रांत हो सकती हैं। यह वास्तव में स्थानिक रोग है, किंतु जीवाणु द्वारा उत्पन्न हुए जीवविष के शरीर में व्याप्त होने से रुधिर विषाक्तता (Toxemia) के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। ज्वर, अरुचि, सिर तथा शरीर में पीड़ा आदि जीवविष के ही परिणाम होते हैं। इनका विशेष हानिकारक प्रभाव हृदय पर पड़ता है। कुछ रोगियों में इनके कारण हृदयविराम (heart failure) से मृत्यु हो जाती है।
कुष्ठ, एक्जिमा, दाद त्वचा, तंत्रिकाएं
दाद या दद्रु कुछ विशेष जाति का फफूँदों के कारण उत्पन्न त्वचाप्रदाह है। ये फफूंदें माइक्रोस्पोरोन (Microsporon), ट्राकॉफाइटॉन (Trichophyton), एपिडर्मोफाइटॉन (Epidermophyton) या टीनिया जाति की होती है। दद्रु रोग कई रूपों में शरीर के अंगों पर आक्रमण करता है। एक्जिमा होने की स्थिति में, त्वचा पर लाल पैच, सूजन, खुजली, त्वचा फटी और खुरदरे हो जाती हैं. कुछ लोगों में फफोले विकसित होते हैं।
ग्लूकोमा, ट्रेकोमा, रतौंधी, मोतियाबिंद, ट्रेकोमा, केटेरेक्ट आंखें
कांच बिंदु रोग, ग्लूकोमा या काला मोतिया नेत्र का रोग है। यह रोग तंत्र में गंभीर एवं निरंतर क्षति करते हुए धीरे-धीरे दृष्टि को समाप्त ही कर देता है। ट्रैकोमा संक्रमण पलकों के भीतरी सतह पर खुरदुरापन पैदा करता है। इस खुरदुरेपन की वजह से आँखों में दर्द, आँखों के बाहरी सतह या कॉर्निया (नेत्रगोलक का ऊपरी स्‍तर) का टूटना और संभवत: अंधता हो सकती है। रतौंधी, आंखों की एक बीमारी है। इस रोग के रोगी को दिन में तो अच्छी तरह दिखाई देता है, लेकिन रात के वक्त वह नजदीक की चीजें भी ठीक से नहीं देख पाता। मोतियाबिंद आंखों का एक सामान्य रोग है। प्रायः पचपन वर्ष की आयु से अधिक के लोगों में मोतियाबिंद होता है, किन्तु युवा लोग भी इससे प्रतिरक्षित नहीं हैं। मोतियाबिंद विश्व भर में अंधत्‍व के मुख्य कारण हैं। 60 से अधिक आयु वालों में 80 प्रतिशत लोगों में मोतियाबिंद विकसित होता है।
घेंघा थायराइड ग्रंथि
घेंघा (Goiter) एक रोग है जिसमे गला फूल जाता है। यह शरीर में आयोडीन के की कमी के कारण होता है। आयोडीन की कमी के कारण थायरायड ग्रन्थि में सूजन आ जाती है। यह रोग बहुधा उन क्षेत्रों के लोगों को होता है जहाँ पानी में आयोडीन नहीं होता। आयोडीन की कमी की पूर्ति के लिये प्राय: आयोडीनयुक्त नमक का उपयोग करने की सलाह दी जाती है।
पीलिया लिवर
रक्तरस में पित्तरंजक (Billrubin) नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इस दशा को कामला या पीलिया (Jaundice) कहते हैं। रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है।
ल्यूकेमिया रक्त
श्वेतरक्तता या ल्यूकीमिया (leukemia) रक्त या अस्थि मज्जा का कर्कट रोग है। इसकी विशेषता रक्त कोशिकाओं, सामान्य रूप से श्वेत रक्त कोशिकाओं (श्वेत कोशिकाओं), का असामान्य बहुजनन (प्रजनन द्वारा उत्पादन) है। श्वेतरक्तता एक व्यापक शब्द है जिसमें रोगों की एक विस्तृत श्रेणी शामिल है। अन्य रूप में, यह रुधिरविज्ञान संबंधी अर्बुद के नाम से ज्ञात रोगों के समूह का भी एक व्यापक हिस्सा है।
मलेरिया तिल्ली
मलेरिया या दुर्वात एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि)। इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है।
मेनिनजाइटिस मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी
तानिकाशोथ या मस्तिष्कावरणशोथ या मेनिन्जाइटिस (Meningitis) मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु को ढंकने वाली सुरक्षात्मक झिल्लियों (मस्तिष्कावरण) में होने वाली सूजन होती है। यह सूजन वायरस, बैक्टीरिया तथा अन्य सूक्ष्मजीवों से संक्रमण के कारण हो सकती है साथ ही कम सामान्य मामलों में कुछ दवाइयों के द्वारा भी हो सकती है। इस सूजन के मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु के समीप होने के कारण मेनिन्जाइटिस जानलेवा हो सकती है
ओटिटिस कान
मध्यकर्णशोथ (लैटिन), कान के मध्य में होने वाली सूजन या मध्य कान के संक्रमण को कहते हैं। यह समस्या यूस्टेचियन ट्यूब नामक नलिका के साथ-साथ कर्णपटही झिल्ली और भीतरी कान के बीच के हिस्से में होती है। यह कान में होने वाली दो प्रकार की सूजनों में से एक है, जिसे आम भाषा में कान के दर्द के नाम से जाना जाता है।
पक्षाघात तंत्रिकाओं
पक्षाघात तब लगता है जब अचानक मस्तिष्क के किसी हिस्से मे रक्त आपूर्ति रुक जाती है या मस्तिष्क की कोई रक्त वाहिका फट जाती है और मस्तिष्क की कोशिकाओं के आस-पास की जगह में खून भर जाता है। जिस तरह किसी व्यक्ति के हृदय में जब रक्त आपूर्ति का आभाव होता तो कहा जाता है कि उसे दिल का दौरा पड़ गया है उसी तरह जब मस्तिष्क में रक्त प्रवाह कम हो जाता है या मस्तिष्क में अचानक रक्तस्राव होने लगता है तो कहा जाता है कि आदमी को “मस्तिष्क का दौरा’’ पड़ गया है।
निमोनिया,टी० बी० फेफड़ों
निमोनिया एक या दोनों फेफड़ों में एक गंभीर फेफड़ों का संक्रमण है जो बैक्टीरिया के कारण होता है। इससे सांस लेने में कठिनाई, बुखार, खांसी और थकान हो सकती है। हर साल, संयुक्त राज्य अमेरिका में निमोनिया के लगभग 3 मिलियन मामले होते हैं, और इनमें से 500,000 से अधिक मामले अस्पतालों में भर्ती होते हैं। यक्ष्मा, तपेदिक, क्षयरोग, एमटीबी या टीबी (tubercle bacillus का लघु रूप) एक आम और कई मामलों में घातक संक्रामक बीमारी है जो माइक्रोबैक्टीरिया, आमतौर पर माइकोबैक्टीरियम तपेदिक के विभिन्न प्रकारों की वजह से होती है क्षय रोग आम तौर पर फेफड़ों पर हमला करता है, लेकिन यह शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित कर सकता हैं। यह हवा के माध्यम से तब फैलता है.
पोलियो, ऐथलीट फुट पैर
बहुतृषा, जिसे अक्सर पोलियो या ‘पोलियोमेलाइटिस’ भी कहा जाता है एक विषाणु जनित भीषण संक्रामक रोग है जो आमतौर पर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति मे संक्रमित विष्ठा या खाने के माध्यम से फैलता है। इसे ‘बालसंस्तंभ’ (Infantile Paralysis), ‘बालपक्षाघात’, बहुतृषा (Poliomyelitis) तथा ‘बहुतृषा एंसेफ़लाइटिस’ (Polioencephalitis) भी कहते हैं। यह एक उग्र स्वरूप का बच्चों में होनेवाला रोग है, जिसमें मेरुरज्जु (spinal cord) के अष्टश्रृंग (anterior horn) तथा उसके अंदर स्थित धूसर वस्तु में अपभ्रंशन (degenaration) हो जाता है और इसके कारण चालकपक्षाघात (motor paralysis) हो जाता है।
स्कर्वी, पायरिया दांतों और मसूड़ों
पायरिया मसूड़ों की बीमारी है जो एंट अमीबा जिंजिवेलिस नाम के कीटाणु से होती है। इसमें मुंह से दुर्गध तथा मसूड़ों से खून आने की शिकायत होती है। स्कर्वी विटामिन सी की कमी के कारण होने वाला एक रोग होता है। ये विटामिन मानव में कोलेजन के निर्माण के लिये आवश्यक होता है। इसमें शरीर खासकर जांघ और पैर में चकत्ते पड जाते हैं। रोग बढने पर मसूढ़े सूज जाते हैं और फ़िर दांत गिरने लगते हैं।
साइनसाइटिस साइनस अस्तर की सूजन
नाक के आसपास चेहरे की हड्डियों के भीतर नम हवा के रिक्त स्थान हैं, जिन्हें ‘वायुविवर’ या साइनस (sinus) कहते हैं। साइनस पर उसी श्लेष्मा झिल्ली की परत होती है, जैसी कि नाक और मुँह में। जब किसी व्यक्ति को जुकाम तथा एलर्जी हो, तो साइनस ऊतक अधिक श्लेष्म बनाते हैं एवं सूज जाते हैं। साइनस का निकासी तंत्र अवरुद्ध हो जाता है एवं श्लेष्म इस साइनस में फँस सकता है। बैक्टीरिया, कवक एवं वायरस वहाँ विकसित हो सकते हैं तथा वायुविवरशोथ[1] या साइनसाइटिस (Sinusitis) का कारण हो सकते हैं।
टॉन्सिल्लितिस टॉन्सिल्स
मनुष्य के तालु के दोनों ओर बादाम के आकार की दो ग्रंथियाँ होती है, जिन्हें हम गलगुटिका, तुंडिका या टॉन्सिल कहते हैं। इन ग्रंथियों के रोग को गलगुटिकाशोथ (तालुमूलप्रदाह Tonsilitis) कहते हैं। Tonsils के सूजन को Tonsillitis कहा जाता हैं। Tonsils यह गले के अंदर दोनों बाजु जीभ /Tongue के पिछले भाग से सटी हुई lymph nodes हैं। Tonsils हमारे शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति यानि की Immunity का एक हिस्सा है जो की खतरनाक Bacteria और Virus को शरीर के भीतर प्रवेश करने से रोकता हैं।
टाइफाइड, हैजा, पेचिश आंतों
टाइफाइड का बुखार सैल्मोनेला टाइफी के द्वारा होने वाली एक जीवाणु जनित रोग है। विसूचिका या आम बोलचाल मे हैजा, जिसे एशियाई महामारी के रूप में भी जाना जाता है, एक संक्रामक आंत्रशोथ है जो वाइब्रियो कॉलेरी नामक जीवाणु के एंटेरोटॉक्सिन उतपन्न करने वाले उपभेदों के कारण होता है। पेचिश (Dysentery) या प्रवाहिका, पाचन तंत्र का रोग है जिसमें गम्भीर अतिसार (डायरिया) की शिकायत होती है और मल में रक्त एवं श्लेष्मा (mucus) आता है। यदि इसकी चिकित्सा नहीं की गयी तो यह जानलेवा भी हो सकता है।
रिकेट्स हड्डियाँ
सूखा रोग (रिकेट्स) हड्डियों का रोग है जो प्राय: बच्चों में होता है। बच्चों में हड्डियों की नरमाई या कमजोर होने को सूखा रोग कहते हैं। परिणामस्वरूप अस्थिविकार होकर पैरों का टेढ़ापन और मेरूदंड में असामान्य मोड आ जाते हैं। इसी प्रकार की विकृति को बड़ों में ऑस्टिमैल्सिया कहा जाता है।
टिटनेस, कोढ़, रैबीज, मिर्गी, पोलियो तंत्रिका तंत्र
रेबीज़ (अलर्क, जलांतक) एक विषाणु जनित बीमारी है जिस के कारण अत्यंत तेज इन्सेफेलाइटिस (मस्तिष्क का सूजन) इंसानों एवं अन्य गर्म रक्तयुक्त जानवरों में हो जाता है। प्रारंभिक लक्षणों में बुखार और एक्सपोजर के स्थल पर झुनझुनी शामिल हो सकते हैं। अपस्मार या मिर्गी एक तंत्रिकातंत्रीय विकार (न्यूरोलॉजिकल डिसॉर्डर) है जिसमें रोगी को बार-बार दौरे पड़ते है। मस्तिष्क में किसी गड़बड़ी के कारण बार-बार दौरे पड़ने की समस्या हो जाती है।
हेपेटाइटिस या पीलिया यकृत
हेपेटाइटिस के वायरस (Hepatitis Virus) 5 तरह के होते हैं- हेपेटाइटिस ए, बी, सी, डी और ई और इनकी वजह से लीवर ((Liver) में जलन और संक्रमण (Infection) हो जाता है. कई बार हेपेटाइटिस के चलते लीवर फाइब्रोसिस या लीवर कैंसर (Liver Cancer) की आशंका भी बढ़ जाती है. हेपेटाइटिस के वायरस कई बार पानी के जरिए भी फैलते हैं।
मेनिनजाइटिस मस्तिष्क
तानिकाशोथ या मस्तिष्कावरणशोथ या मेनिन्जाइटिस (Meningitis) मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु को ढंकने वाली सुरक्षात्मक झिल्लियों (मस्तिष्कावरण) में होने वाली सूजन होती है। यह सूजन वायरस, बैक्टीरिया तथा अन्य सूक्ष्मजीवों से संक्रमण के कारण हो सकती है साथ ही कम सामान्य मामलों में कुछ दवाइयों के द्वारा भी हो सकती है। इस सूजन के मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु के समीप होने के कारण मेनिन्जाइटिस जानलेवा हो सकती है; तथा इसीलिये इस स्थिति को चिकित्सकीय आपात-स्थिति के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
गलसुआ (गॉयटर) थॉयराइड ग्रंथि
गलगण्ड रोग ”पैरोटाइटिस’ मम्प्स” के रूप में भी जाना जाता है, एक विकट विषाणुजनित रोग है जो पैरोटिड ग्रंथि को कष्टदायक रूप से बड़ा कर देती है। ये ग्रंथियां आगे तथा कान के नीचे स्थित होती हैं तथा लार एवं थूक का उत्पादन करती हैं। गलगण्ड एक संक्रामक रोग है जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को एक विषाणु के कारण होता है जो संक्रमित लार से सम्पर्क के द्वारा फैलता है। 2 से 12 वर्ष के बीच के बच्चों में संक्रमण की सबसे अधिक सम्भावना होती है। अधिक उम्र के लोगों में, पैरोटिड ग्रंथि के अलावा, अन्य ग्रंथियां जैसे अण्डकोष, पैन्क्रियाज (अग्न्याशय) एवं स्नायु प्रणाली भी शामिल हो सकती हैं। बीमारी के विकसित होने का काल, यानि शुरुआत से लक्षण पूर्ण रूप से विकसित होने तक, 12 से 24 दिन होता है।
हैजा आंत, आहारनाल
विसूचिका या आम बोलचाल मे हैजा, जिसे एशियाई महामारी के रूप में भी जाना जाता है, एक संक्रामक आंत्रशोथ है जो वाइब्रियो कॉलेरी नामक जीवाणु के एंटेरोटॉक्सिन उतपन्न करने वाले उपभेदों के कारण होता है। मनुष्यों मे इसका संचरण इस जीवाणु द्वारा दूषित भोजन या पानी को ग्रहण करने के माध्यम से होता है। आमतौर पर पानी या भोजन का यह दूषण हैजे के एक वर्तमान रोगी द्वारा ही होता है। अभी तक ऐसा माना जाता था कि हैजे का जलाशय स्वयं मानव होता है, लेकिन पर्याप्त सबूत है कि जलीय वातावरण भी इस जीवाणु के जलाशयों के रूप में काम कर सकते हैं।
प्लूरिसी छाती
फुप्फुसावरणशोथ या प्लूरिसी (Pleurisy या pleuritis) फुफ्फुसावरण का शोथ ( inflammation) है। इसके कारण साँस लेते समय छाती में तेज दर्द हो सकता है।
काली खांसी श्वसन तंत्र
कूकर कास या कूकर खांसी या काली खांसी जीवाणु का संक्रमण होता है जो कि आरंभ में नाक और गला को प्रभावित करता है। यह प्रायः २ वर्ष से कम आयु के बच्चों की श्वसन प्रणाली को प्रभावित करता है। इस बीमारी का नामकरण इस आधार पर किया गया है कि इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति सांस लेते समय भौंकने जैसी आवाज करता है। यह बोर्डेटेल्ला परट्यूसिया कहलाने वाले जीवाणु के कारण होता है।
आर्थ्राइटीस जोड़ों की सूजन
आर्थ्राइटीस रोग एक दीर्घकालिक अवस्था है जिसके होने से जोड़ों में दर्द, सूजन और अकड़न आने लगती है। लक्षण आम तौर पर हाथ, पैर और कलाई को प्रभावित करते हैं। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है जहाँ लक्षण बद से बदतर हो जाएँ, जिसे फ्लयेर-अप्स या फ्लेयर्स के नाम से जाना जाता है।
डिप्थीरिया गला, श्वास  नली
रोहिणी या डिप्थीरिया (Diphtheria) उग्र संक्रामक रोग है, जो 2 से लेकर 10 वर्ष तक की आयु के बालकों को अधिक होता है, यद्यपि सभी आयुवालों को यह रोग हो सकता है। इसका उद्भव काल (incubation period) दो से लेकर चार दिन तक का है। रोग प्राय: गले में होता है और टॉन्सिल भी आक्रांत होते हैं। स्वरयंत्र, नासिका, नेत्र तथा बाह्य जननेंद्रिय भी आक्रांत हो सकती हैं।
पार्किंसन मस्तिष्क
पार्किसन रोग से तात्पर्य ऐसे मानसिक रोग से है, जिसमें मानव शरीर में कपकपी, कठोरता, चलने में परेशानी होना, संतुलन और तालमेल इत्यादि समस्याएँ होती हैं। पार्किसन रोग की शुरूआत सामान्य बीमारी की तरह होती है, जो कुछ समय के बाद गंभीर रूप ले लेती है।
प्लेग फेफड़े, लाल रक्त कणिकाएं
ताऊन या प्लेग (Plague) संसार की सबसे पुरानी महामारियों में है। इसे ताऊन, ब्लैक डेथ, पेस्ट आदि नाम भी दिए गए हैं। मुख्य रूप से यह कृतंक (rodent) प्राणियों (प्राय: चूहे) का रोग है, जो पास्चुरेला पेस्टिस नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। आदमी को यह रोग प्रत्यक्ष संसर्ग अथवा पिस्सू के दंश से लगता है। यह तीव्र गति से बढ़ता है, बुखार तेज और लसीका ग्रंथियाँ स्पर्शासह्य एवं सूजी होती हैं, रक्तपुतिता की प्रवृत्ति होती है और कभी-कभी यह न्यूमोनिया का रूप धारण करता है। भारी पैमाने पर तबाही मचाने के कारण पूरे इतिहास में प्लेग कुख्यात रही है आज भी विश्व के कुछ भागों में प्लेग महामारी बना हुआ है।
हेपेटाइटिस-बी यकृत
यकृतशोथ ख (हेपाटाइटिस बी) हेपाटाइटिस बी वायरस (HBV) के काऱण होने वाली एक संक्रामक बीमारी है जो मनुष्य के साथ बंदरों की प्रजाति के लीवर को भी संक्रमित करती है, जिसके कारण लीवर में सूजन और जलन पैदा होती है जिसे हेपाटाइटिस कहते हैं। मूलतः, “सीरम हेपेटाइटिस” के रूप में ज्ञात इस बीमारी के कारण एशिया और अफ्रिका में महामारी पैदा हो चुकी है और चीन में यह स्थानिक मारक है।
दस्त बड़ी आँत
अतिसार या डायरिया (Diarrhea) में या तो बार-बार मल त्याग करना पड़ता है या मल बहुत पतले होते हैं या दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। पतले दस्त, जिनमें जल का भाग अधिक होता है, थोड़े-थोड़े समय के अंतर से आते रहते हैं।
सुजाक, श्वेत प्रदर मूत्र मार्ग
सूजाक एक संक्रामक यौन रोग (यौन संचारित बीमारी (एसटीडी) है। सूजाक नीसेरिया गानोरिआ नामक जीवाणु से होता है जो महिला तथा पुरुषों में प्रजनन मार्ग के गर्म तथा गीले क्षेत्र में आसानी और बड़ी तेजी से बढ़ती है। इसके जीवाणु मुंह, गला, आंख तथा गुदा में भी बढ़ते हैं। उपदंश की तरह यह भी एक संक्रामक रोग है अतः उन्ही स्त्री-पुरुषों को होता है जो इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति से यौन संपर्क करते हैं।
छाले होना गला व मुंह
मुंह में छाले होना एक सामान्य स्वास्थ्य समस्या है. अधिकतर मामलों में कुछ दिनों में ये अपने आप ही ठीक हो जाते हैं. लेकिन कई लोग अक्सर होने वाले मुंह के छालों से परेशान रहते हैं. इनमें बहुत दर्द भी होता है और कई बार यह समस्या इतनी गंभीर हो जाती है कि बोलने और खाने में भी परेशानी होती है. वैसे 25-35 वर्ष के आयुवर्ग के लोगों को यह समस्या अधिक होती है, लेकिन ऐसा नहीं है किसी को किसी भी उम्र में मुंह में छाले नहीं हो सकते हैं.
मेनिन्ज़ाइटिस रीढ़ की हड्डी तथा मस्तिष्क
तानिकाशोथ या मस्तिष्कावरणशोथ या मेनिन्जाइटिस (Meningitis) मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु को ढंकने वाली सुरक्षात्मक झिल्लियों (मस्तिष्कावरण) में होने वाली सूजन होती है। यह सूजन वायरस, बैक्टीरिया तथा अन्य सूक्ष्मजीवों से संक्रमण के कारण हो सकती है साथ ही कम सामान्य मामलों में कुछ दवाइयों के द्वारा भी हो सकती है।
काला अजार रुधिर, प्लीहा व अस्थि मज्जा
कालाजार धीरे-धीरे विकसित होने वाला एक देशी रोग है जो एक कोशीय परजीवी या जीनस लिस्नमानिया से होता है। कालाजार के बाद डरमल लिस्नमानियासिस (पीकेडीएल) एक ऐसी स्थिति है जब लिस्नमानिया त्वचा कोशाणुओं में जाते हैं और वहां रहते हुए विकसित होते हैं। यह डरमल लिसियोन के रूप में तैयार होते हैं। कई कालाजार में कुछ वर्षों के उपचार के बाद पी के डी एन प्रकट होते हैं।

इन्हें भी पढ़े: विषाणु और जीवाणु द्वारा मनुष्य मे होने वाले रोग

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भारत में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की मिट्टियों से सम्बंधित सामान्य ज्ञान

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भारत की प्रमुख मिट्टियाँ और उनके प्रकार | Types of Indian Soils in Hindi

भारत की मिट्टियों के प्रकार और उनका विवरण: (Major Soils of India GK in Hindi)

मृदा या मिट्टी किसे कहते है?

मिट्टी का अर्थ या परिभाषा: पृथ्वी ऊपरी सतह पर मोटे, मध्यम और बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक मिश्रित कणों को मृदा (मिट्टी) कहते हैं। मिट्टी का निर्माण टूटी चट्टानो के छोटे महीन कणों, खनिज, जैविक पदार्थो, बॅक्टीरिया आदि के मिश्रण से होता है| मिट्टी के कई परतें होती हैं, सबसे उपरी परत में छोटे मिट्टी के कण, गले हुए पौधे और जीवों के अवशेष होते हैं यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्त्‍वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और नीचे की विखंडित चट्टानो और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा आख़िरी परत में अ-विखंडित सख्‍त चट्टानें होती हैं। ‘मृदा विज्ञान’  भौतिक भूगोल की एक प्रमुख शाखा है जिसमें मृदा के निर्माण, उसकी विशेषताओं एवं धरातल पर उसके वितरण का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं।

भारत में मिट्टी के प्रकार (वर्गीकरण) | Types of Indian Soils in Hindi:

मिट्टी या मृदा कई तरह की होती है और हर प्रकार की मिट्टी का इस्तेमाल गुणों के मुताबिक अलग-अलग होता हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने भारत की मिट्टी को 8 वर्गों में बांटा है। मृदा संरक्षण के लिए 1953 में केन्द्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड की स्थापना की गयी थी। मरूस्थल की समस्या के अध्ययन के लिए राजस्थान को जोधपुर में अनुसंधान केन्द्र बनाये गये हैं। भारत में मिलने वाली मिट्टी की प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं:-

  1. जलोढ़ या कांप मिट्टी (Alluvial Soil)
  2. लाल मिट्टी (Red Soil)
  3. काली मिट्टी (Black Soil)
  4. लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil)
  5. क्षारयुक्त मिट्टी (Saline and Alkaline Soil)
  6. हल्की काली एवं दलदली मिट्टी (Peaty and Other Organic soil)
  7. रेतीली मिट्टी (Arid and Desert Soil)
  8. वनों वाली मिट्टी (Forest Soil)

1. जलोढ़ या कांप (Alluvial Soil) मिट्टी किसे कहते है?

जलोढ़ मिट्टी उत्तर भारत के पश्चिम में पंजाब से लेकर सम्पूर्ण उत्तरी विशाल मैदान को आवृत करते हुए गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र तक फैली है। यह अत्यंत ऊपजाऊ है इसे कांप या कछारीय मिट्टी भी कहा जाता है। यह भारत के लगभग 40% भाग में पाई जाती है। इस मिट्टी का विस्तार सामान्यतः देश की नदियों के वेसिनों एवं मैदानी भागों तक ही सीमित है। हल्के भूरे रंगवाली यह मिट्टी 7.68 लाख वर्ग किमी को आवृत किये हुए है और यह सतलज, गंगा, यमुना, घाघरा,गंडक, ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों द्वारा लाई जाती है|  इस मिट्टी में कंकड़ नही पाए जाते हैं। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और वनस्पति अंशों की कमी पाई जाती है। खादर में ये तत्व भांभर की तुलना में अधिक मात्रा में वर्तमान हैं, इसलिए खादर अधिक उपजाऊ है। भांभर में कम वर्षा के क्षेत्रों में, कहीं कहीं खारी मिट्टी ऊसर अथवा बंजर होती है। भांभर और तराई क्षेत्रों में पुरातन जलोढ़, डेल्टाई भागों नवीनतम जलोढ़, मध्य घाटी में नवीन जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है। पुरातन जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र को भांभर और नवीन जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र को खादर कहा जाता है।

इसकी भौतिक विशेषताओं का निर्धारण जलवायविक दशाओं विशेषकर वर्षा तथा वनस्पतियों की वृद्धि द्वारा किया जाता है। इस मिट्टी में उत्तरी भारत में सिंचाई के माध्यम से दालें, कपास, गन्ना, गेहूँ, चावल, जूट, तम्बाकू, तिलहन फसलों तथा सब्जियों की खेती की जाती है।

2. लाल मिट्टी (Red Soil) किसे कहते है?

लाल मिट्टी का निर्माण जलवायविक परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप रबेदार एवं कायन्तरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से होता है। इस मिट्टी में कपास, गेहूँ, दालें तथा मोटे अनाजों की कृषि की जाती है। ग्रेनाइट शैलों से निर्माण के कारण इसका रंग भूरा, चाकलेटी, पीला अथवा काला तक पाया जाता है। इसमें छोटे एवं बड़े दोनों प्रकार के कण पाये जाते हैं। छोटे कणों वाली मिट्टी काफ़ी उपजाऊ होती है, जबकि बड़े कणों वाली मिट्टी प्रायः उर्वरताविहीन बंजरभूमि के रूप में पायी जाती है। इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस तथ जीवांशों की कम मात्रा मिलती है, जबकि लौह तत्व, एल्युमिना तथा चूना पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। इस मिट्टी का संघटन इस प्रकार है-

  • अघुलनशील तत्व- 90.47%
  • लोहा-: 3.61%
  • एल्यूमिनीयम: 2.92%
  • जीवांश: 1.01%
  • मैग्निशिया: 0.70%
  • चूना: 0.56%
  • कार्बन डाई ऑक्साइड: 0.30%
  • पोटाश: 0.24%

3. काली मिट्टी (Black Soil) किसे कहते है?

काली मिट्टी को ‘रेगड़ मिट्टी’ या ‘काली कपास मिट्टी’ के नाम से भी जाना जाता है। काली मिट्टी एक परिपक्व मिट्टी है, जो मुख्यतः दक्षिणी प्राय:द्वीपीय पठार के लावा क्षेत्र में पायी जाती है। इसका निर्माण चट्टानों के दो वर्ग दक्कन ट्रैप एवं लौहमय नीस और शिस्ट से हुआ है। ये मिट्टी भारत के कछारी भागों में मुख्य रूप से पाई जाती है। कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होने के कारण इसे ‘काली कपास मिट्टी’ अथवा ‘कपासी मृदा‘ भी कहा जाता है। इस मिट्टी की जल धारण क्षमता अधिक है। यही कारण है कि यह मिट्टी शुष्क कृषि के लिए अनुकूल है। इस मिट्टी का रासायनिक संघटन इस प्रकार है-

  • फेरिक ऑक्साइड: 11.24%
  • एल्यूमिना: 9.39%
  • जल तथा जीवांश: 5.83%
  • चूना: 1.81%
  • मैग्निशिया: 1.79%

इसकी मिट्टी की मुख्य फसल कपास है। इस मिट्टी में गन्ना, केला, ज्वार, तंबाकू, रेंड़ी, मूँगफली और सोयाबीन की भी अच्छी पैदावार होती है।

4. लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil) किसे कहते है?

लैटेराइट मिट्टी उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में पायी जाती है। यह मिट्टी प्राय: उन उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में पायी जाती है, जहाँ ऋतुनिष्ठ वर्षा होती है। इस मिट्टी का रंग लाल होता है, लेकिन यह ‘लाल मिट्टी’ से अलग होती है। शुष्क मौसम में शैलों की टूट-फूट से निर्मित होने वाली इस मिट्टी को गहरी लाल लैटराइट तथा भूमिगत जल वाली लैटराइट के रूप में वर्गीकत किया जाता है। गहरी लाल लैटराइट में आइरन ऑक्साइड तथा पोटाश की मात्रा अत्यधिक मिलती है। इसमें उर्वरता कम होती है, ऊँचे स्थलों में यह प्राय: पतली और कंकड़मिश्रित होती है और कृषि के योग्य नहीं रहती, किंतु मैदानी भागों में यह खेती के काम में लाई जाती है। सफ़ेद लैटराइट की उर्वरता सबसे कम होती है और केओलिन की अधिकता के कारण इसका रंग सफ़ेद हो जाता है।

यह मिट्टी तमिलनाडु के पहाड़ी भागों, केरल, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा के कुछ भागों में,  दक्षिण भारत के पठार, राजमहल तथा छोटानागपुर के पठार, असम इत्यादि में सीमित क्षेत्रों में पाई जाती है। दक्षिण भारत में मैदानी भागों में इसपर धान की खेती होती है और ऊँचे भागों में चाय, कहवा, रबर तथा सिनकोना उपजाए जाते हैं। इस प्रकार की मिट्टी अधिक ऊष्मा और वर्षा के क्षेत्रों में बनती है। इसलिए इसमें ह्यूमस की कमी होती है और निक्षालन अधिक हुआ करता है।

इस मिट्टी का रासायनिक संघटन इस प्रकार है-

  • लोहा- 18.7%
  • सिलिका: 32.62%
  • एल्यूमिना: 25.2%
  • फास्फ़ोरस: 0.7%
  • चूना: 0.42%

5. क्षारयुक्त मिट्टी (Saline and Alkaline Soil) किसे कहते है?

शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों, दलदली द अधिक सिंचाई वाले क्षेत्रों में यह मिट्टी पाई जाती है। इन्हे थूर, ऊसर, कल्लहड़, राकड़, रे और चोपन के नामों से भी जाना जाता है। शुष्क भागों में अधिक सिंचाई के कारण एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-प्रवाह दोषपूर्ण होने एवं जलरेखा उपर-नीचे होने के कारण इस मिट्टी का जन्म होता है। इस प्रकार की मिट्टी में भूमि की निचली परतों से क्षार या लवण वाष्पीकरण द्वारा उपरी परतों तक आ जाते हैं। इस मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम और मैग्निशियम की मात्रा अधिक पायी जाने से प्रायः यह मिट्टी अनुत्पादक हो जाती है।

6. हल्की काली एवं दलदली मिट्टी (Peaty and Other Organic soil) किसे कहते है?

इस मिट्टी में ज़्यादातर जैविक तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। यह सामान्यतः आद्रप्रदेशों में मिलती है। दलदली मिट्टी उड़ीसा के तटीय भागों, सुंदरवन के डेल्टाई क्षेत्रों, बिहार के मध्यवर्ती क्षेत्रों, उत्तराखंड के अल्मोड़ा और तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी एवं केरल के तटों पर पाई जाती है।

7. रेतीली मिट्टी (Arid and Desert Soil) किसे कहते है?

यह मिट्टी शुष्क और अर्धशुष्क प्रदेशों जैसे: पश्चिमी राजस्थान और आरवाली पर्वत के क्षेत्रों, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाई जाती है। सिंचाई के सहारे गेंहू, गन्ना, कपास, ज्वार, बाजरा  उगाये जाते हैं। जहाँ सिंचाई की सुविधा नहीं है वहाँ यह भूमि बंजर पाई जाती है।

अन्य प्रकार की विभिन्न मिट्टियां:

पीली-सफेद मिट्टी किसे कहते है?

पीली-सफेद मिट्टी तालाबों, खेतों और दरिया के किनारों पर पाई जाती है। किसी भी व्यक्ति कें रोगों को ठीक करने में इसी तरह की मिट्टी को काम में लिया जाता है।

सज्जी मिट्टी किसे कहते है?

सज्जी को भी एक प्रकार की मिट्टी ही कहा जाता है ये कपड़ों को साफ़ करने के काम मे आती है।

मुल्तानी मिट्टी किसे कहते है?

ये एक ख़ास किस्म की मिट्टी होती है, जिसे स्त्रियां उबटन की तरह शरीर पर मलती है और बालों पर भी लगाती है। मुल्तानी मिट्टी लगाने से स्त्रियों की त्वचा और बालों में चमक आ जाती है।

बालू मिट्टी किसे कहते है?

बालू भी मिट्टी को ही बोला जाता है जो किसी भी मनुष्य के लिए उसी तरह जरूरी है जिस तरह भोजन और पानी। लेकिन बालू मिट्टी के गुणों को केवल प्राकृतिक चिकित्सक ही अच्छी तरह जानते हैं। प्राकृतिक दशा में खाई जाने वाली खाने की चीज़ें जैसे साग-सब्जी, खीरा, ककड़ी आदि के साथ हमेशा बालू मिट्टी का कुछ भाग ज़रूर होता है, जिसे हम जानकारी ना होने के कारण गंवा देते है। ये बालू मिट्टी के कण हमारी भोजन पचाने की क्रिया को ठीक रखने मे मदद करते हैं।

पर्वतीय मिट्टी किसे कहते है?

पर्वतीय मिट्टी में कंकड़ एवं पत्थर की मात्रा अधिक होती है। पर्वतीय मिट्टी में भी पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है। पहाड़ी क्षेत्र में खास करके बागबानी कृषि होती है। पहाड़ी क्षेत्र में ही झूम खेती होती है। झूम खेती सबसे ज्यादा नागालैंड में की जाती है। पर्वतीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा गरम मसाले की खेती की जाती है।

दोमट मिट्टी किसे कहते है?

दोमट एक प्रकार की मिट्टी है जो फसलों के लिए अत्यन्त उर्वर (उपजाऊ)) होती है। इसमें लगभग 40% सिल्ट, 20% चिकनी मिट्टी तथा शेष 40% बालू होता है। पानी तथा वायु के प्रवेश हेतु अर्थात् अधिक छिद्रिल होने के कारण फसलों की उर्वरा शक्ति अधिक होती है। ऐसी मिट्टी अपने कुल भार का 50% पानी रोकने की क्षमता रखती है। इस मिट्टी में पोषक पदार्थों की मात्रा भी अधिक होती है।

दोमट मिट्टी में सिल्ट, बालू और चिकनी मिट्टी के अंश अलग-अलग होने से भिन्न-भिन्न प्रकार के दोमट बनते हैं जैसे बलुई दोमट, सिल्टी दोमट, चिकनी दोमट, बलुई चिकनी दोमट आदि। चिकनी मिट्टी की अपेक्षा दोमट मिट्टी में अधिक पोषक पदार्थ, अधिक नमी, अधिक ह्यूमस होता है। दोमट मिट्टी की जुताई चिकनी मिट्टी की अपेक्षा आसान होती है। इसमें सिल्टी मिट्टी की अपेक्षा हवा और पानी को छानने तथा जल-निकास की बेहतर क्षमता होती है।

दोमट मिट्टी बागवानी तथा कृषि कार्यों के लिए उत्तम मानी जाती है। यदि किसी बलुई या चिकनी मिट्टी में भी अधिक मात्रा में जैविक पदार्थ मिले हों तो उसके गुण भी दोमट जैसे ही होंगे।

इन्हें भी पढ़े: भारत में कृषि का महत्व और प्रमुख फसलें

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फ़्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी – The French East India Company

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फ़्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी - The French East India Company

फ़्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी – The French East India Company

फ़्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का उदय: (The rise of the French East India Company)

फ्रांसीसियों ने पूर्व में व्यापार करने के लिए 1664 ई. में एक फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का निर्माण किया। इसका कम्पनी सर्वप्रथम नाम इन्डेसेओरियंतलेस था। कम्पनी के निर्माण में लुई-चौदहवें के मन्त्री जीन बैप्टिस्ट कोलबर्ट ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। प्टिस्ट कोलबर्ट द्वारा ही कंपनी की रूपरेखा तैयार की गई थी सम्राट् लुई ने कम्पनी को एक चार्टर प्रदान किया। जिसके अनुसार 50 वर्ष तक कम्पनी को मेडागास्कर से पूर्व भारत तक व्यापार का एकाधिकार प्राप्त हो गया। कम्पनी को मेडागास्कर और समीपवर्ती टापू भी प्रदान किये गये। कम्पनी की स्थापना फ्राँस के मंत्री कोलबर्ट के प्रयास से हुई। प्रबंधकारियों के रूप में 21 संचालकों की एक समिति का गठन किया गया। कम्पनी की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए लुई ने कम्पनी को 30,00,000 लिवर ब्याज रहित प्रदान किये, जिसमें से कम्पनी को 10 वर्ष में जो भी हानि हो, काटी जा सकती थी। राज-परिवार के सदस्यों, मन्त्रियों और व्यापारियों को कंपनी में धन लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।

लुई ने कम्पनी को विस्तृत अधिकार प्रदान किये। उसने आश्वासन दिया कि कम्पनी के जहाजों की सुरक्षा के लिए वह अपने लड़ाकू जहाज भेजेगा और कम्पनी को अपने जहाजों पर फ्रांस का राजकीय झंडा फहराने की आज्ञा भी प्रदान की। कम्पनी के अपने भू-प्रदेशों का प्रशासन देखने के लिए एक गवर्नर-जनरल नियुक्त करने की आज्ञा दी गई और उसे राजा के लेफ्टिनेंट जनरल की उपाधि से विभूषित किया गया। उसकी सहायता के लिए 7 सदस्यों की एक काउन्सिल बनायी गयी। यह काउन्सिल सर्वप्रथम मेडागास्कर में स्थापित की गई। 1671 में इसे सूरत और 1701 में पाण्डिचेरी ले जाया गया। इस प्रकार पाण्डिचेरी में पूर्व फ्रांसीसियों का प्रमुख केन्द्र बन गया।

सूरत में फ्रेंच फैक्ट्री की स्थापना: (Establishment of French factory in Surat)

उस समय सूरत मुगल-साम्राज्य का प्रसिद्ध बन्दरगाह और संसार का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र हुआ करता था। 1612 ई. और 1618 ई. में यहाँ इंगलिश और डच फैक्टरियों की स्थापना हो चुकी थी। फ्रांसीसियों के आने से पहले ही मिशनरी, यात्री और व्यापारियों के द्वारा मुग़ल-साम्राज्य और उसके बन्दरगाह सूरत के विषय में पूरी जानकारी मिल चुकी थी। और यह जानकारी थेबोनीट, बर्नियर और टेवर्नियर द्वारा दी गई थी जो फ्रांसीसी नागरिक थे। इस जानकारी से प्रभावित होकर फ़्रांसीसी कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का निश्चय किया इस हेतु अपने दो प्रतिनिधि भेजे जो मार्च 1666 ई. में सूरत पहुँचे। सूरत गवर्नर ने इन प्रतिनिधियों का स्वागत किया, परन्तु पहले स्थापित इंगलिश और डच फैक्टरी के कर्मचारियों को एक नये प्रतियोगी का आना अच्छा नहीं लगा। ये प्रतिनिधि सूरत से आगरा पहुँचे, उन्होंने लुई-चौदहवें के व्यक्तिगत पत्र को औरंगजेब को दिया और इन्हें सूरत में फैक्टरी स्थापित करने की आज्ञा मिल गयी। कम्पनी ने केरोन को सूरत भेजा और इस प्रकार 1661 ई. में भारत में सूरत के स्थान पर प्रथम फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना हुई।

व्यापारिक टकराव की शुरूआत:

यूरोपीय कम्पनियों में भारी व्यापारिक शत्रुता थी। जिस प्रकार ये कम्पनियाँ खुद के देश में व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं और चार्टर द्वारा उन्हें पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार मिला हुआ था, उसी प्रकार से कम्पनियाँ भारत और सुदूर पूर्व के दूसरे प्रदेशों पर व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं। ये कम्पनियाँ जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती थी। इस कारण इन कम्पनियों में व्यापारिक युद्ध हुए। सत्रहवीं शताब्दी में यह टकराव तीन तरफा हो गया था। अंग्रेज़-पुर्तगीज-संघर्ष, डच-पुर्तगीज संघर्ष और अंग्रेज़-डच संघर्ष। और आगे जाकर अठाहरवीं शताब्दी में यह टकराव अंग्रेज़ और फ्रांसीसियों के बीच हुआ।

अंग्रेज़-पुर्तगीज और डच-पुर्तगीज टकराव

वास्कोडिगामा ने 1498 ई. में भारत के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजा। इस खोज के आधार पर ही लगभग एक शताब्दी तक पूर्व के व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार बना रहा। सत्रहवीं शताब्दी के शुरुआत में अंग्रेज़ों और डचों ने पुर्तगालियों के इस एकाधिकार को चुनौती दी। अंग्रेजों की अपेक्षा डच पुर्तगालियों के प्रबल शत्रु सिद्ध हुए और डचों ने पुर्तगालियों को मसालों की प्राप्ति के प्रमुख प्रदेश पूर्वी द्वीप समूह, लंका और मालाबार तट से खदेड़ दिया। इसी प्रकार जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का प्रयत्न किया, पुर्तगालियों के प्रभाव और कुचक्रों के कारण हाकिन्स को अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली। 1612 ई. में थॉमस वैस्ट के जहाजों पर पुर्तगाली जहाजी बेड़े ने आक्रमण कर दिया। इस समुद्री युद्ध में जो सुआली (सूरत) के मुहाने पर लड़ा गया, पुर्तगालियों की पराजय हुई। इस विजय से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ गई।

ऐंग्लो-डच युद्ध

अंग्रेज-पुर्तगीज टकराव कुछ समय तक चलता रहा। परन्तु एक साझे शत्रु डचों ने दोनों को एक-दूसरे के समीप ला दिया। पुर्तगीज डचों से बहुत परेशान थे और उन्होंने अंग्रेजों से मित्रता करने में अपना हित समझा। इसी प्रकार अंग्रेज़ भी पुर्तगालियों की मित्रता के लिए उत्सुक थे क्योंकि इस मित्रता से उन्हें मालाबार-तट पर मसालों के व्यापार की सुविधा प्राप्त होती थी। इस कारण गोवा के पुर्तगीज गवर्नर और सूरत के अंग्रेज प्रैजीडेन्ट में 1635 ई. में एक सन्धि हो गयी। यह मित्रता पुर्तगीज राजकुमारी केथराइन का इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स-द्वितीय से विवाह से और पक्की हो गई। इस विवाह के फलस्वरूप चार्ल्स द्वितीय को बम्बई का द्वीप दहेज में प्राप्त हुआ जिसे उसने 10 पौंड वार्षिक किराये पर कम्पनी को दे दिया।

अंग्रेज़-डच टकराव:

डच नागरिक पुर्तगालियों की अपेक्षा अंग्रेजों के अधिक प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हुए। अंग्रेजों और डचों दोनों ही की फैक्टरियाँ सूरत में स्थापित थीं। मसालों के व्यापार के एकाधिकार पर अंग्रेजों और डचों का संघर्ष हो गया। डच मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे जिसे अंग्रेजों ने चुनौती दी। मालाबार-तट के लिए डचों ने राजाओं से समझौते किये जिसके अनुसार काली मिर्च केवल डचों को ही बेची जा सकती थी। इस समझौते के फलस्वरूप डच कम मूल्य पर काली मिर्च प्राप्त करते थे यद्यपि स्वतन्त्र रूप से बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता था। अंग्रेजी कम्पनी के मालाबार-तट से काली मिर्च खरीदने के मार्ग में डच हर प्रकार से रोडा अटकाते थे। जो जहाज इंगलिश कम्पनी के लिए काली मिर्च ले जाते थे, इन्हें पकड़ लिया जाता था। इन सब रुकावटों के होते हुए भी इंगलिश कम्पनी मालाबार तट से बड़ी मात्रा में काली मिर्च खरीदने और उसे इंग्लैण्ड भेजने में सफल हो जाती थी।

यद्यपि इंग्लैंड और हालैंड दोनों ही प्रोस्टेंट देश थे, परन्तु व्यापारिक शत्रुता के कारण उनमे शत्रुता के कारण उनमें तीन घमासान युद्ध 1652-54 ई., 1665-66 ई. और 1672-74 ई. में हुए। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने अपने देश के व्यापारिक हित के लिए 1651 ई. में जहाजरानी कानून (नेवीगेशन्स ला) पास किया। जहाजरानी कानून डचों के व्यापारिक हित में नहीं थे और उन्होंने उन्हें मानने से इंकार कर दिया। जब प्रथम एंग्लो-डच युद्ध की सूचना मार्च, 1635 में सूरत पहुँची तो अंग्रेज़ बड़े चिंतित हुए और उन्होंने सूरत के मुगल सूबेदारों से डचों के आक्रमणों से रक्षा की प्रार्थना की। इससे प्रतीत होता है कि पूर्व में उस समय डच अंग्रेजों से अधिक शक्तिशाली थे। युद्ध की सूचना मिलते ही एक शक्तिशाली जहाजी सुआली (सूरत) पहुँच गया। मुगल अधिकारियों की सतर्कता के कारण डचों ने सूरत की इंगलिश फैक्टरी पर आक्रमण नहीं किया। यद्यपि स्थल पर संघर्ष नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर अंग्रेज और डचों में कई युद्ध हुए। अंग्रेज़ी जहाज डचों द्वारा पकड़े गये और व्यापार को हानि पहुँची। अन्य दो युद्धों (1665-67 ई. और 1672-74 ई.) में भी व्यापार को आघात पहुँचा। पहले की तरह इन युद्धों के समय भी अंग्रेजों ने मुगल-सरकार से सुरक्षा की प्रार्थना की। स्थल पर कोई युद्ध नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर डचों ने अंग्रेज़ी जहाजों को पकड़ लिया। सन् 1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति से जिसमें विलियम इंग्लैण्ड का राजा बन गया, अंग्रेज़-डच सम्बन्ध सुधर गये।

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ध्वनि क्या है? इसके संचरण, अर्जन, चाल, प्रभाव, आदि पर सामान्य ज्ञान

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ध्वनि क्या है? इसके संचरण, अर्जन, चाल, प्रभाव, आदि पर सामान्य ज्ञान

ध्वनि क्या है? – What is sound?

ध्वनि एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसकी उत्पत्ति किसी न किसी वस्तु के कम्पन करने से उत्पन्न होती है, इसे एक उदाहारण की सहायता से समझा जा सकता है जैसे जब हम किसी घण्टे पर चोट मारते हैं तो हमें ध्वनि सुनाई पड़ती है तथा घण्टे को हल्का सा छूने पर उसमें झनझनाहट का अनुभव होता है। जैसे ही घण्टे का कम्पन बंद हो जाता है, ध्वनि भी बंद हो जाती है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि हर कम्पन से ध्वनि उत्पन्न हो। ध्वनि तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20 हटर्ज से 20,000 हटर्ज के बीच होती है, केवल उसी की अनुभूति मनुष्य को अपने कानों द्वारा होती है, ध्वनि तरंगे कहलाती है। ध्वनि तरंगे अनुदैर्ध्य यांत्रिक तरंगे होती हैं। जब किसी माध्यम से कपन होता है तो ध्वनि उत्पन्न होती है।

ध्वनि का संचरण (Transmission of sound):

ध्वनि के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में किसी न किसी पदार्थ माध्यम गैस, द्रव अथवा ठोस का होना आवश्यक है, ध्वनि निर्वात में होकर नहीं चल सकती निर्वात में ध्वनि तो उत्पन्न होती परंतु सुनाई नहीं पड़ती है। ध्वनि माध्यम की प्रत्यास्थता एवं घनत्व पर निर्भर करती है, जो पदार्शिक माध्यम प्रत्यास्थ नहीं होते, उसमें अधिक दूरी तक संचरण नहीं हो पाता। दैनिक जीवन में किसी ध्वनि स्रोत से उत्पन्न ध्वनि प्राय: वायु से होकर हमारे कान तक पहुंचती है परन्तु ध्वनि द्रव व ठोस से होकर भी चल सकती है। यही कारण है कि गोताखोर जल के भीतर होने पर भी ध्वनि को सुन लेता है। ध्वनि के वेग पर ताप का भी प्रभाव पड़ता है। तापक्रम में 1 डिग्री सैल्सियस की वृद्धि से ध्वनि वेग में 60 से.मी./सेकेण्ड की वृद्धि होती है। इसी प्रकार रेल की पटरी से कान लगाकर बहुत दूर से आती हुई रेलगाड़ी की ध्वनि सुनी जा सकती है। ध्वनि किसी भी माध्यम में अनुदैर्ध्य तरंगों के रूप में चलती है।

ध्वनि की अर्जन (Acquisition of sound):

साधारणत: हमें ध्वनि की अनुभूति अपने कानों के द्वारा होती है। जब किसी कम्पित वस्तु से चलने वाली ध्वनि-तरंगें हमारे कान के पर्दे से टकराती है तो पर्दे में उसी प्रकार के कम्पन होने लगते हैं। तो इससे हमें ध्वनि का अनुभव होता है।

ध्वनि की चाल (speed of sound):

वैज्ञानिक प्रयोगों से पता चलता है, कि ध्वनि की चाल के लिए वही वस्तु माध्यम का काम दे सकती है, जिसमें प्रत्यास्थता हो तथा जो अविच्छित रूप से ध्वनि स्रोत से कान तक फैली हो। जिन वस्तुओं में ये गुण नहीं होते, जैसे- लकड़ी का बुरादा, नमक इत्यादि, इनमें होकर ध्वनि नहीं चल सकती। विभिन्न माध्यमों में ध्वनि की चाल भिन्न-भिन्न होती है। द्रवों में ध्वनि की चाल गैसों की अपेक्षा अधिक तथा ठोसों में सबसे अधिक होती है।

जब ध्वनि एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती है तो ध्वनि की चाल तथा तरंगदैर्ध्य बदल जाती है, जबकि आवृत्ति नहीं बदलती है। अत: किसी माध्यम से ध्वनि की चाल ध्वनि की आवृत्ति पर निर्भर नहीं करती।

ध्वनि के वेग पर विभिन्न कारकों का प्रभाव (Effect of various factors on the velocity of sound):

गैसों में ध्वनि का वेग:-

गैसों में ध्वनि के वेग का सूत्र यह है-

जहाँ

γ = समऐन्ट्रॉपिक प्रसार गुणांक (isentropic expansion factor) या रुद्धोष्म गुणांक,
R = सार्वत्रिक गैस नियतांक
T = तापमान (केल्विन में)
M = गैस का अणुभार है।

ठोसों में ध्वनि का वेग:-

जहाँ E ठोस का यंग मापांक और ρ ठोस का घनत्व है। इस सूत्र से इस्पात में ध्वनि का वेग निकाला जा सकता है जो लगभग 5148 m/s है।

द्रवों में ध्वनि का वेग:-

जल में ध्वनि के वेग का महत्व इसलिये है कि समुद्र-तल की गहराई का मानचित्र बनाने के लिये इसका उपयोग होता है। नमकीन जल में ध्वनि का वेग लगभग 1500 m / s होता है जबकि शुद्ध जल में 1435 m / s होता है। पानी में ध्वनि का वेग मुख्यतः दाब, ताप और लवणता पर आदि के साथ बदलता है।

द्रव में ध्वनि का वेग निम्नलिखित सूत्र से दिया जाता है-

जहाँ K‘ आयतन प्रत्यास्थता मापांक और ρ द्रव का घनत्व है। विभिन्न माध्यमों में ध्वनि का वेग : ठोस > द्रव > गैस

विद्युत-चुम्बकीय विकिरण (electromagnetic radiation):

यांत्रिक तरंगों से भिन्न प्रकार विद्युत-चुम्बकीय तरंगे होती हैं, जो निर्वात में भी चल सकती हैं, उनक संचरण के लिये कोई भौतिक माध्यम आवश्यक नहीं होता है। ये प्रकाश की चाल से चलती हैं, ये तरंगे अनुप्रस्थ प्रकाश की तरंगे है। विद्युत चुम्बकीय तरंगे, आवेशित मूल-कणों जैसे- इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन आदि के मुक्त अवस्था में दोलन करने से उत्पन्न होती हैं। प्रकाश, ऊष्मीय विकिरण, एक्स किरणे, रेडियो-तरंगे आदि इनके सुपरिचित रूप हैं। विद्युत चुम्बकीय तरंगों का सामान्य परिचय निम्नवत है-

  1. गामा-किरणे: गामा-किरणों को इनके अन्वेषक के नाम पर बैकुरल किरणे भी कहते हैं। इनका तरंगदैर्ध्य 10-14 मीटर से 10-10 मीटर तक होता है। इनकी आवृत्ति बहुत अधिक होने के कारण ये अपने साथ बहुत अधिक ऊर्जा ले जाती हैं। इनकी वेधन क्षमता इतनी अधिक है कि ये 30 सेमी. मोटी लोहे की चादर को भेद कर निकल जाती हैं।
  2. एक्स-किरणे: इन किरणों को उनके अन्वेषक के नाम पर रौंटज किरणें भी कहते हैं। ये तीव्रग्रामी इलेक्ट्रॉनों के किसी भारी लक्ष्य वस्तु पर टकराने से उत्पन्न होती हैं। चिकित्सा में इनका उपयोग टूटी हड्डी तथा फेफड़ों के रोगों का पता लगाने में किया जाता है।
  3. पराबैंगनी विकिरण: इस विकिरण का पता रिटर ने लगाया था। इनका तरंगदैर्ध्य 10-8 मीटर से 4 × 10-7 मीटर तक होता है। इनका संसूचन प्रकाश-विद्युत प्रभाव, प्रतिदीप्त पर्दा अथवा फोटोग्राफिक प्लेट द्वारा किया जाता है। इनका उपयोग सिंकाई करने, प्रकाश-विद्युत प्रभाव को उत्पन्न करने, हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करने आदि में किया जाता है।
  4. दृश्य प्रकाश: दृश्य प्रकाश का तरंगदैर्ध्य 4.0 x 10-7 मीटर से 7.8 × 10-7 मी. तक होता है। इनके स्रोत सूर्य तथा तारों के अतिरिक्त ज्वाला, विद्युत-बल्ब, आर्क लैम्प आदि ताप दीप्त वस्तुएं हैं। प्रकाश से ही हमें वस्तुएं दिखायी देती हैं।
  5. अवरक्त विकिरण: इन विकिरणों का पता हरशैल ने लगाया था। इनका तरंगदैर्ध्य 7.8 × 10-7 मीटर से 103 मीटर तक होता है। इनकी प्राप्ति तप्त वस्तुओं तथा सूर्य से होती है। ये जिस वस्तु पर पड़ती हैं, उसका ताप बढ़ जाता है।
  6. हर्त्सियन तरंग: इनका अन्वेषण वैज्ञानिक हेनरिक हर्त्स ने किया था। सामान्य भाषा में इन्हें बेतार-तरंग या रेडियो-तरंग भी कहते हैं। इनका तरंगदैर्ध्य 10-3 मीटर से 104 मीटर तक हो सकता है। इनकी उत्पत्ति किसी विद्युत चालक में उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा के प्रवाह से होती है।

इन तरंगों को लघु रेडियो-तरंगें भी कहते हैं। इनमें 10 -3 मीटर से 10-2 मीटर तरंगदैर्ध्य की तरंगों को सूक्ष्म तरंगें कहते हैं। इनका उपयोग टेलीविजन, टेलीफोन आदि के प्रसारण में किया जाता है तरंगदैर्ध्य 1 मीटर 104 मीटर तक की विद्युत-चुम्बकीय तरंगों को वायरलेस या दीर्घ रेडियो तरंगें कहते हैं।

ध्वनि की आवृत्ति रेंज (Frequency range of sound):

  1. श्रव्य तरंगें: वे तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20 हर्ट्ज़ व अधिकतम आवृत्ति 20,000 हर्ट्ज़ हो एवं जिनको हम सुन सकते हैं, श्रव्य तरंगे कहलाती हैं। मनुष्य 20 हर्ट्ज़ से कम आवृत्ति की तरंगे नहीं सुन सकता है क्योंकि ये तरंगें कान के पर्दे को संवेदित नहीं कर पाती एवं 20,000 हर्ट्ज़ से अधिक आवृत्ति की तरंगों की आवृत्ति इतनी अधिक होती है कि कान के पर्दे का दोलन इतना अधिक नहीं हो पाता कि वह इन तरंगों को ग्रहण कर सके। चमगादड़ों की श्रवण सीमा बहुत ऊंची होती है। ये 100,000 हर्ट्ज़ की तरंगें उत्पन्न कर सकते हैं और सुन भी सकते हैं। कुत्ते 20,000 हर्ट्ज़ तक की तरंगों को आसानी से सुन सकते हैं।
  2. अवश्रव्य तरंगें: वे यांत्रिक तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20 हर्ट्ज़ से कम होती है, अवश्रव्य तरंगें कहलाती हैं। ये तरंगें भूकंप के समय पृथ्वी के अंदर उत्पन्न होती हैं। हमारे हृदय के धड़कन की आवृत्ति अवश्रव्य तरंगों के समान होती है। ये तरंगें हमें सुनाई नहीं देती हैं।
  3. पराश्रव्य तरंगें: वे यांत्रिक तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20000 हर्ट्ज़ या 20 किलोहर्ट्ज़ से अधिक होती है, पराश्रव्य तरंगें कहलाती हैं। इन तरंगों को सबसे पहले गाल्टन ने एक सीटी द्वारा उत्पन्न किया था। मनुष्य के कान इन तरंगों को नहीं सुन सकते, लेकिन कुछ जन्तु, जैसे-कुत्ता, बिल्ली, डालफिन, चिड़ियां आदि इनको सुन सकते हैं।

ध्वनि के लक्षण (Signs of sound):

ध्वनि में मुख्यत: तीन लक्षण होते हैं – तीव्रता, तारत्व एवं गुणता।

  • तीव्रता: ध्वनि की तीव्रता, ध्वनि उत्पन्न करने वाली कम्पनशील वस्तु के कम्पन के आयाम पर निर्भर करती है। कम्पन का आयाम जितना अधिक होगा, ध्वनि की तीव्रता उतनी ही अधिक होगी। ध्वनि की तीव्रता डेसीबल में मापी जाती है। सोते हुए व्यक्ति को जगाने के लिए 50 डेसीबल की ध्वनि पर्याप्त होती है। 90 डेसीबल किसी शोर को बर्दाश्त करने की अधिकतम सीमा है। कम्पनशील वस्तु का आकार जितना अधिक बड़ा होगा, उतने ही बड़े आयाम के कम्पन्न उत्पन्न होंगे, जिसक कारण उत्पन्न ध्वनि की तीव्रता उतनी ही अधिक होगी व ध्वनि उतनी ही तेज सुनाई देगी।
  • तारत्व: ध्वनि का वह लक्षण, जिसके कारण हम ध्वनि को मोटी या पतली कहते हैं, तारत्व कहलाता है। ध्वनि का तारत्व उसकी आवृत्ति पर निर्भर करता है। पुरुषों की ध्वनि का तारत्व, स्त्रियों की अपेक्षा कम होता है। शेर की दहाड़ तथा मच्छरों की भिनभिनाहट में, मच्छर की भिनभिनाहट का तारत्व अधिक होता है तथा शेर की दहाड़ का तारत्व कम होता है।
  • गुणता: यह ध्वनि का वह लक्षण है, जिससे समान आवृत्ति या समान तीव्रता की ध्वनियों की संख्या, उनके सम तथा उनकी आपेक्षिक तीव्रता पर निर्भर करती है। ध्वनि की गुणता उसमें उपस्थित अधिस्वरकों की संख्या, उनके सम तथा उनकी आपेक्षिक तीव्रता पर निर्भर करती है। ध्वनि की गुणता के कारण ही हम अपने विभिन्न परिचितों को बगैर देखें उनकी आवाज सुनकर पहचान लेते हैं।

ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ ( Features of sound):

  • ध्वनि एक यांत्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
  • एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है।
  • माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
  • ध्वनि के संचरण के लिये माध्यम (मिडिअम्) की जरूरत होती है। ठोस द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का संचरण सम्भव है। निर्वात में ध्वनि का संचरण नहीं हो सकता।
  • प्रतिध्वनि- परावर्तित ध्वनि को प्रतिध्वनि कहते है। स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनने के लिए परावर्तक सतह श्रोता से कम-से-कम 17 मीटर दूर होनी चाहिए, व समय 1 सेकेण्ड होना चाहिए।
  • सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग 332 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है। बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
  • समुद्र की गहराई ज्ञात करने, रडार और सागर में पनडुब्बी आदि की स्थिति ज्ञात करने के लिए प्रतिध्वनि का सिद्धान्त प्रयोग किया जाता है।
  • मानव कान लगभग 20 हर्ट्स से लेकर 20,000 किलोहर्टस आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है। बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।
  • द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।। जिस माध्यम में ध्वनि का संचरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं; जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
  • अपवर्त्य प्रतिध्वनि: जब दो बड़ी चट्टानें या बड़ी इमारतें समान्तर व उचित दूरी पर स्थित होती हैं और उनके बीच में कोई ध्वनि पैदा की जाती है तो वह ध्वनि क्रमश: दोनों चट्टानों से बार-बार परावर्तित होगी। इस प्रकार की परावर्तित ध्वनि को अपवर्त्य प्रतिध्वनि कहते है। परावर्तकों से बार-बार परावर्तन होने से यह सब प्रतिध्वनियां मिलकर गड़गड़ाहट की आवाज पैदा करती है। बिजली की गड़गड़ाहट का कारण भी यही है, क्योंकि बादलों के तल, पहाड़ आदि परावर्तक तलों का काम करते हैं।

ध्वनि प्रदूषण (Noise pollution):

ध्वनि प्रदूषण या अत्यधिक शोर किसी भी प्रकार के अनुपयोगी ध्वनियों को कहते हैं, जिससे मानव और जीव जन्तुओं को परेशानी होती है। इसमें यातायात के दौरान उत्पन्न होने वाला शोर मुख्य कारण है। जनसंख्या और विकास के साथ ही यातायात और वाहनों की संख्या में भी वृद्धि होती जिसके कारण यातायात के दौरान होने वाला ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ने लगता है। अत्यधिक शोर से सुनने की शक्ति भी चले जाने का खतरा होता है।

ऐसा बहुत कम होता है कि ध्वनि प्रदूषण से कोई शारीरिक क्षति हो जाए। यह तभी होता है जब किसी व्यक्ति को लम्बे समय तक ऐसे अत्यन्त प्रबल स्तर के कोलाहल में रहना पड़े जो सामान्य जीवन को कोलाहल से बहुत की अधिक स्तर का हो। सामान्य मनुष्य को शायद ही कभी लम्बे समय तक इतने शोर में रहना पड़े कि उसकी सुनने की शक्ति को कोई स्थायी नुकसान हो सके। लेकिन लगभग 1000 हर्ट्ज़ की आवृत्ति को स्वरक का शरीर पर अस्थाई प्रभाव को सकता है, यदि उसकी तीव्रता का स्तर 100 डेसीबेल हो। हवाई सैनिकों का अस्थायी बहरापन इसका उदाहरण है।

रेडियो तथा टेलीविजन प्रसारण: रेडियो स्टेशन द्वारा भेजी गयी रेडियो-तरंगें आयनमण्डल द्वारा परावर्तित कर दी जाती हैं, अत: उन्हें पृथ्वी पर किसी भी स्थान पर ग्रहण किया जा सकता है। रात्रि के समय आयनमण्डल की पर्तों में स्थिरता आ जाती है, अतः रेडियो प्रसारण रात्रि में अधिक अच्छा होता है। उच्च आवृत्ति की टेलीविजन सिग्नल युक्त तरंगें, आयनमण्डल को पार करके बाहर चली जाती हैं। अत: इन्हें सीधे ही एक प्रेषित्र एण्टेना से दूसरे अभिग्राही एण्टेना पर भेजा जाता है। इसलिए प्रेषित्र एण्टेना की ऊंचाई अधिक-से-अधिक रखी जाती है। 500 मीटर ऊंचे एण्टेना से 80 किमी दूरी तक प्रसारण सम्भव है। आजकल भू-स्थिर उपग्रह का उपयोग करके टेलीविजन सिग्नल को भी पृथ्वी तल पर कई जगह पहुंचाया जा सकता है।

रडार: Radar, radio detection and ranging का संक्षिप्त रूप है। रडार में सूक्ष्म तरंगों का उपयोग करके दुश्मन के जलयानों व वायुयानों का पता लगाया जाता है। एक घूमते हुए एरियल द्वारा तरंगें प्रेषित की जाती हैं और वे वायुयान, जलयान आदि लक्ष्य से परावर्तित होकर रडार पर लौट आती हैं। प्रेषित और अभिग्रहीत तरंगों के समयान्तर को ज्ञात करके जलयान की दूरी ज्ञात की जा सकती है। तरंगें जितने क्षेत्र की स्कैनिंग करती हैं, उसका चित्र भी रडार के पर्दे पर आ जाता है।

ध्वनि का व्यतिकरण:

जब दो समान आवृत्ति व आयाम की दो ध्वनि तरंगें, एक साथ किसी बिन्दु पर पहुंची हैं, तो उस बिन्दु पर ध्वनि ऊर्जा का पुनर्वितरण हो जाता है। इसे ध्वनि का व्यतिकरण कहते हैं। यह व्यतिकरण संपोषी कहलाता है, जब दोनों तरंगें किसी बिन्दु पर एक ही कला में पहुंचती हैं। इस दशा में परिणामी आयाम दोनों तरंगों के अलग-अलग आयामों के योग के बराबर होता है तथा ध्वनि की तीव्रता अधिकतम होती है और यदि दोनों तरंगे विपरीत कला में मिलती हैं तो व्यतिकरण विनाशी कहलाती हैं। इस दिशा में ध्वनि की तीव्रता न्यूनतम होती है।

ध्वनि का विवर्तन:

जब हम अपने कमरे के भीतर होते हैं, तो बाहर से आ रहे शोरगुल या बातचीत को आसानी से सुन लेते हैं। अर्थात् हम बिना स्रोत को देखे हुए उससे उत्पन्न ध्वनि को सुन लेते हैं। इसका कारण है कि जब ध्वनि के मार्ग में कोई अवरोध आ जाता है, तो ये तरंगें उसे मुड़कर हमारे कान तक पहुंचती हैं। इसी को ध्वनि का विवर्तन कहते हैं। विवर्तन के लिये जरूरी है कि अवरोधों का आकार, ध्वनि की तरंगदैर्ध्य के तुलनीय होना चाहिये। चूंकि ध्वनि की तरंगदैर्ध्य लगभग एक मीटर होती है तथा इसी कोटि के हमारे घर के दरवाजे व खिड़कियाँ आदि होती हैं, जिससे ध्वनि का विवर्तन आसानी से हो जाता है व हमें बगैर देखे ही स्रोत से आने वाली ध्वनि का अहसास हो जाता है।

ध्वनि का परावर्तन:

प्रकाश की तरह ध्वनि भी एक माध्यम से चलकर दूसरे माध्यम के पृष्ठ से टकराने पर पहले माध्यम में वापस लौट आती हैं। इस प्रक्रिया को ध्वनि का परावर्तन कहते हैं। ध्वनि का परावर्तन भी प्रकाश के परावर्तन के नियम के अनुसार होता है किन्तु ध्वनि का तरंगदैर्ध्य अधिक होने के कारण परावर्तन बड़े आकार के पृष्ठों से होता है। इसीलिए ध्वनि का परावर्तन दीवारों, पहाड़ों तथा पृथ्वी तल सभी से हो जाता है।

ध्वनि का अपवर्तन:

ध्वनि तरंगें जब एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती हैं, तो उनका अपवर्तन हो जाता है अर्थात् वे अपने पथ से विचलित हो जाती हैं। ध्वनि तरंगों का अपवर्तन वायु की भिन्न-भिन्न पर्तों का ताप भिन्न-भिन्न होने के कारण होता है। चूंकि गर्म वायु में ध्वनि की चाल ठण्डी वायु की अपेक्षा अधिक होती है। इसीलिये ध्वनि तरंगें जब गर्म वायु से ठण्डी वायु में या ठण्डी वायु से गर्म वायु में संचरित होती हैं, तो अपने मार्ग से विचलित हो जाती हैं।

हर्ट्ज़:

हैनरिच रुडोल्फ हर्ट्ज का जन्म 22 फरवरी, 1857 को हैमबर्ग, जर्मनी में हुआ और उनकी शिक्षा बर्लिन विश्वविद्यालय में हुई। उन्होंने जे.सी. मैक्सवेल के विद्युतचुंबकीय सिद्धांत की प्रयोगों द्वारा पुष्टि की। उन्होंने रेडियो, टेलिफोन, टेलिग्राफ तथा टेलिविजन के भी भविष्य में विकास की नींव रखी। उन्होंने प्रकाश-विद्युत प्रभाव की भी खोज की जिसकी बाद में अल्बर्ट आइन्सटाइन ने व्याख्या की। आवृत्ति के SI मात्रक का नाम उनके सम्मान में रखा गया

इको साउंडिंग:

महासागर या समुद्र की गहराई मापने के लिए ध्वनि तरंग छोड़ी जाती है, जो महासागर के तल से टकराकर लौट आती है। प्रतिध्वनि के लौटने में जो समय लगता है, उसके आधार पर गहराई निर्धारित कर ली जाती है।

सोनार:

सोनार के द्वारा पानी में हुई वस्तुओं का पता लगाया जाता हैं। सोनार में पराश्रव्य तरंगें प्रयोक्त की जाती हैं सोनार का आविष्कार पॉललेंग्विन ने किया था। सोनार (Sonar) एक तकनीक है जो नौचालन, जल के अन्दर संचार करने तथा जल के अन्दर या सतह पर वस्तुओं का पता करने के लिये ध्वनि संचरण का उपयोग करती है। अंग्रेजी का ‘सोनार’ शब्द मूलतः SOund Navigation And Ranging का संक्षिप्त रूप है।

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अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के अध्यक्षों के नाम और कार्यकाल की सूची (1894 से 2020 तक)

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अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के अध्यक्षों की सूची (1894-2020) | List of IOC Presidents in Hindi

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के प्रमुख और कार्यकाल की सूची : (List of International Olympic Committee Presidents in Hindi (1894 -2020)

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) क्या है?

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) एक अन्तर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन है। इसका मुख्यालय लुसाने, स्विट्जरलैण्ड में स्थित है। वर्ष 2019 के अनुसार में विश्व की कुल 205 राष्ट्रीय ओलम्पिक समितिया (एनओसी) इसकी सदस्य हैं। आईओसी आधुनिक ओलम्पिक मूवमेंट में एक सर्वोच्च प्राधिकरण है।

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के बारें में संक्षिप्त जानकारी:

स्थापना 1894
मुख्यालय लुसाने, स्विट्ज़रलैण्ड
प्रकार खेल महासंघ
प्रथम अध्यक्ष डेमेट्रियस विकेलस (Demetrius Vikelas)
वर्तमान अध्यक्ष थॉमस बाक (Thomas Bach)
सदस्यता 100 राष्ट्रीय सदस्य, 33 अवैतनिक सदस्य, 1 सम्मानित सदस्य।

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) का इतिहास:

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) की स्थापना पियरे डे कोबेर्टिन द्वारा 23 जून 1894 में की गई थी। यूनानी व्यापारी डेमेट्रियस विकेलस (Demetrius Vikelas) आईओसी के प्रथम अध्यक्ष बने थे। वह दो साल (1894–1896) तक इस पद पर कार्यरत रहे थे। आईओसी विश्व में आधुनिक ओलंपिक खेलों का आयोजन करता है। इस समिति द्वारा प्रत्येक चार साल में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेल, शीतकालीन ओलम्पिक खेल और युवा ओलम्पिक खेल का आयोजन किया जाता है। आईओसी द्वारा प्रथम ग्रीष्मकालीन ओलंपिक साल 1896 में यूनान के एथेंस तथा पहला शीतकालीन ओलंपिक वर्ष 1924 में फ्रांस के चेमोनिक्स (Chamonix) में आयोजित किया था। साल 1992 तक ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन दोनों ओलंपिक खेल एक ही वर्ष में आयोजित किए जाते थे।

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) का उद्देश्य:

आईओसी का मुख्य लक्ष्य ओलम्पिक खेलों का नियमित रूप से ओयाजन करना तथा ओलम्पिकवाद एवं ओलम्पिक आंदोलन को प्रोत्साहन देना है। ओलम्पिकवाद एक जीवन दर्शन है, जो शरीर, इच्छा और मन के गुणों को संतुलित रूप से संघटित और विकसित करता है। खेल को संस्कृति और शिक्षा से जोड़कर ओलम्पिकवाद एक ऐसी जीवनशैली विकसित करने का प्रयास करने का प्रयास करता है, जो प्रयत्नों, अच्छे उदाहरणों के शैक्षणिक मूल्यों तथा सार्वभौमिक मौलिक नैतिक सिद्धांतों से आनंदित होने पर आधारित होती है।

ओलम्पिक आंदोलन का लक्ष्य है- ओलम्पिक भावना, जिसके लिये पारस्परिक समझदारी के साथ-साथ मित्रता, एकजुटता और ईमानदारी की भावना आवश्यक है तथा भेदभावरहित खेलों के माध्यम से युवाओं को शिक्षित करके शांतिपूर्ण और सुखी संसार के सृजन में योगदान देना।

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के अध्यक्ष 2020:

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के वर्तमान अध्यक्ष थॉमस बाक (Thomas Bach) है। उन्हें 10 सितंबर 2013 को ब्यूनस आयर्स में आयोजित आईओसी के 125वें सत्र में जैक्स जैक्स रोगे के उत्तराधिकारी के रूप में चुना गया था। अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के अध्यक्ष कार्यकारी बोर्ड के प्रमुख होते हैं जो अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) के प्रशासन और प्रबंधन की जिम्मेदारी सँभालते हैं। आईओसी कार्यकारी बोर्ड में अध्यक्ष, 4 उपाध्यक्ष और 10 अन्य आईओसी सदस्य शामिल होते हैं। बोर्ड के सदस्यों का चुनाव आईओसी सत्र में गुप्त मतपत्र द्वारा किया जाता है।

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति द्वारा दिये जाने वाले सम्मान:

प्रतियोगियों के लिए ओलंपिक पदक के अलावा, आईओसी कई अन्य सम्मान प्रदान करता है।

  • IOC राष्ट्रपति की ट्रॉफी एथलीटों को दिया जाने वाला सर्वोच्च खेल पुरस्कार है, जिन्होंने अपने खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है और एक असाधारण करियर बनाया है, जो उनके खेल पर एक स्थायी प्रभाव पैदा करता है।
  • पियरे डी कूपबर्टिन पदक उन एथलीटों को दिया जाता है जो ओलंपिक स्पर्धाओं में खेल-कूद की विशेष भावना प्रदर्शित करते हैं
  • ओलंपिक कप सक्रिय रूप से ओलंपिक आंदोलन को विकसित करने में योग्यता और अखंडता के रिकॉर्ड के साथ संस्थानों या संघों से सम्मानित किया जाता है
  • ओलम्पिक आर्डर को ओलंपिक सर्टिफिकेट से अलग करने के लिए ओलंपिक आन्दोलन व्यक्तियों को असाधारण रूप से विशिष्ट योगदान के लिए दिया जाता है
  • ओलंपिक लॉरेल को खेल के माध्यम से शिक्षा, संस्कृति, विकास और शांति को बढ़ावा देने के लिए व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है
  • ओलंपिक शहर का दर्जा कुछ ऐसे शहरों को दिया गया है जो ओलंपिक आंदोलन के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहे हैं

यह भी पढ़ें: विश्व के देश और उनके राष्ट्रीय खेलों की सूची

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के अध्यक्षों की सूची: (1894-2020)

नाम कार्यकाल (पदावधि)
पियरे डे कोबेर्टिन (Pierre de Coubertin) (1896–1925)
हेनरी डी बैलेट-लैटोर (Henri de Baillet-Latour) (1925–1942)
सिगफ्रिड एडस्ट्रॉम (Sigfrid Edström) (1942–1952)
एवरी ब्रुंडेज (Avery Brundage) (1952–1972)
लॉर्ड किलानिन (Lord Killanin) (1972–1980)
जुआन एंटोनियो समरंच (Juan Antonio Samaranch) (1980–2001)
जैक्स रोगे (Jacques Rogge) (2001–2013)
थॉमस बाक (Thomas Bach ) (2013 से अब तक)

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की गतिविधियां:

अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की सर्वोच्च सत्ता के अंतर्गत, ओलम्पिक आंदोलन में वे संगठन, खिलाड़ी और अन्य व्यक्ति सम्मिलित होते हैं, जो ओलम्पिक चार्टर का अनुपालन करने के लिये सहमत होते हैं। आईओसी द्वारा मान्यता प्राप्त करना ओलम्पिक आंदोलन की सदस्यता का मापदंड है।

ओलम्पिक आंदोलन की गगतिविधि स्थायी और सार्वभौमिक है। महान खेल उत्सव, ओलम्पिक खेलों के अवसर पर जब सम्पूर्ण विश्व के खिलाड़ी एक मंच पर एकत्रित होते हैं तो यह अपने चरम पर होती है। ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों का ओयाजन ओलम्पियाड (चार वर्षों की अवधि) के प्रथम वर्ष के दौरान होता है। इन खेलों पर आईओसी का एकाधिकार होता है। आईओसी ओलम्पिक खेलों का आयोजन करने वाले शहर का निर्धारण सात वर्ष पहले कर लेता है। खेल-कार्यक्रम में कुल ओलम्पिक खेलों (वे खेल जिन्हें अंतरराष्ट्रीय परिसंघ द्वारा मान्यता प्रदान की गई है तथा आईओसी द्वारा ओलम्पिक खेल के आयोजन से सात वर्ष पूर्व ओलम्पिक कार्यक्रम में सम्मिलित किया गया है) में से कम-से-कम 15 खेलों को अवश्य सम्मिलित होना चाहिये। ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों में से इन खेलों को सम्मिलित किया जाता है- तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन, बेसबॉल, बास्केटबॉल, मुक्केबाजी, केनोइंग (canoeing), साइकिल-दौड़, अश्वारोही खेल, तलवारबाजी (fencing), फुटबॉल, जिमनास्टिक, हैंडबॉल, हॉकी, जूड़ो, आधुनिक पेंटाथलोन, नौका विहार (rowing), पाल-नौका विहार, निशानेबाजी, सॉफ्टबॉल, तैराकी (पानी के अंदर पोलो और गोताखोरी सहित), टेबल टेनिस, ताइकवांडी, टेनिस, ट्राइथलोन, वॉलीबाल, भारोत्तोलन तथा कुश्ती।
शीतकालीन ओलम्पिक में बर्फ और हिम पर खेले जाने वाले खेल सम्मिलित होते हैं। वर्ष 1992 के बाद से शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों का आयोजन एक ही वर्ष में होता है।

शीतकालीन ओलम्पिक में स्कैइंग (skiing), स्केटिंग, आईस हॉकी, बॉबस्ले (bobsleigh), ल्युज (luge), कलिंग (curling) और बैथलोन जैसे खेल सम्मिलित होते हैं।

आईओसी ओलम्पिक खेलों और यूथ ओलम्पिक खेलों का आयोजन प्रत्येक चार वर्ष पर ग्रीष्मकाल और शीतकाल में करती है। प्रथम ग्रीष्म ओलम्पिक का आयोजन 1896 में एथेंस (ग्रीस) में किया गया, और प्रथम शीतकालीन ओलम्पिक चेमोनिक्स (फ्रांस) में 1924 में कराए गए। पहला ग्रीष्म यूथ ओलम्पिक 2010 में सिंगापुर में और प्रथम शीत यूथ ओलम्पिक इन्सबुक में 2012 में सपन्न हुआ।

आईओसी के कुल सदस्यों की संख्या 115 से अधिक नहीं हो सकती। आईओसी के प्रत्येक सदस्य का चुनाव 8 वर्षों के लिए हो सकता है और वह एक या कई बार पुनः निर्वाचित हो सकता है।

फरवरी 2013 में, आईओसी ने 2020 में टोकियो (जापान) में आयोजित होने वाले ओलम्पिक में कुश्ती को शामिल न करने का निर्णय लिया जिसकी खिलाड़ी एवं कुश्ती पेशेवरों ने निंदा की। बाद में इस निर्णय को पलट दिया गया और कुश्ती को 2016 के रियो डी जेनिरो (ब्राजील) ओलम्पिक और 2020 के ओलम्पिक का हिस्सा बनाया गया।

अंतिम संशोधन-12 सितम्बर 2020

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पल्लव राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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पल्लव राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्य | Pallava Dynasty History in Hindi

पल्लव राजवंश का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची: (Pallava Dynasty History and Important Facts in Hindi)

पल्लव राजवंश:

पल्लव राजवंश प्राचीन दक्षिण भारत का एक राजवंश था। चौथी शताब्दी में इसने कांचीपुरम में राज्य स्थापित किया और लगभग 600 वर्ष तमिल और तेलुगु क्षेत्र में राज्य किया। बोधिधर्म इसी राजवंश का था जिसने ध्यान योग को चीन में फैलाया। यह राजा अपने आप को क्षत्रिय मानते थे। पल्लवों के प्रारंभिक इतिहास की रूपरेखा स्पष्ट नहीं है। यह माना जाता है कि पल्लवों का उदय सातवाहनों के बाद हुआ था।पल्लवों का कार्यक्षेत्र दक्षिणी आध्र और उत्तरी तमिलनाडु था, उनकी राजधानी काँची बनी। पल्लवों का प्रामाणिक इतिहास छठी सदी ई. के लगभग ही मिलता है, तभी से इनका राज्य शीघ्रता से विकसित हुआ। इस प्रदेश का ऐतिहासिक शासक सिंहविष्णु को माना जा सकता है। यह बड़ा शक्तिशाली शासक था जिसने अवनिसिंह की उपाधि धारण की। इसने संपूर्ण चोलमण्डल पर अपना अधिकार कर लिया और अपने राज्य का विस्तार कावेरी तक किया। वह वैष्णव धर्मावलम्बी था।

पल्लव राजवंश के शासकों की सूची:

शासक का नाम शासनकाल अवधि
शिवस्कन्द वर्मन
विष्णुगोप
सिंह विष्णु (575-600 ई.)
महेन्द्र वर्मन प्रथम (600-630 ई.)
नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई.)
महेन्द्र वर्मन द्वितीय (668-670 ई.)
परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-695 ई.)
नरसिंह वर्मन द्वितीय (695-720 ई.)
परमेश्वर वर्मन द्वितीय (720-731 ई.)
नंदि वर्मन द्वितीय (731-795 ई.)
दंति वर्मन (796-847 ई.)
नंदि वर्मन तृतीय (847-869 ई.)
नृपत्तुंग वर्मन (870-879 ई.)
अपराजित (879-897 ई.)

शिवस्कन्द वर्मन:

शिवस्कन्द वर्मन ने कांची को अपनी राजधानी बनाया था। प्राकृत भाषा के ताम्रलेखों से पता चलता है कि प्रथम पल्लव शासक सिंह वर्मा था। प्रारम्भिक पल्लव वंशी शासक शिवस्कन्द वर्मन के विषय में हमें मायिडवोलु एवं हरि हड्डगलि ताम्र अनुदान पत्र से जानकारी मिलती है। उसे अग्निष्टोम, वाजपेय एवं अश्वमेध आदि यज्ञों का यज्ञकर्ता माना जाता है।

विष्णुगोप:

विष्णुगोप (चौथा शती ई. के मध्य काल) से लेकर सिंह वर्मा (लगभग छठी शती ई. का उत्तरार्ध) के बीच लगभग आठ शासकों ने शासन किया। प्रयाग प्रशस्ति के विवरण से स्पष्ट होता है कि, जिस समय समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ को जीता, उस समय कांची पर विष्णुगोप शासन कर रहा था। विष्णुगोप के बाद ईसा की पांचवीं एवं छठीं शताब्दी में पल्लव वंश का इतिहास अंधेरे में था। समुद्रगुप्त द्वारा विष्णुगुप्त के पराजित होने के बाद पल्लव राज्य विघटन के कागार पर पहुँच गया था। विभिन्न शासको ने भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर स्वतंत्र शाखाओं की स्थापना कर ली थी। इन शासकों में-कुमार विष्णु प्रथम, बुद्ध वर्मा, कुमार विष्णु द्वितीय, स्कन्द वर्मा द्वितीय, सिंह वर्मा, स्कंद वर्मा तृतीय, नन्दिवर्मा प्रथम तथा शान्तिवर्मा चण्डदण्ड आदि प्रमुख थे।

सिंह विष्णु:

सिंह विष्णु के समय में पल्लव इतिहास का नया अध्याय आरम्भ हुआ। सिंह विष्णु के दरबार में संस्कृत का महान् कवि भारवि रहता था। सिंह विष्णु को सिंह विष्णुयोत्तर युग एवं अवनिसिंह भी कहा जाता था। कशाक्कुडि लेख के अनुसार इसने कलभों, मालवों, चोलो, पाण्ड्यों, केरलों तथा सिंहल के शासकों के साथ युद्ध किया। उसने चोलों को परास्त कर कावेरी नदी के मुहाने तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और चोलमण्डल की विजय के बाद ही उसने अवनि सिंह तथा शिंगविष्णु पेरुमार की उपाधि धारण की। भारवि वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसके समय में ही मामल्लपुरम के आदिवराह गुहा मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर में सिंह विष्णु एवं उसकी दो रानियों की प्रतिमा भी स्थापित की गई है।

महेन्द्रवर्मन्:

सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन् शासक बना। वह बहुत योग्य था। जिसने कई उपाधियाँ धारण कीं-चेत्थकारि, मत्तविलास, विचित्रचित आदि। ये विभिन्न उपाधियाँ उसकी बहुमुखी प्रतिभा की प्रतीक हैं। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय महेन्द्रवर्मन् का समकालीन था। महेन्द्रवर्मन का चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध हुआ था। उत्तर के कई भागों पर चालुक्यों का अधिकार हो गया था। काँची भी पल्लवों के हाथ से गया। गोदावरी दोआब जो वेंगी नाम से प्रसिद्ध था, भी चालुक्यों के पास चला गया। यह कालान्तर में चालुक्यों की दूसरी शाखा का प्रमुख राजनैतिक केन्द्र बना। पल्लवों की शक्ति द्रविड क्षेत्र में जमी रही।

स्थापत्य कला में चट्टानों को काटकर मंदिर निर्माण करवाने का श्रेय महेन्द्रवर्मन् को ही दिया जा सकता है। वह साहित्य, कला, संगीत आदि का संरक्षक था। वह स्वयं भी लेखक था जिसने मत्तविलास प्रहसन की रचना की। इस ग्रन्थ से तत्कालीन धार्मिक संप्रदायों कापालिक, पाशुपति, बौद्ध आदि की बुराइयों पर प्रकाश पड़ता है।

नरसिंहवर्मन् प्रथम:

महेन्द्रवर्मन् के बाद् उसका पुत्र नरसिंहवर्मन शासक बना। वह भी बड़ा योग्य और प्रतापी था। उसने जैसे ही शासन संभाला वैसे ही उसे पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु हो गयी। नरसिंहवर्मन् ने वातापी पर अधिकार कर लिया। फलस्वरूप उसने महामल्ल की उपाधि प्राप्त की। इससे उसके निर्माण-कायों का संकेत मिलता है। उसने महामल्लपुरम् (महाबलीपुरम) नगर की स्थापना की, जो एक प्रसिद्ध बंदरगाह भी बना। नरसिंहवमन् ने वहाँ सात रथ मंदिर भी बनवाये जो स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। उसने लंका के विरुद्ध समुद्री अभियान भी किये। इस अभियान का उद्देश्य मारवर्मन् को सहायता पहुँचा कर उसको लंका का अधिपति बनाना था।

नरसिंहवर्मन ने चोल, चेरों, पांड्यों को भी पराजित किया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग नरसिंहवर्मन् के समय ही भारत आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में पल्लव-राज्य का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग के अनुसार पल्लव राज्य की भूमि उपजाऊ थी व वहाँ की प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी, लोग विद्याप्रेमी थे। ह्वेनसांग के अनुसार काँची में 100 से भी अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें लगभग दस हजार से भी अधिक बौद्ध भिक्षु रहते थे।

महेन्द्रवर्मन द्वितीय:

नरसिंह वर्मन की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन द्वितीय सिंहासन पर बैठा किन्तु 670 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार उसका शासन-काल दो वर्ष तक ही रहा।

परमेश्वरवर्मन् प्रथम:

महेन्द्रवर्मन् द्वितीय के उपरान्त उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन् गद्दी पर बैठा। परमेश्वरवर्मन् प्रथम के समय चालुक्य नरेश विक्रमादित्य से प्रथम ने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर कांची पर अधिकार कर लिया और कावेरी नदी तक अपनी सत्ता स्थापित कर ली। किन्तु बाद में परमेश्वरवर्मन् ने चालुक्यों को अपने प्रदेश से निकाल बाहर कर दिया। परमेश्वरवर्मन् प्रथम शैव मतावलम्बी था। उसने भगवान शिव के अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। ममल्लपुरम् का गणेश मन्दिर सम्भवत: परमेश्वरवर्मन ने ही बनवाया था। परमेश्वरवर्मन् प्रथम ने चित्त माय, गुणभाजन, श्रीमार और रणजय विस्द धारण किए थे।

नरसिंहवर्मन् द्वितीय:

नरसिंहवर्मन परमेश्वर वर्मन प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी था। नरसिंहवर्मन का शासन-काल अपेक्षाकृत शान्ति और व्यवस्था का था। नरसिंहवर्मन ने अपने शान्तिपूर्ण शासन का सदुपयोग समाज और संस्कृति के विकास में लगाया। उसने अपने राज्य में अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया। इन मन्दिरों में कांची का कैलाशनाथ मन्दिर, महाबलिपुरम् का तथाकथित शोर मन्दिर कांची का ऐरावत मन्दिर और पनामलई के मन्दिर मुख्य हैं। इन सभी मन्दिरों में नरसिंहवर्मन के अभिलेख अंकित है। उसे अपने पिता तथा पितामहा की भाँति विस्दों से विशेष लगाव था। केवल कैलाश मन्दिर की दीवारों पर ही उसकी 250 से अधिक उपाधियाँ उत्कीर्ण हैं। श्री शंकर मल्ड, श्रीवाद्य विद्याधर, श्री आगमप्रिय, शिवचूडामणि तथा राजसिंह उसके कुछ मुख्य विस्द हैं। कला के साथ उसने साहित्यकारों को भी संरक्षण दिया।

परमेश्वरवर्मन द्वितीय:

नरसिंहवर्मन का उत्तराधिकारी परमेश्वरवर्मन् द्वितीय था। दशकुमारचरित के रचयिता महाकवि दण्डी उसका दरबारी कवि था। चीन के साथ उसने संबंध स्थापित किये और अपना दूत वहाँ भेजा था। शासन-काल के समय चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय ने काँची पर आक्रमण किया। युद्ध में परमेश्वरवर्मन् द्वितीय पराजित हुआ। गंग नरेश श्री पुरुष से युद्ध करते समय उसकी मृत्यु हो गयी। परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के कोई पुत्र न था। मंत्रियों ने पल्लवों की एक अन्य शाखा के राजकुमार नन्दिवर्मन् पल्लवमल्ल को शासक बनाया। नन्दिवर्मन् द्वितीय पल्लवमल (730-795 ई.) शासनकाल के लगभग माना गया है। नन्दिनवर्मन् साहसी एवं उत्साही शासक था जिसने पल्लव शक्ति का पुनर्गठन किया। इसके शासनकाल में भी पल्लव-चालुक्य संघर्ष हुए। चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने कांची पर अधिकार कर लिया था लेकिन नंदिवर्मन ने पुन: उस पर अधिकार जमाया। विक्रमादित्य द्वितीय ने काँची पर तीन बार आक्रमण किया था और सुदूर दक्षिण में पल्लवों का अधिपत्य समाप्त कर दिया।

दन्तिवर्मन:

796 ई. से 846 ई. तक दन्तिवर्मन का काल है। इसके समय पल्लवों का पाण्ड्यों से संघर्ष हुआ। पल्लव राज्य के कुछ भाग पाण्ड्यों के हाथ में चले गये। दन्तिवर्मन के समय आन्दोलन का भी विकास हुआ। प्रसिद्ध संत सुन्दरमूर्ति व चरुभान पेरुमाल उसके समकालीन थे। प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य का भी यही काल था। दन्तिवर्मन के बाद उसका पुत्र नन्दिवर्मन तृतीय शासक बना जिसका काल 545 ई. से 856 ई. है। उसने तेलेलार का युद्ध किया जिसमें पांडयों, गंगा, चोलों की सम्मिलित पराजय हुई। नन्दिवर्मन तृतीय के पुत्र ने इस पराजय का बदला पाण्ड्य राजा श्रीमाल को हराकर लिया। अपराजित वर्मन इस वंश का अंतिम राजा था। इसने पाण्ड्यों को पराजित किया लेकिन चोलराज आदित्य प्रथम से इसका अंतिम युद्ध हुआ और प्रशस्ति प्राप्त की। पल्लवों के राज्य (कोण्डमण्डलम) को शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। नन्दिवर्मन द्वितीय के बाद से ही पल्लवों का चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, पाण्ड्यों व चोलों से बराबर संघर्ष चला। पल्लव शासक सामंतों की स्थिति में आ गये उनका राज्य चोल साम्राज्य में मिला लिया गया।

पल्लव राजवंश से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य:

  • कांची के पल्लव शासकों के विषय में प्रांरभिक जानकारी प्रयाग प्रशास्ति एंव हृवेनसान के यात्रा विवरण से मिलती है।
  • शिव स्कन्द वर्मन सभवत: प्रारम्भिक पल्लववषी शासक था। उसने कांची को अपनी राजधानी बनाया।
  • कांची के पल्लव राजवंश के उत्कर्ष का इतिहास वस्तुत: सिंहवर्मन (550-575 ई॰) के समय से प्रारंभ होता है। जबकि महान पल्लवों की परम्परा उसके पुत्र सिंहविष्णु (575-600 र्इ.) से प्रारभ होंती है।
  • सिंहवर्मन का पुत्र तथा उत्तराधिकारी सिंहविष्णु पल्लव वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
  • सिंहविष्णु ने अवनिसिंह (पृथ्वी का सिंह) नामक उपाधि धारण किया था।
  • सिंहविष्णु विष्णु का उपासक था।
  • सिंहविष्णु के शासन काल में मामल्लपुरम् (महाबलीपूरम्) में वाराहमंदिर का निर्माण हुआ।
  • सिंहविष्णु के दरबार में किरातार्जुनीयम् नामक महाकाव्य के रचयिता महाकवि भारवि रहते है।
  • सिंहविष्णु के बाद महेन्द्र वर्मन प्रथम राजगद्दी पर बैठा।
  • महेन्द्र वर्मन प्रथम ने मत्तविलास,विचित्रचित,गुणभर तथा शुत्रमल्ल जैसी अनेक उपाधियां घारण की।
  • महेंन्द्र वर्मन प्रथम पहले जैन धर्म कों अंगीकार किया था लेकिन अप्पार के प्रभाव में इसे छोड़कर शीध्र उसने शैव मत को अपना लिया।
  • महेन्द्र वर्मन प्रथम ने अनेक गुहा मंदिरो का निर्माण करवाया।
  • महेन्द्र वर्मन ने ही सबसे पहले पाषाण खड़ो को काटकर मंदिर बनवाने की कला का प्रचार किया।
  • महेन्द्र वर्मन प्रथम ने ब्रहृा,ईश्वर तथा विष्णु के एकाश्मक मंदिरो का निर्माण करवाया।
  • महेन्द्र वर्मन प्रथम के शासन काल मे निर्मित मंदिर त्रिचनापल्ली, महेन्द्रवाडी, दलबनूर तथा वल्लम में है।
  • महेन्द्र वर्मन प्रथम ने प्रसिद्व संगीतज्ञ रूद्राचार्य से शिक्षा ली थी।
  • मत्तविलासप्रहसन नामक ग्रंथ की रचना का श्रेय महेन्द्रवर्मन प्रथम को है।
  • मोहिन्द्र तड़ाग नामक सरोवर के निर्माण का श्रेय भी उसी को है।
  • इसी समय में भारवि ने किरातार्जुनीयम की रचना की।
  • महेन्द्र वर्मन प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन प्रथम शासक बना।
  • नरसिंह वर्मन प्रथम ने पुलकेशिन द्धितीय की हत्या एवं बादामी पर कब्जा जमाया तथा वातापी कोड की उपाधि धारण की।
  • महाबलीपुरम नरसिंहवर्मन प्रथम के राज्य का प्रमुख बदरगाह था।
  • नरसिंह वर्मन प्रथम ने महामल्लपुरम नामक नगर बसाया।
  • नरसिंह वर्मन प्रथम के शासन काल में चीनी चात्री हेनसांग कांची गया था।
  • नरसिंह वर्मन प्रथम के मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन द्धितीय शासक बना।
  • महेन्द्रवर्मन द्धितीय के बाद परमेश्वरवर्मन प्रथम शासक बना।
  • परमेश्वर वर्मन प्रथम के राजमुकुट का एक बहुमूल्य रत्न वह हार जिसमें उग्रेदय नामक मणि लगी थी शत्रु को सौपनी पड़ी।
  • परमेश्वर वर्मन प्रथम शैव मत में विश्वास रखता था।
  • परमेश्वर वर्मन प्रथम एकमल्ल, रणजय, अनंतकाम, उग्रदंड़, गुणभाजन आदि उपाधियॉ धारण की थी।

  • परमेश्वर वर्मन प्रथम ने अनेक शिव मदिरों का तथा मामल्लपुरम् में गणेष मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • परमेश्वर वर्मन प्रथम ने विधाविनीत की भी उपाधि धारण की थी।
  • परमेश्वर वर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मन द्धितीय उत्तराधिकारी हुआ।
  • नरसिंह वर्मन द्धितीय ने कांची के कैलाशनाथ मंदिर तथा महाबलीपुरम् कि शोर मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • अलंकारशास्त्र का महान् पंडित दण्डी सभवत: नरसिंहवर्मन के दरबार में अनेक वर्षो तक रहा।
  • नरसिंह वर्मन द्धितीय ने अपने राजदूत को चीन भेजा।
  • नरसिंह वर्मन द्धितीय ने चीनी बौद्ध यात्रियों के लिए नागपट्टम में एक बिहार निर्माण करवाया था।
  • नरसिंह वर्मन द्धितीय के बाद परमेश्वर वर्मन द्धितीय शासक बना।
  • विल्लद नामक स्थान पर गंग राजा ने परमेश्वर वर्मन द्धितीय को मार डाला तथा पर्मानाड़ी की उपाधि के साथ-साथ पल्लव राजच्छत्र पर भी अधिकार कर लिया।
  • राजधानी के अधिकारियो ने धटिका (पंडित, ब्राहृाण वर्ग) तथा जनता की सहमति से पल्लव राजवंश की एक दूसरी शाखा से हिरण्यवर्मन के पुत्र नंदिवर्मन द्धितीय को अपना राजा चुना।
  • नंदिवर्मन द्धितीय का राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग से युद्ध हुआ लेकिन कालान्तर में दोनों में संधि हो गर्इ और वैवाहिक सबंध भी स्थापित हुए उसका विवाह राष्ट्रकूट कूट शासक की पुत्री रेखा के साथ हुआ।
  • नंदिवर्मन द्धितीय वैष्णव मतानुयायी था।
  • नंदिवर्मन द्धितीय ने कॉची के मुक्तेश्वर मंदिर तथा बैकुठ पेरूमल मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • प्रसिद्ध वैष्णव सतं तिरूमंगर्इ अलवार उसके समकालीन थे।
  • नंदिवर्मन द्धितीय के बाद उसका पुत्र दंतिवर्मन सिंहासन पर बैठा।
  • दंतिवर्मन ने मद्रास के पास त्रिप्लीकेन में पार्थ सारथि मंदिर का पुन निर्माण करवाया था।
  • दंतिवर्मन भी वैष्णव धर्म में विश्वास रखता था। एक अभिलेख में उसे विष्णु का अवतार कहा गया है।
  • दंतिवर्मन के बाद उसका पुत्र नदिवर्मन तृतीय शासक बना। उसने अपने वंश की खोर्इ प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने का प्रयास किया।
  • नंदिवर्मन तृतीय ने पाण्ड्यो की सेना को कर्इ युद्धो मे परास्त कर कवेरी द्धारा सिचित प्रदेश का स्वामी बना। गंग शासको ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की।
  • उसने राष्ट्रकूट नरेश अमोधवर्ष की कन्या शंखा के साथ उसका विवाह हुआ।
  • नंदिवर्मन तृतीय शैव मतानुयायी था। उसकी राजसभा मे तमिल भाषा के प्रसिद्ध कविसंत पेरून्देवनार निवास करता था जिसने भारतवेणवा नामक ग्रंथ की रचना की।
  • नंदिवर्मण तृतीय के बाद उसका पुत्र नृपतुगवर्मन राजा हुआ।
  • नृपतुगवर्मन की माता राष्ट्रकूट राजकुमारी थी।
  • संभवत: नृपतुगवर्मन ने अरचित नदी के तट पर पाण्ड्यो का हराया।
  • नृपतुगवर्मन उदार तथा विधा प्रेमी शासक था उसे वेद वेदाग,मीमासा,न्याय,पुराण तथा धर्मशास्त्रों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था करवार्इ।
  • पल्लव वंश का अतिम महत्वपूण शासक अपराजित था। उसने चोल नरेश आदित्य प्रथम की सहायता प्राप्त कर पाण्ड्य वंशी शासक श्रीदूरम्बिमम् के युद्ध में परास्त किया। बाद मे उसके मित्र चोल नरेश आदित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी।
  • पल्लव के समय में ही नयनारों तथा अलवारों के भक्ति आदोलन हुए।
  • शैवधर्म का प्रचार नयनार सतों द्धारा किया गया जिसकी सख्या 63 बतायी गर्इ है।

इन्हें भी पढे: हर्षवर्धन काल का इतिहास एवं महत्वपूर्ण तथ्यों की सूची

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अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) का इतिहास, उद्देश्य, सदस्य देश तथा मुख्य मानकों की सूची

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अंतरराष्‍ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO) के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी | ISO in Hindi

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) के बारे में जानकारी: Information About International Organisation for Standardisation (ISO) in Hindi

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) क्या है?

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन अनेक तकनीकी और गैर-तकनीकी क्षेत्रों के मानकीकरण से संबंधित है। यह एक गैर-सरकारी संगठन है जो विश्व विभिन्न देशों में वस्तुओं एवं सेवाओं की गुणवत्ता के लिए मापदंड निर्धारित करती है। आईएसओ ने लगभग 22,041 अंतरराष्ट्रीय मानक को प्रकाशित किया है। ISO के मानक प्रमाण पत्र उद्योग कृषि, प्रौद्योगिकी, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप हुये परिवर्तनों के समावेश के लिये प्रत्येक 05 में मानकों की समीक्षा की जाती है। आज आईएसओ उन्नत पदार्थों, जीव विज्ञान, नगरीकरण तथा सेवा जैसे नये क्षेत्रों के मानकीकरण में भी सक्रिय है।

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) के बारे में संक्षिप्त जानकारी: (Quick Info About ISO in Hindi)

ISO की फुल फॉर्म अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन
स्थापना 23 फरवरी 1947
प्रकार गैर-सरकारी संगठन
उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण
मुख्यालय जिनेवा, स्विट्जरलैंड
कुल सदस्य  162 (जनवरी 2018)

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) की स्थापना कब हुई थी?

आईएसओ का इतिहास: अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (ISO) की स्थापना 23 फरवरी, 1947 में जेनेवा में हुई थी। अंतरराष्‍ट्रीय मानकीकरण की पहली बैठक लंदन में 14 अक्‍टूबर 1946 में हुई थी। आईएसओ का मुख्यालय जिनेवा, स्विट्जरलैंड में है। प्रथम आईएसओ मानक का प्रकाशन 1951 में हुआ तथा वह मानक औद्योगिक लंबाई माप से संबंधित था।

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) के उद्देश्य:

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) का गठन के प्रमुख उद्देश्यों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं, सेवाओं और प्रणालियों की गुणवत्ता, सुरक्षा और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए मानकीकरण और सम्बंधित गतिविधियों के विकास को प्रोत्साहित करना, बौद्धिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और आर्थिक गतिविधियों में सहयोग विकसित करना आदि शामिल है। जो उत्पाद और सेवाएँ आईएसओ द्वारा तय किये गए मानकों पर खरे उतरते हैं, उनको बेचना किसी भी कम्पनी के लिए बहुत आसान हो जाता है।

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन के सदस्य: (Members of ISO in Hindi)

जनवरी 2018 के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) के सदस्य देशों की संख्या 162 हैं। हर एक सदस्य एक राष्ट्रीय निकाय होता है तथा वह अपने देश के मानकीकरण का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक देश का प्रतिनिधित्व करने के लिये एक सदस्य होता है। पश्चिमी औद्योगिक देशों के सदस्य सामान्यतया निजी संगठन होते हैं, जबकि अन्य देशों के सदस्य प्रायः सरकारी संगठन होते हैं।

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) की तीन सदस्यता श्रेणियाँ होती हैं:-

  • सदस्य संस्थाएं: वे राष्ट्रीय संस्थाएं हैं, जो कि प्रत्येक देश में सर्वाधिक प्रतिनिधित्व मानक संस्था मानी जाती हैं। केवल इन सदस्यों को मतदान का अधिकार है।
  • प्रतिनिधि सदस्य: प्रतिनिधि सदस्य में वे राष्ट्र शामिल हैं, जिनका अपना कोई मानक संगठन नहीं है। इन सदस्यों को आईएसओ की गतिविधियों से सुविज्ञ रखा जाता है, लेकिन ये मानक प्रख्यापन या प्रवर्तन में भाग नहीं लेते।
  • अंशदाता या उपभोक्ता सदस्य: अंशदाता या उपभोक्ता सदस्यों में छोटी अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्र शामिल होते, जो घटी सदस्यता शुल्क देते हैं, परंतु मानकों के विकास का अनुसरण कर सकते हैं।

आईएसओ के फायदे: (ISO Benefits in Hindi)

सामान्यरूप से वो कम्पनिया जो अपना उत्पाद मार्किट में बेचती है, उनके लिए ISO Certificate बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, क्योकि इससे  कम्पनी को कई प्रकार के फायदे होते है जैसे:-

  • ISO Certificate कम्पनी की गुणवता और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है।
  • इससे कम्पनी के प्रोडक्ट की मार्केट में विश्वनीयता बढ़ती है।
  • ISO Certificate कम्पनी की औद्योगिक और वाणिज्यिकता को बढ़ावा देता है।
  • प्रोडक्ट की Quality में सुधार होता है और लागत का होती है।
  • ISO Certificate से कम्पनी के ग्राहकों के हितो की रक्षा होती है आदि।

सरल शब्दों में कहाँ जाए तो ISO Certificate कम्पनी के लिए बहुत ही जरुरी होता है, क्योकि यह एक तरह से कंपनी को नई साफ़-सुथरी छवि प्रदान करता है।

अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन की गतिविधियां:

आईएसओ नाप-तौल, वर्णानुक्रमता (alphabetisation), लिप्यांतर (transliteration), कलपुर्जों, पदार्थों, सतहों, प्रक्रियाओं और उपकरणों का विशष्टीकरण तथा जांच-प्रक्रियाओं एवं मशीनों के लिए मानकों का निर्धारण करता है। इन मानकों का प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय मानकों (आईएस) के रूप में होता है। प्रथम आईएसओ मानक का प्रकाशन 1951 में हुआ तथा वह मानक औद्योगिक लंबाई माप से संबंधित था। आज विस्तृत क्षेत्रों से जुड़े लगभग 12,200 आईएसओ आईएस उपलब्ध हैं। आग्रह करने पर आईएसओ मानकीकरण के विशिष्ट विषयों को सुलझाने तथा उनकी जांच करने के लिये अंतरराष्ट्रीय तकनीकी समितियों का गठन करता है। तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप हुये परिवर्तनों के समावेश के लिये प्रत्येक पांच वर्ष में मानकों की समीक्षा की जाती है। आज आईएसओ उन्नत पदार्थों, जीव विज्ञान, नगरीकरण तथा सेवा जैसे नये क्षेत्रों के मानकीकरण में भी सक्रिय है।

आईएसओ द्वारा जारी किये गए मुख्य मानकों की सूची: (List of standards developed by ISO in Hindi)

मानक का नाम क्षेत्र
आईएसओ 9001 गुणवत्ता प्रबंधन
आईएसओ 14001 पर्यावरण प्रबंधन
आईएसओ 22000 खाद्य सुरक्षा प्रबंधन
आईएसओ 13485 चिकित्सा उपकरण
आईएसओ 20121 सस्टेनेबल आयोजन
आईएसओ 639 भाषा कोड
आईएसओ 45001 व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा
आईएसओ 4217 मुद्रा कोड
आईएसओ 37001 विरोधी रिश्वत प्रबंधन प्रणाली
आईएसओ/आईईसी 17025 परीक्षण और जाँच प्रयोगशालाएं
आईएसओ 26000 सामाजिक उत्तरदायित्व
आईएसओ 8601 दिनांक और समय का प्रारूप
आईएसओ 31000 जोखिम प्रबंधन
आईएसओ 3166 देश कोड
आईएसओ 50001 ऊर्जा प्रबंधन
आईएसओ/आईईसी 27001 सूचना सुरक्षा प्रबंधन

इन्हें भी पढ़ें: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अध्यक्षों की सूची

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यूपीएससी पद –सिविल सेवा के प्रकार (UPSC Posts – Types of Civil Services)

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यूपीएससी पद - सिविल सेवा के प्रकार (UPSC Posts - Types of Civil Services)

सिविल सेवा:

संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा (CSE) के माध्यम से 24 विभिन्न सिविल सेवा के लिए UPSC के पद भरे जाते हैं। लाखों उम्मीदवारों में से केवल कुछ हजार छात्र ही इस परीक्षा को सफलतापूर्वक उत्तीर्ण कर पाते हैं। हालांकि 23 विभिन्न सिविल सेवा हैं, सबसे लोकप्रिय सेवाएं भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS), भारतीय राजस्व सेवाएँ (IRS) और भारतीय विदेश सेवा (IFS) हैं। सफल उम्मीदवारों को सेवाओं का आवंटन परीक्षा में प्राप्त रैंकिंग पर निर्भर करता है। किसी सेवा में चयनित होने के बाद एक उम्मीदवार को उस सेवा के भीतर विभिन्न पदों (अपने करियर के एक दौर में) के लिए नियुक्त किया जाता है, सिवाय कुछ मामलों में जहां वह दूसरी सेवा में किसी अन्य विभाग में प्रतिनियुक्ति पर जा सकता है।

यूपीएससी पद –  मुख्यत: 3 प्रकार की सिविल सेवा

( 1 ) अखिल भारतीय सिविल सेवा – All India Civil Services

  • भारतीय प्रशासनिक सेवा – Indian Administrative Service (IAS)
  • भारतीय पुलिस सेवा – Indian Police Service (IPS)
  • भारतीय वन सेवा – Indian Forest Service (IFoS)

( 2 ) समूह ‘ए’ सिविल सेवा – Group ‘A’ Civil Services

  • भारतीय विदेश सेवा – Indian Foreign Service (IFS)
  • भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा – Indian Audit and Accounts Service (IAAS)
  • भारतीय सिविल लेखा सेवा – Indian Civil Accounts Service (ICAS)
  • भारतीय कॉर्पोरेट विधि सेवा – Indian Corporate Law Service (ICLS)
  • भारतीय रक्षा लेखा सेवा – Indian Defence Accounts Service (IDAS)
  • भारतीय रक्षा संपदा सेवा – Indian Defence Estates Service (IDES)
  • भारतीय सूचना सेवा – Indian Information Service (IIS)
  • भारतीय आयुध कारखानों सेवा – Indian Ordnance Factories Service (IOFS)
  • भारतीय संचार वित्त सेवाएँ – Indian Communication Finance Services (ICFS)
  • भारतीय डाक सेवा – Indian Postal Service (IPoS)
  • भारतीय रेलवे लेखा सेवा – Indian Railway Accounts Service (IRAS)
  • भारतीय रेलवे कार्मिक सेवा – Indian Railway Personnel Service (IRPS)
  • भारतीय रेल यातायात सेवा – Indian Railway Traffic Service (IRTS)
  • भारतीय राजस्व सेवा – Indian Revenue Service (IRS)
  • भारतीय व्यापार सेवा – Indian Trade Service (ITS)
  • रेलवे सुरक्षा बल – Railway Protection Force (RPF)

( 3 ) समूह ‘बी’ सिविल सेवा – Group ‘B’ Civil Services

  • सशस्त्र बल मुख्यालय सिविल सेवा – Armed Forces Headquarters Civil Service
  • दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह सिविल सेवा – Delhi, Andaman and Nicobar Islands Civil Service (DANICS)
  • दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पुलिस सेवा – Delhi, Andaman and Nicobar Islands Police Service (DANIPS)
  • पांडिचेरी सिविल सर्विस – Pondicherry Civil Service
  • पांडिचेरी पुलिस सेवा – Pondicherry Police Service

( 1 ) अखिल भारतीय सिविल सेवा – All India Civil Services

संविधान संघ एवं राज्‍यों के लिए समान अखिल भारतीय सेवाओं के सृजन की व्‍यवस्‍था करता है। अखिल भारतीय सेवाएं अधिनियम, 1951 में यह प्रावधान किया गया है कि केंद्रीय सरकार, अखिल भारतीय सेवाओं पर नियुक्‍त व्‍यक्‍तियों की भर्ती और सेवा की शर्तों को विनियमित करने के लिए नियमावली बना सकती है। वर्तमान में केवल भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा को अखिल भारतीय सेवाओं के रूप में गठित किया गया है। इन सेवाओं पर भर्ती तदनुरूप अ.भा.से. भर्ती नियमावली के तहत की जाती है और सीधी भर्ती (प्रतियोगिता परीक्षा के माध्‍यम से) तथा राज्‍य संवा (सं.लो.से.आ. द्वारा संयोजित समिति के माध्‍यम से) से पदोन्‍नति के द्वारा भर्ती की जाती है। अ.भा.से. शाखा राज्‍य सरकार सेवा से पदोन्‍नति के माध्‍यम से भर्ती से संबंधित है जो कि क्रमश: भा.प्र.से./भा.पु.से./भा.व.से. पदोन्‍नति विनियम द्वारा शासित की जाती है।

अखिल भारतीय की तीनों सेवाओं की संक्षिप्त जानकारी नीचे दी गई है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा – Indian Administrative Service (IAS)

  • भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service) अखिल भारतीय सेवाओं में से एक है।
  • इसके अधिकारी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी है।
  • भारतीय प्रशासनिक सेवा (तथा भारतीय पुलिस सेवा) में सीधी भर्ती संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से की जाती है
  • उनका आवंटन भारत सरकार द्वारा राज्यों को कर दिया जाता है।
  • उत्तराखंड के मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, IAS का कर्मचारी प्रशिक्षण महाविद्यालय है

भारतीय पुलिस सेवा – Indian Police Service (IPS)

  • भारतीय पुलिस सेवा, जिसे आम बोलचाल में भारतीय पुलिस या आईपीएस, के नाम से भी जाना जाता है।
  • भारत सरकार के अखिल भारतीय सेवा के एक अंग के रूप में कार्य करता है।
  • आई.पी.एस में चुने हुए अभ्यर्थी का प्रशिक्षण सरदार बल्लभभाई पटेल नेशनल पुलिस एकेडमी, हैदराबाद में होती है।
  •  प्रशिक्षण पूरा होने के बाद अभ्यर्थी को जो राज्य कैडर दिया जाता है
  • उस राज्य के किसी जिले के पुलिस अधीक्षक के कार्यालय में एक साल की कार्य प्रशिक्षण लेनी होती है।
  • इसके बाद सहायक पुलिस अधीक्षक के रूप में दो वर्ष तक कार्य करने होते है।
  • IPS अधिकारी पुलिस सेवा में वरिष्ठ पदों पर रहते हैं।
  • IPS अधिकारी RAW, IB, CBI आदि में वरिष्ठ पदों पर रहते हैं।
  • ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत इंपीरियल पुलिस के नाम से जाना जाता था।

भारतीय वन सेवा – Indian Forest Service (IFoS)

  • भारतीय वन सेवा (IFoS) तीन अखिल भारतीय सेवाओं में से एक है।
  • भारतीय वन सेवा (IFoS) को वर्ष 1966 में अखिल भारतीय सेवा अधिनियम 1951 के तहत बनाया गया था।
  • भारतीय वन सेवा में चुने हुए अभ्यर्थी का प्रशिक्षण केंद्र देहरादून में है।
  • केंद्र सरकार के साथ सेवारत IFoS अधिकारियों का सर्वोच्च पदनाम महानिदेशक (DG) है।
  • राज्य सरकार के लिए सेवारत IFoS अधिकारियों का सर्वोच्च पदनाम प्रधान मुख्य वन संरक्षक है।
  • भारतीय वन सेवा संवर्ग पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत आता है।
  • IFoS अधिकारियों को खाद्य और कृषि संगठन (FAO) जैसे कई संगठनों में काम करने का अवसर मिलता है।

( 2 ) समूह ‘ए’ सिविल सेवा – Group ‘A’ Civil Services

सभी समूह ’ए’ सिविल सेवाओं का विवरण नीचे दिया गया है।

भारतीय विदेश सेवा – Indian Foreign Service (IFS)

  • IFS अधिकारी LBSNAA में अपना प्रशिक्षण शुरू करते हैं और फिर नई दिल्ली स्थित विदेशी सेवा संस्थान में चले जाते हैं।
  • यह सबसे लोकप्रिय ग्रुप ’ए’ सिविल सेवाओं में से एक है।
  • IFS अधिकारी भारत के विदेशी मामलों को संभालते हैं।
  • IFS अधिकारी उच्चायुक्त, राजदूत, संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि और विदेश सचिव बन सकते हैं।
  • IFS में चयनित एक उम्मीदवार सिविल सेवा परीक्षा के लिए फिर से प्रकट नहीं हो सकता है।

भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा – Indian Audit and Accounts Service (IAAS)

  • IAAS सबसे लोकप्रिय ग्रुप civil A ’सिविल सेवाओं में से एक है।
  • वे NAAA, शिमला में अपना प्रशिक्षण शुरू करते हैं।
  • यह कैडर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) के अंतर्गत आता है।
  • यह कैडर केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) की वित्तीय ऑडिटिंग करता है।

भारतीय सिविल लेखा सेवा – Indian Civil Accounts Service (ICAS)

  • यह कैडर समूह ’ए’ सिविल सेवा के तहत आता है।
  • वे वित्त मंत्रालय के अधीन कार्य करते हैं।
  • इस कैडर का प्रमुख लेखा महानियंत्रक होता है।
  • उन्हें राष्ट्रीय वित्तीय प्रबंधन संस्थान (NIFM), फरीदाबाद और सरकारी लेखा और वित्त संस्थान (INGAF) में प्रशिक्षित किया जाता है।

भारतीय कॉर्पोरेट विधि सेवा – Indian Corporate Law Service (ICLS)

  • यह समूह ए सेवा कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के तहत कार्य करती है।
  • इस सेवा का प्राथमिक उद्देश्य भारत में कॉर्पोरेट क्षेत्र को नियंत्रित करना है।
  • प्रोबेशनरीज़ के लिए प्रशिक्षण भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान भारतीय कॉर्पोरेट विधि सेवा के मानेसर परिसर में स्थित ICLS अकादमी में होता है।
  • भारतीय कॉर्पोरेट विधि सेवा अधिकारियों को कानून, अर्थशास्त्र, वित्त और लेखा पर व्यापक प्रशिक्षण दिया जाता है।

भारतीय रक्षा लेखा सेवा – Indian Defence Accounts Service (IDAS)

  • यह कैडर रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आता है।
  • इस कैडर के अधिकारियों को पहले CENTRAD, नई दिल्ली में प्रशिक्षित किया जाता है। फिर, एनआईएफएम; नेशनल एकेडमी ऑफ डिफेंस फाइनेंशियल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट, पुणे।
  • आईडीएएस कैडर के अधिकारी मुख्य रूप से सीमा सड़क संगठन (बीआरओ), रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) और आयुध कारखानों की सेवा लेते हैं।
  • इस कैडर का मुख्य उद्देश्य रक्षा खातों का ऑडिट करना है।
  • यह सेवा नियंत्रक लेखा महानिदेशक (CGDA) के नेतृत्व में है और यह DRDO, BRO और आयुध कारखानों के प्रमुखों के लिए मुख्य लेखा अधिकारी के रूप में भी कार्य करता है।

भारतीय रक्षा संपदा सेवा – Indian Defence Estates Service (IDES)

  • इस कैडर के अधिकारियों का प्रशिक्षण राष्ट्रीय रक्षा संपदा संस्थान में होता है जो नई दिल्ली में स्थित है।
  • इस सेवा का प्राथमिक उद्देश्य छावनी और रक्षा प्रतिष्ठान से संबंधित भूमि का प्रबंधन करना है।

भारतीय सूचना सेवा – Indian Information Service (IIS)

  • यह समूह ए सेवा भारत सरकार के मीडिया विंग के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है।
  • इस सेवा की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार और जनता के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करना है।
  • IIS सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आता है।
  • इस कैडर की भर्ती के लिए प्रारंभिक प्रशिक्षण भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) में होता है।
  • इस कैडर के अधिकारी डीडी, पीआईबी, एआईआर आदि जैसे विभिन्न मीडिया विभागों में काम करते हैं।

भारतीय आयुध कारखानों सेवा – Indian Ordnance Factories Service (IOFS)

  • यह सेवा रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आती है।
  • यह समूह ‘ए’ सिविल सेवा है जो बड़ी संख्या में भारतीय आयुध कारखानों (Ordnance Factories ) का प्रबंधन करने की जिम्मेदारी लेती है जो रक्षा उपकरण, हथियार और गोला-बारूद का उत्पादन करते हैं।
  • इस कैडर के तहत भर्ती किए गए अभ्यर्थी 1 वर्ष 3 महीने की अवधि के लिए नागपुर में स्थित राष्ट्रीय रक्षा उत्पादन अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।

भारतीय संचार वित्त सेवाएँ – Indian Communication Finance Services (ICFS)

  • यह ग्रुप ’ए’ सिविल सेवा के अंतर्गत आता है, इसे पहले भारतीय डाक और दूरसंचार लेखा और वित्त सेवा (आईपी एंड टीएएफएस) के रूप में जाना जाता था।
  • इस कैडर के लिए भर्ती किए गए उम्मीदवारों ने फरीदाबाद स्थित राष्ट्रीय वित्तीय प्रबंधन संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त किया।
  • इस संवर्ग का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय डाक और दूरसंचार विभागों को लेखांकन और वित्तीय सेवाएं प्रदान करना है।

भारतीय डाक सेवा – Indian Postal Service (IPoS)

  • यह सेवा समूह ’ए’ सिविल सेवाओं के अंतर्गत आती है।
  • इस कैडर के लिए भर्ती किए गए उम्मीदवारों ने गाजियाबाद में स्थित रफी अहमद किदवई नेशनल पोस्टल एकेडमी (RAKNPA) में प्रशिक्षण दिया जाता है।
  • IPoS अधिकारियों को इंडिया पोस्ट में उच्च ग्रेड अधिकारी के रूप में भर्ती किया जाता है। यह सेवा इंडिया पोस्ट को चलाने के लिए जिम्मेदार है।
    यह सेवा इंडिया पोस्ट द्वारा दी जाने वाली विविध सेवाओं के लिए जिम्मेदार है; पारंपरिक डाक सेवाओं, बैंकिंग, ई-कॉमर्स सेवाओं से, वृद्धावस्था पेंशन की हानि, मनरेगा मजदूरी

भारतीय रेलवे लेखा सेवा – Indian Railway Accounts Service (IRAS)

  • IRAS अधिकारी भारतीय रेलवे के वित्त और खातों के रखरखाव और प्रबंधन के लिए जिम्मेदार हैं।
  • भर्ती के बाद, IRAS के परिवीक्षक नागपु में राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी में दो साल के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम से गुजरते हैं।
  • वडोदरा में रेलवे स्टाफ कॉलेज और भारतीय रेलवे के निर्माण संगठनों, डिवीजन, विनिर्माण प्रतिष्ठानों और क्षेत्रीय रेलवे के साथ विशेष प्रशिक्षण संस्थान हैं।

भारतीय रेलवे कार्मिक सेवा – Indian Railway Personnel Service (IRPS)

  • प्रारंभिक प्रशिक्षण एलबीएसएनएए में शुरू किया गया है और वे विभिन्न संस्थानों जैसे राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी, आरसीवीपी नोरोन्हा प्रशासन अकादमी, डॉ. मेरी चन्ना रेड्डी मानव संसाधन विकास संस्थान में और प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।
  • जिसके बाद अगली ट्रेनिंग वडोदरा स्थित भारतीय रेलवे की राष्ट्रीय अकादमी में  होती है।
  • इस संवर्ग के अधिकारियों की प्राथमिक जिम्मेदारी भारतीय रेलवे के बीहेम मानव संसाधन का प्रबंधन है

भारतीय रेल यातायात सेवा – Indian Railway Traffic Service (IRTS)

  • आईआरटीएस समूह ‘ए’ सिविल सेवा के तहत आता है।
  • आईआरटीएस कैडर के अधिकारी वडोदरा में स्थित रेलवे स्टाफ कॉलेज और लखनऊ में भारतीय रेलवे परिवहन प्रबंधन संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं।
  • भारतीय रेलवे के लिए राजस्व सृजन की उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है।
  • यह सेवा रेलवे और जनता के बीच सेतु का काम करती है; रेलवे और कॉर्पोरेट क्षेत्र।

भारतीय राजस्व सेवा – Indian Revenue Service (IRS)

  • IRS कैडर वित्त मंत्रालय के तहत कार्य करता है।
  • इस कैडर का प्राथमिक उद्देश्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों को इकट्ठा करना है
  • IRS अधिकारी एलबीएसएनएए में प्रारंभिक प्रशिक्षण से गुजरते हैं, आगे की ट्रेनिंग एनएडीटी में होती है जो नागपुर और नेशनल एकेडमी ऑफ कस्टम्स, एक्साइज और नारकोटिक्स में स्थित है।

भारतीय व्यापार सेवा – Indian Trade Service (ITS)

  • यह समूह ’ए’ सिविल सेवा में से एक है।
  • भर्ती किए गए उम्मीदवारों को नई दिल्ली में स्थित भारतीय विदेश व्यापार संस्थान में प्रशिक्षण दिया जाता है।
  • प्राथमिक लक्ष्य यदि यह संवर्ग देश के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य का प्रबंधन करता है।
  • यह कैडर वाणिज्य मंत्रालय के अंतर्गत आता है और इसका नेतृत्व विदेश व्यापार महानिदेशालय (DGFT) करता है।

रेलवे सुरक्षा बल – Railway Protection Force (RPF)

  • आरपीएफ एक अर्धसैनिक बल है।
  • इस कैडर का मुख्य उद्देश्य भारतीय रेल यात्रियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना और भारतीय रेलवे की संपत्ति और संपत्ति की सुरक्षा करना है।
  • भर्ती किए गए उम्मीदवारों ने लखनऊ स्थित जगजीवन राम रेलवे सुरक्षा बल अकादमी में प्रशिक्षण दिया जाता है।

( 3 ) समूह ‘बी’ सिविल सेवा – Group ‘B’ Civil Services

सभी समूह ’बी’ सिविल सेवाओं का विवरण नीचे दिया गया है:

सशस्त्र बल मुख्यालय सिविल सेवा – Armed Forces Headquarters Civil Service

  • यह सेवा समूह ’बी’ सिविल सेवा के अंतर्गत आती है। उनका उद्देश्य भारतीय सशस्त्र बलों और अंतर-सेवा संगठनों को बुनियादी सहायता सेवाएं प्रदान करना है।
  • यह सेवा रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आती है।
  • रक्षा सचिव इस संवर्ग का प्रमुख होता है।

दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह सिविल सेवा – Delhi, Andaman and Nicobar Islands Civil Service (DANICS)

  • यह सेवा भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए एक फीडर सेवा के रूप में कार्य करती है।
  • पूर्ण रूप दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह सिविल सेवा है जो भारत सरकार के अधीन कार्य करती है।
  • कैडर से अधिकारियों की प्रारंभिक पदस्थापना सहायक कलेक्टर (जिला प्रशासन, दिल्ली) की भूमिका है।

इस कैडर के अधिकारी दिल्ली और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनिक कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं।

दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पुलिस सेवा – Delhi, Andaman and Nicobar Islands Police Service (DANIPS)

  • DANIPS “दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, दमन और दीव और दादरा और नगर हवेली पुलिस सेवा” के लिए एक परिचित है।
  • यह भारत में एक संघीय पुलिस सेवा है, जो दिल्ली और भारत के केंद्र शासित प्रदेशों का प्रशासन करती है।

पांडिचेरी सिविल सर्विस – Pondicherry Civil Service

  • इस कैडर के लिए भर्ती यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से होती है।

पांडिचेरी पुलिस सेवा – Pondicherry Police Service

  • पांडिचेरी पुलिस सेवा के लिए भर्ती यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के माध्यम से होती है।
  • यह एक समूह ‘बी’ सिविल सेवा है।

उपर्युक्त विवरण यूपीएससी 2020 की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों को अपने लक्ष्य निर्धारित करने में मदद करेंगे।

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अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रबंध निदेशक (अध्यक्षों) के नाम और उनके कार्यकाल की सूची

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अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अध्यक्षों की सूची | International Monetary Fund in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के बारे में महत्‍वपूर्ण सामान्य ज्ञान जानकारी: (International Monetary Fund information in Hindi)

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष किसे कहते है?

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) एक अंतरसरकारी संगठन है, जिसकी स्थापना अंतरराष्ट्रीय व्यापार में विनिमय दर को स्थिर करने के लिए की गई थी। यह अपने सदस्य देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान करती है। यह संगठन अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय दरों को स्थिर रखने के साथ-साथ विकास को सुगम करने में सहायता करता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मुख्यालय वॉशिंगटन डी॰ सी॰, संयुक्त राज्य अमेरिका में है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना 27 दिसम्बर 1945 को हुई थी।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य:

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिरता सुरक्षित करना, आर्थिक प्रगति को बढ़ावा देना, गरीबी कम करना, रोजगार को बढ़ावा देना और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सुविधाजनक बनाना है। आईएमएफ के कुल 186 सदस्य देश हैं। 29 जून 2009 को कोसोवो गणराज्य 186वें देश के रूप में शामिल हुआ था।

Quick Info about International Monetary Fund (IMF) in Hindi:

मुख्यालय वॉशिंगटन डी॰ सी॰, संयुक्त राज्य अमेरिका
स्थापना 27 दिसम्बर 1945
कुल सदस्य देश 186 (2009 के अनुसार)
वर्तमान प्रबंध निदेशक क्रिस्टीन लेगार्ड (फ्रांस)
प्रथम प्रबंध निदेशक कैमिल गट (बेल्जियम)

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रबंध निदेशक के कर्तव्य:

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का नेतृत्व प्रबंध निदेशक द्वारा किया जाता है जोकि कर्मचारियों का प्रमुख होता है और कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। उसके पास आईएमएफ के कर्मचारियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी के अधिकार होंगे। इसके साथ-साथ प्रबंध निदेशक को आईएमएफ के कार्यकारी बोर्ड की देख रेख में काम करना होगा। 24 सदस्यीय कार्यकारी बोर्ड द्वारा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रबंध निदेशक का चयन किया जाता है। आईएमएफ के प्रबंध निदेशक की सहायता के लिए प्रथम उप प्रबंध निदेशक और 3 उप प्रबंध निदेशक भी नियुक्त होंगे।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के वर्तमान प्रबंध निदेशक:

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के वर्तमान अध्यक्ष (प्रबंध निदेशक) क्रिस्टीन लेगार्ड है। उन्होंने 05 जुलाई 2011 को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के 11वें प्रबंध निदेशक के रूप में पद संभाला था और वह 06 जुलाई 2016 से अपना दूसरा 5 वर्षीय कार्यकाल पूरा कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पहले प्रबंध निदेशक श्री कैमिल गट थे।

यह भी पढ़ें: नवीनतम कौन क्या है 2020:

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रबंध निदेशकों की सूची:

नाम कार्यकाल
केमिल गट (बेल्जियम) 06 मई 1946 से 05 मई 1951 तक
आइवर रूथ (स्वीडन) 03 अगस्त 1951 से 03 अक्टूबर 1956 तक
पेर जैकबसन (स्वीडन) 21 नवंबर 1956 से 05 मई 1963 तक
पियरे-पॉल श्वित्ज़र (फ्रांस) 01 सितंबर 1963 से 31 अगस्त 1973 तक
जोहान विट्टवेन (नीदरलैंड) 01 सितंबर 1973 से 18 जून  1978 तक
जैक्स डे लारोसीएर (फ्रांस) 18 जून  1978 से 15 जनवरी 1987 तक
मिशेल कैमडेसस (फ्रांस) 16 जनवरी 1987 से 14 फरवरी 2000 तक
हॉर्स्ट कोहलर (जर्मनी) 01 मई 2000 से 04 मार्च 2004 तक
रॉड्रिगो राटो (स्पेन) 07 जून 2004 से 31 अक्टूबर 2007 तक
डोमिनिक स्ट्रॉस-कान (फ्रांस) 01 नवम्बर 2007 से 18 मई 2011 तक
क्रिस्टीन लेगार्ड (फ्रांस)  05 जुलाई 2011 से वर्तमान तक

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कार्य प्राणली:

आईएमएफ एवं विश्व बैंक का एक संगठनात्मक ढांचा एक समान है। आईएमएफ एक बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स, बोर्ड ऑफ एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर्स, अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली पर एक अंतरिम समिति तथा एक प्रबंध निदेशक व कर्मचारी वर्ग के द्वारा अपना कार्य करता है। कोष की सभी शक्तियां बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में निहित होती हैं। इस बोर्ड में प्रत्येक सदस्य देश का एक गवर्नर एवं एक वैकल्पिक प्रतिनिधि शामिल रहता है। इसकी बैठक वर्ष में एक बार होती है। बोर्ड ऑफ गवर्नर्स द्वारा अपनी अधिकांश शक्तियां 24 सदस्यीय कार्यकारी निदेशक बोर्ड को हस्तांतरित कर दी गयी हैं। इस कार्यकारी निदेशक बोर्ड की नियुक्तियां निर्वाचन सदस्य देशों या देशों के समूहों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक नियुक्त निदेशक को अपनी सरकार के निर्धारित कोटे के अनुपात में मत शक्ति प्राप्त होती है। जबकि प्रत्येक निर्वाचित निदेशक अपने देश समूह से सम्बद्ध सभी वोट डाल सकता है। कार्यकारी निदेशकों द्वारा अपने प्रबंध निदेशक का चयन किया जाता है, जो कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। प्रबंध निदेशक आईएमएफ के दिन-प्रतिदिन के कार्यों को सम्पन्न करता है। एक संधि समझौते के अनुसार आईएमएफ का प्रबंध निदेशक यूरोपीय होता है जबकि विश्व बैंक का अध्यक्ष अमेरिकी नागरिक होता है।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य:

  • जनवरी 2008 में 13वीं सामान्य समीक्षा के बाद आईएमएफ की कुल कोटा राशि 2,17,300 मिलियन एसडीआर थी।
  • वैश्विक मंदी से निपटने के लिए आईएमएफ ने सदस्य राष्ट्रों को उनके अभ्यंशों के आधार पर 250 अरब एसडीआर की राशि का आवंटन करने का निर्णय लिया था।
  • अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अभ्यंशों को स्वर्ण तथा स्थानीय करेंसी के रूप में जमा कराया जाता है।
  • प्रत्येक सदस्य देश की प्रवेश के समय कोटे की 25 प्रतिशत राशि स्वर्ण या डॉलर के रूप में जमा करनी होती है तथा कोटे का शेष भाग वह अपनी करेन्सी के रूप में जमा करा सकता है।
  • फरवरी 2003 में की गई अभ्यंशों की 12वीं समीक्षा के बाद आईएमएफ की कुल अभ्यंश राशि 213 अरब एसडीआर थी।
  • 13वीं समीक्षा के अंतर्गत सदस्य राष्ट्रों के कोटों में परिवर्तन उनकी अर्थव्यवस्था की स्थिति के अनुरूप ही किया गया था।
  • सितंबर 2006 में सिंगापुर में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सालाना बैठक में चीन सहित चार उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मतशक्ति में वृद्धि का फैसला किया गया था।
  • मई व जून 2003 में दो अलग-अलग किश्तों में कुल मिलाकर 205 मिलियन एसडीआर (291.70 मिलियन डॉलर) की राशि भारत ने मुद्रा कोष को (फाइनेंशियल ट्रांजेक्शन प्लान-एफटीपी) के अंतर्गत उपलब्ध कराई।
  • वैश्विक मंदी से निपटने के लिए 14वीं समीक्षा (वर्ष 2010 में) के तहत् सदस्य राष्ट्रों की मदद के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने लगभग 250 अरब एसडीआर का आवंटन सदस्य देशों में किया गया।
  • अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के 14वें कोटा पुनरीक्षण के अंतर्गत भारत के कोटा में होने वाली वृद्धि 5821.5 मिलियन एसडीआर से बढ़कर 13114 मिलियन एसडीआर हो गई तथा वह इस संस्था का आठवां बड़ा कोटाधारी हो गया।
  • अब भारत का कोटा 2.44 प्रतिशत से बढ़कर 2.75 प्रतिशत हो गया है।
  • 18 अप्रैल, 2012 को दक्षिणी सूडान को भी आईएमएफ का सदस्य बना लिए जाने पर आईएमएफ की सदस्य संख्या दिसंबर 2013 की स्थिति के अनुसार 188 हो गई है।

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